Inside this Article:
- गुटिका - बटी का परिचय
- भावना-विधि
- अग्निवर्द्धक बटी
- अपतन्त्रकारि बटी (हिस्टीरियाहर बटी )
- अमृतप्रभा वटी
- अमृतमञ्जरी गुटिका
- अर्शोघ्नी बटी
- आनन्ददा बटी
- आदित्य गुटिका
- आमवातार बटी
- एलादि बटी
- कर्पूरादि वटी
- कफघ्नी बटी
- कृमिघातिनी गुटिका
- कांकायन बटी (अर्श)
- कांकायन बटी (गुल्म)
- कास बटी
- कासकर्तरी गुटिका
- कस्तूरी गुटिका
- कुटजघनबटी
- (कुर्स) कहरवा बटी
- खदिरादि बटी
- खर्जुरादि वटी
- गन्धक बटी (राज बटी )
- गुडूचीघन बटी ( संशमन बटी )
- गुडूच्यादि मोदक
- चन्दनादि बटी
- चन्द्रकला बटी
- चन्द्रप्रभा बटी
- चित्रकादि वटी
- छर्दिरुपि वटी
- जम्बीर - लवण बटी
- जयन्ती बटी
- जया बटी
- जातिफलादि बटी ( संग्रहणी )
- जातिफलादि बटी ( स्तम्भक )
- तक्र वटी
- त्रैलोक्य विजया वटी
- दाड़िमादि वटी
- दाड़िमपाक वटी
- द्राक्षादि गुटिका
- दुग्ध वटी (शोथ)
- दुग्ध वटी (संग्रहणी)
- धनंजय वटी
- नवज्वरहर वटी
- नाग गुटिका
- पञ्चतिक्तघन वटी
- प्राणदा गुटिका
- प्लीहारि वटी
- प्रभाकर वटी
- बालजीवन गुटिका
- बाल वटी
- विषमुष्ट्यादि वटी
- बोलादि वटी
- व्योषादि वटी
- वृद्धिबाधिका वटी
- वृद्धिहरी टिका
- ब्राह्मी वटी (स्वर्णघटित)
- ब्राह्मी वटी (चेचक )
- ब्राह्मी वटी (बुद्धिवर्धक )
- भागोत्तर गुटिका
- मकरध्वज वटी
- मधूका गुटिका
- मरीच्यादि वटी
- मदनमञ्जरी वटी
- मधुमेह नाशिनी गुटिका
- महाभ्र वटी
- महाशंख वटी
- मुक्तादि वटी
- मेहमुद्गर वटी
- रजः प्रवर्तनी वटी
- रत्नप्रभा वटिका
- रविसुन्दर वटी
- विसुन्दरी वटी
- रेचक वटी
- लवंगादि वटी
- लवंगादि वटी दूसरी
- लवण वटी
- शुनादी वटी
- शम्बूकादि वटी
- शंख वटी
- शिलाजित्वादि वटी (स्वर्णयुक्त )
- शिलाजित्वादि वटी
- सर्पगन्धाघन बटी
- सबीर वटी
- सुखविरेचन वटी
- सूरणबटक
- संचेतनी वटी
- संजीवनी वटी
- सारिवादि वटी
- सौभाग्य वटी (प्रसूत )
- सौभाग्य बटी (सन्निपात )
- हिंगुकर्पूरादि वटी
- हिंग्वादि वटी
- क्षार बटी
- क्षुधावती गुटिका
- क्षुधाकारी वटी
गुटिका - बटी प्रकरण
वटको मोदकः पिण्डी गुडो वर्तिस्तथा बटी ।
वटिका गुटिका चेति संज्ञावान्तरभेदतः ॥
अर्थात्
वटक, मोदक, पिण्डी, गुड़, वर्ति, बटी और बटिका तथा गुटिका इनकी बनावट एक ही प्रकार की है। केवल आकार और परिमाण में भेद होता है। इन औषधों में प्रधान भाग काष्ठौषधियों का रहता है।
गुटिका - बटी का परिचय
औषधियों के महीन चूर्ण को मधु, गुड़, खाण्ड आदि की चाशनी में मिलाकर अथवा औषधियों को जल, स्वरस या क्वाथ आदि में पीस कर या पाक करके जो गोलियाँ बनाई जाती हैं, उन्हें गुटिका या बटी कहते हैं। गोलियों को हाथ से बनाने पर वे छोटी-बड़ी बन जाती हैं। ठीक साइज की नहीं बन पाती हैं और मशीन से बनाने पर एक निश्चित साइज की बनती हैं। अतः ऐसा ही करना ठीक है ।
भावना-विधि
जितने द्रव पदार्थ से औषध अच्छी तरह भीग जाय उतना ही द्रव पदार्थ लेकर भावना देनी चाहिए, अथवा जिस चीज के क्वाथ से भावना देनी हो, वह भाव्य (जिसे भावना देनी है) द्रव्य के बराबर लेकर अठगुने पानी में पकावें और आठवाँ भाग शेष रहने पर छान कर उससे भावना दें।
यदि गोलियों को धूप में सुखाने के लिये लिखा हो तो धूप में अन्यथा छाया में सुखाना चाहिए, क्योंकि धूप और छाया के प्रभाव से भी दवाओं के गुण में अन्तर पड़ता है। आजकल दवाओं को सुखाने के लिये बिजली की शोषण - मञ्जूषिका (Electrical Dry Chamber) चल पड़ी हैं, इनका प्रयोग बड़ी-छोटी सभी रसायनशालाओं में किया जा रहा है। इनमें एक निश्चित तापमान पर दवाओं, गोलियों एवं टेबलेटों (चक्रिकाओं) के लिये बनाये गये दाने (Granules) आदि को सब ऋतुओं में दर्द - गुबार वर्षा आदि विघ्नोंरहित बड़ी उत्तमतापूर्वक सुखाया जा सकता है।
स्वादिष्ट, हाजमा करने वाली गोलियाँ भोजन के बाद और रोगनाशन के लिये सुबह-शाम उचित अनुपान के साथ लेनी चाहिए। जिन बटियों में कुचला या अफीम हो उनकी मात्रा (खुराक) 1 गोली से ज्यादे नहीं होनी चाहिए। जायकेदार और पाचक गोलियाँ बिना अनुपान के भी मुँह में रख कर चूसते रहना चाहिए। मात्रा जितनी लिखी हो उससे कम-ज्यादा करने से नुकसान होता है। कम खाने से गुण नहीं करती और ज्यादा खाने से शरीर में लाभ के बदले नुकसान पहुँचाती हैं। बच्चों को आयु के अनुसार मात्रा में दवा देनी चाहिए।
गोलियों पर वर्क चढ़ाना
यदि गोलियों पर वर्क (सोना-चाँदी आदि के) चढ़ाने हों तो पहले उन्हें मुगलई बेदाना के लुआब से अच्छी तरह तर कर लें, फिर उन पर सोने या चाँदी के, जैसी आवश्यकता हो, वर्क डालकर हाथ से मल दें और चीनी के चौड़े मुँह वाले बरतन में डालकर तेजी के साथ उस बरतन को गोल कायदे में चक्की के समान चारों ओर घुमाना चाहिए। • इस क्रिया से गोलियाँ सुन्दर बन जाती हैं। इस काम को कोटिंगपैन (Coating Pan ) यन्त्र द्वारा उत्तमता से किया जा सकता है। इस यन्त्र से चीनी का स्तर (Sugar Coating ) भी किया जाता है।
गोली - सेवन करते समय गोलियों को महीन पीस कर अनुपान के साथ मिलाकर सेवन किया जाय तो जल्दी असर होता है। कठिन गोलियों को बिना पीसे नहीं खायें अन्यथा कभी- कभी ये गोलियाँ ज्यों-की-त्यों दस्त के साथ बाहर निकल आती हैं। जिन दवाओं के योगों में या भावनाओं में कोई लसदार (चेपदार) द्रव्य नहीं होता है, उनकी गोलियाँ बनाना कठिन होता है। किसी-किसी दवा की गोली तो बिल्कुल ही नहीं बन पाती है। ऐसी दवाओं में योग के कुल वजन से 25वां या 30 वाँ भाग शुद्ध बबूल के गोंद का चूर्ण (Gum Accacia Powder) मिला दिया जाये तो उनमें लस पैदा हो कर गोलियाँ बनायी जा सकती हैं।
आजकल गोली बनाने की प्रक्रिया में भी काफी सुधार हो चुके हैं, जिन द्रव्यों की गोलियाँ खाने में खराब जायके की या खराब गन्धवाली होती हैं, उन पर चीनी का स्तर (Sugar Coating) करके स्वादिष्ट बना लेना चाहिए।
अग्निवर्द्धक बटी
काला नमक, नौसादर, गोल मिर्च और आक के फूलों की लौंग (आक के फूलों के भीतर जो चतुष्कोणाकार भाग होता है, उसको आक के फूलों की लौंग कहते हैं ) - इन चारों को सम भाग लेकर कूट- कपड़छन किए हुए कुल चूर्ण से सोलहवाँ भाग निम्बू सत्व मिला, निम्न रस के साथ मर्दन कर चने के बराबर गोलियाँ बना, धूप में सुखा कर रख लें। - सि. भै. म. मा. से किंचित् परिवर्तित
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली दिन में 4 गोली तक गर्म जल से दें या मुँह में डालकर चूस लें।
गुण और उपयोग
यह अत्यन्त स्वादिष्ट और पाचक रस उत्पन्न करने वाली है। इससे भोजन पच कर भूख खूब लगती और दस्त साफ आता है। एक-दो गोली खाते ही मुँह का बिगड़ा हुआ स्वाद ठीक हो जाता है। यह गोली मन्दाग्नि, अरुचि, भूख न लगना, पेट फूल जाना, पेट में आवाज होना, दस्त - कब्ज रहना, खट्टी डकारें आना आदि दोषों को दूर कर जठराग्नि को प्रदीप्त करती और भूख बढ़ाती है। जिन्हें बार-बार भूख कम लगने की शिकायत हो, उन्हें यह गोली अवश्य लेनी चाहिए।
अजीर्ण की शिकायत अधिक दिनों तक बनी रहने पर पित्त कमजोर हो जाता और कफ तथा आँव की वृद्धि हो जाती है। इसमें हृदय भारी हो जाना, पेट में भारीपन बना रहना, शरीर में आलस्य, किसी भी काम में उत्साह नहीं होना,
हृदय की गति और नाड़ी की चाल मन्द हो जाना आदि लक्षण होने पर यह बटी देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है । यह पित्त को जागृत कर, कफ और आँव के दोष को पचाकर बाहर निकाल देती है और पाचक रस की उत्पत्ति कर भूख जगा देती है । उदरशूल में गरम पानी के साथ 2 गोली लेने से तुरन्त रामबाण की तरह लाभ करती है।
अपतन्त्रकारि बटी (हिस्टीरियाहर बटी )
घी में सेंकी हुई हींग 1 तोला, कपूर 1 तोला, गाँजा आधा तोला खुरासानी अजवायन के बीज या पत्ती दो तोला, तगर (यूनानी आसारून) 2 तोला, सबका कपड़छन चूर्ण कर जटामांसी फाण्ट में पीस कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रखें। -- सि. यो. सं. से किंचित् परिवर्तित
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली एक बार में देकर ऊपर से मांस्यादि क्वाथ पिलावें । इसी प्रकार दिन में 3-4 बार आवश्यकतानुसार दें।
गुण और उपयोग
अपतन्त्रकारि (हिस्टीरियाहर) बटी का प्रभाव वातवाहिनी नाड़ी और मस्तिष्क पर विशेष होता है।
अपतन्त्रक (हिस्टीरिया )
आयुर्वेदीय मतानुसार रूक्षादि कारणों से प्रकुपित वायु अपने स्थान को छोड़ कर हृदय में जा कर पीड़ा उत्पन्न करता है। इसमें मस्तक और कनपटी में पीड़ा होती है, शरीर को धनुष समान नवा कर मूर्च्छित ( बेहोश ) कर देता है। रोगी कष्ट के साथ साँस लेता, नेत्र, पथरा जाते या बन्द हो जाते हैं तथा कबूतर के समान कूजने की-सी आवाज निकलती है। यह रोग प्रायः युवावस्थावाली लड़कियों को काम-वासना की अतृप्ति के कारण अथवा मासिक-धर्म साफ न होने से या मानसिक अभिघात, चिन्ता, शोक, क्रोध, भय आदि कारणों से वात प्रकुपित हो कर होता है। ठण्डे मिजाजवाली लड़कियों की अपेक्षा गरम मिजाजवाली लड़कियों को ही अधिक होता है। 30 वर्ष से ऊपर की उम्रवाली स्त्रियों में यह रोग बहुत कम पाया जाता है।
कई रोगियों को बेहोशी का दौरा 24 घण्टे तक निरन्तर होते देखा गया है। बहुतों को तो बार-बार और जल्दी दौरा होता है। ऐसी दशा में रोगी को कुछ होश आते ही तुरन्त मूर्च्छा हो जाती है। बेहोशी की हालत में दाँती बँध जाती, शरीर अकड़ जाता तथा रोगी हाथ-पैर पटकने लगता है। इसमें अपतन्त्रकारि बटी के प्रयोग से बहुत शीघ्र फायदा होता है। यह बटी वायुनाशक होते हुए मनोवाहिनी शिरा को भी चैतन्य शक्ति प्रदान करती है। यदि निरन्तर नियमपूर्वक 24 दिन तक इस गोली का सेवन कराया जाय, तो फिर हिस्टीरिया आने का कभी सन्देह ही नहीं रहता है।
अमृतप्रभा वटी
काली मिर्च, पीपलामूल, लौंग, हरड़, अजवायन, तिन्तिड़ीक, अनारदाना, विड्नमक, सेंधा नमक, सोंचर नमक – प्रत्येक 1-1 भाग, पीपल, यवक्षार, चित्रकमूल-छाल, स्याह जीरा, सफेद जीरा, सोंठ, धनियाँ, छोटी इलायची, आँवला - प्रत्येक 2-2 भाग लेकर कूट- कपड़छन चूर्ण कर लें और बिजौरा नींबू के रस की 3 भावना देकर मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - यो. चि. म.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली, दिन में दो बार प्रातः सायं सुखोष्ण के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के अजीर्ण रोग समूल नष्ट होते हैं और प्रकुपित आम या कफ दोष का पाचन कर जठराग्नि प्रदीप्त करती है। इसके अतिरिक्त अरुचि, आध्मान, ग्रहणी रोग, अर्श, पाण्डु रोग, शूल रोग और अन्य उदर रोगों को नष्ट करती है। यह उत्तम वातानुलोमक और दीपक - पाचक है।
अमृतमञ्जरी गुटिका
शुद्ध हिंगुल, शुद्ध विष, पीपल, काली मिर्च, शुद्ध टंकण, जावित्री - ये प्रत्येक द्रव्य 1 - 1 भाग लेकर प्रथम हिंगुल को खरल में डाल कर सूक्ष्म मर्दन करें । पश्चात् अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण कर उसमें मिलाकर जम्बीरी नींबू के रस के साथ अच्छी तरह मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -र. च.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 गोली दिन में 2-3 बार अदरक रस और शहद के साथ दें या उष्ण जल के साथ।
गुण और उपयोग
इस बटी का उपयोग करने से कठिन सन्निपात रोग शीघ्र नष्ट होते हैं और समस्त प्रकार के अग्निमांद्य, अजीर्ण,
भयंकर आमवात आदि रोगों को यह शीघ्र नष्ट करती है। इसके अतिरिक्त पाँचों प्रकार के कास रोग और श्वास रोग, सम्पूर्ण अंग जकड़ जाना, जीर्ण ज्वर, राजयक्ष्मा, विशेषतः क्षयजनित कास रोग आदि शीघ्र नष्ट होते हैं। इस रोग में हिंगुल उत्तम कीटाणुनाशक है, अतः इसका विसूचिका एवं क्षय के कीटाणुओं को नष्ट करने में विशेष प्रभाव होता है। यह रसायन, उत्तम कीटाणुनाशक, कफदोष एवं आमदोष नाशक है। इसके प्रयोग से कफ का नाश होकर फुफ्फुसों को बल मिलता है। यह उत्तम दीपक और पाचक है।
अर्शोघ्नी बटी
निंबोली (नीम के फल की मींगी) 2 तोला, बकायन के फल की मींगी 2 तोला, खून खराबा (यूनानी दमउल् अखवेन) 2 तोला, तृणकान्त (यूनानी - कहरवा ) मणि की अर्क गुलाब से बनाई हुई पिष्टी 1 तोला, शुद्ध रसौत ( दारूहल्दी का घन सत्त्व) 6 तोला लें। प्रथम निंबोली और बकायन की मींगी को खूब महीन पीसें । पीछे अन्य द्रव्य मिला, घोंट कर 2-2 रत्ती की • गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - सि. यो. सं. द्वि. संस्करण
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम । दिन में तीन-चार बार मट्ठे से या ठण्डे पानी के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह दोनों प्रकार के बवासीर (खूनी बादी) के लिए उत्तम दवा है। खूनी बवासीर में जब जोरों का रक्तस्राव हो रहा हो, तो इस बटी के प्रयोग से बहुत शीघ्र रक्त बन्द हो जाता है । नियमित रूप से इस बटी का सेवन करने से बवासीर जड़मूल से नष्ट हो जाती हैं। बादी के बढ़े हुए कठोर मस्से सूख जाते हैं। यह दस्तावर, वायुनाशक और रक्तरोधक है।
आनन्ददा बटी
शुद्ध अफीम 1 तोला, कस्तूरी उत्तम 3 माशा, कपूर 3 माशा, काली मिर्च का चूर्ण 1 तोला, रस सिन्दूर 1 तोला, जायफल चूर्ण, जावित्री चूर्ण, केशर, शुद्ध हिंगुल - प्रत्येक 6-6 माशा लेकर सब को एकत्र खरल में डाल कर भाँग के पत्तों के रस की 3 भावना दें। जब गोली बनने योग्य हो जाय, तब 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर रख लें। - र. वि.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली रात में सोने से एक घण्टा पूर्व मलाई, दूध या पान के बीड़े में रख कर खायें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से शरीर में बल, वीर्य, वर्ण तथा पाचक अग्नि की वृद्धि होती है। मैथुन से 1 घण्टा पूर्व 1 गोली मलाई के साथ सेवन कर पुरुष मदमस्त स्त्रियों के साथ इच्छानुसार रमण कर सकता है। वीर्य स्तम्भन और बल-वृद्धि के लिए मलाई या दूध के साथ इस बटी का कुछ रोज तक सेवन करने से अच्छा लाभ होता है।
आदित्य गुटिका
बच, सोंठ, जीरा, काली मिर्च, शुद्ध बच्छनाग, हींग भुनी, चित्रक की छाल - प्रत्येक दवा समान भाग लेकर, महीन चूर्ण करके भाँगरे के रस में घोंट कर, चने के बराबर (दो-दो रत्ती) की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - वै. जीवन
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम गर्म जल से दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के सेवन से सब प्रकार के शूल, अग्निमान्द्य, पेट फूलना, अजीर्ण आदि रोग दूर होते हैं।
इस गुटिका का असर वातवाहिनी नाड़ी तथा पाचक पित्त पर विशेष रहता है। किसी कारण से प्रकुपित वायु जठराग्नि को मन्द कर पाचक पित्त को कमजोर बना देता है, जिससे मन्दाग्नि और उदर में अन्य कई तरह के वात - सम्बन्धी रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे- भूख न लगना, अजीर्ण, पेट भारी मालूम पड़ना, दर्द होना, आलस्य बना रहना, बद्धकोष्ठ आदि । ऐसी दशा में इस गुटिका सेवन से अच्छा लाभ होता है। यह दीपक, पाचक और वायु शामक है तथा पाचक पित्त को उत्तेजित करने से अग्निप्रदीपक भी है।
आमवातार बटी
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, ताम्र भस्म, तूतिया, सुहागे की खील, सेंधा नमक – प्रत्येक दवा 1-1 तोला, शुद्ध गुग्गुल 14 तोला, निशोथ की जड़ और चित्रक की जड़ 311-3।। तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना, उसमें अन्य औषधियों का कपड़छन चूर्ण मिला, एकत्र कर, घी के साथ घोंट कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम रास्नादि क्वाथ या अण्डी (एरण्ड) की जड़ के क्वाथ के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह औषध पाचक, भेदक तथा आमवात, गुल्म, शूल, उदर रोग, यकृत् प्लीहोदर, अष्ठीला, कामला, पाण्डु अरुचि, ग्रन्थिशूल, सिर-दर्द, वातरोग, गृध्रसी, गलगण्ड, गण्डमाला, कृमि, कुष्ठ, भगन्दर, विद्रधि, अन्त्र विद्रधि, बवासीर और गुदा के समस्त रोगों का नाशक है।
वक्तव्य
र. यो. सा. में ताम्र के स्थान पर अभ्रक भस्म तथा निशोथ (त्रिवृता) के स्थान पर त्रिफला का उल्लेख है, परन्तु आमवात में ताम्र भस्म अधिक उपयोगी है। त्रिवृता के स्थान पर चाहें तो त्रिफला भी ले सकते हैं।
एलादि बटी
छोटी इलायची, तेजपात, दालचीनी - प्रत्येक 6-6 माशा, पीपल 2 तोला, मिश्री, मुलेठी, पिण्ड खजूर, मुनक्का 4-4 तोला। प्रथम मुनक्का और पिण्ड खजूर को खूब महीन पीस कर उसमें अन्य दवाओं का कपड़छन चूर्ण मिलाकर सबको शहद में मिला, छोटे बेर के बराबर गोलियाँ बना कर रख लें।
वक्तव्य
पिण्ड खजूर और मुनक्का को बीज निकाल कर लें। मिश्री के स्थान पर दानेदार चीनी भी पीस कर मिलाना उत्तम है, अथवा दानेदार चीनी और शहद की चाशनी बना कर उसमें पिसी हुई सब चीजों को मिलाकर मर्दन कर गोली बनाने से गोली खाने में सुविधा होती है एवं टिकाऊ भी अधिक बनती है।
मात्रा और अनुपान
1 से 4 गोली दिन भर में चूसें या दूध के साथ।
गुण और उपयोग
इस गोली से सूखी खाँसी, क्षय की खाँसी, रक्तपित्त, मुँह से खून गिरना, बुखार, वमन, मूर्च्छा, प्यास, जी घबराना, स्वरभेद और पित्त के विकारों में बहुत लाभ होता है। यह पित्त शामक और कफदोष दूर करनेवाली है। सूखी खाँसी में कफ बैठ कर छाती में चिपका हुआ रहता है; जिससे श्वास लेने अथवा खाँसी आने पर विशेष तकलीफ होती है।
खाँसी में कफ नहीं निकलने से छाती और सिर में दर्द करने लगता है। कभी-कभी तो रक्त भी आना शुरू हो जाता है। ऐसी अवस्था में इस गोली से बहुत फायदा होता है । यह पित्त को शमन कर, कफ को पिघला करके बाहर निकाल देता तथा इसके सेवन से एक तरह की तरी बनी रहती है, जिसकी वजह से खाँसी नहीं आती है। इस गोली को चूसने से ही विशेष लाभ होता है।
कर्पूरादि वटी
कपूर 2 तोला, जायफल, सुपारी, लौंग, छोटी इलायची के बीज, कबाब चीनी, शुद्ध टंकण, शुद्ध फिटकरी, मिश्री - प्रत्येक 1-1 तोला, कत्था 3 तोला लेकर सब द्रव्यों को कूटकर कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् त्रिफला क्वाथ, बबूल की छाल का क्वाथ, गूलर के पत्ते का क्वाथ - इनकी पृथक्-पृथक् एक-एक भावना देकर मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। - अनुभूत योग
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली दिन में 5-6 बार मुख में रख कर अकेले ही या मिश्री के टुकड़ों के साथ चूसें।
गुण और उपयोग
इस बटी को मुख में रख कर इसका रस चूसने से मुँह में छाले पड़ना (मुँह आ जाना), मुँह बदबू आना, दाँतों से पीब निकलना और दन्तवेष्ट रोग (पायरिया) आदि मुख के रोगों और गले के रोगों को शीघ्र नष्ट करती हैं। जिह्वागत रोग, जिह्वा लाल हो जाना, फट जाना, जड़ता रहना- इनमें शीघ्र लाभ करती है। शुष्क कास रोग में मिश्री के टुकड़ों के साथ चूसने से गला साफ होकर शीघ्र ही लाभ होता है।
कफघ्नी बटी
कपूर 6 माशा, कस्तूरी 6 माशा, लौंग 2 तोला, काली मिर्च, पीपल, बहेड़ा, कुलिंजन – प्रत्येक 2-2 तोला, अनार के फल के बक्कल 4 तोला और खैरसार सब दवा की समान भाग लेकर पानी में खरल करके मूंग के बराबर गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। -- भा. भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-दोपहर और शाम चूसें या गर्म जल से लें ।
गुण और उपयोग
नवीन कफ में इसका उपयोग विशेष किया जाता है। सर्दी-जुकाम की वहज से कफ की वृद्धि होकर ज्वर होना, सिर में दर्द, आँखों से पानी चलना, खाने की इच्छा न होना, दस्त में कब्ज आदि उपद्रव होते हैं। ऐसी अवस्था में इस बटी के सेवन से विशेष लाभ होता है। यह बटी विकृत कफ दूर करती तथा कफ-सम्बन्धी उपद्रवों को भी दूर कर आरोग्य प्रदान करती है।
वक्तव्य
वृहन्निघण्टुरत्नाकर में इसी योग को 'कफाग्नि बटी' नाम से दिया है।
कृमिघातिनी गुटिका
काली जीरी, हल्दी, पीपल, कबीला (कम्पिल्लक), स्वर्णगैरिक, निशोथ, हरड़, पलाश (ढाक) के बीज - प्रत्येक समान भाग लेकर सबको एकत्र कूटकर सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् जल के साथ मर्दन कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली (बच्चों को आधी या चौथाई गोली ) शहद या ताजे पानी से सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के सेवन से बीस प्रकार के कृमि - विकार, ज्वर, मन्दाग्नि, अतिसार, वमन, पेट फूलना, अजीर्ण आदि रोग दूर होते हैं। कृमि रोग विशेष कर बच्चों को होता है, जिससे बच्चा सूखने लगता है।
पेट में दर्द होना, ज्यादे रोना, पतला दस्त होना, पेट कड़ा रहना तथा ज्वर इत्यादि लक्षण इस रोग में आते हैं। ऐसी हालत में कृमिघातिनी गुटिका सेवन कराने से कृमि रोग नष्ट हो जाता है और साथ ही इसके उपद्रव भी दूर हो जाते हैं। बालक, तरुण और वृद्ध सभी को इस दवा से फायदा होता है।
वक्तव्य
कुछ लोग काली जीरी के स्थान पर बाकुची भी लेते हैं, क्योंकि ग्रन्थ के मूल पाठ में 'शशिलेखा' शब्द है, जो बाकुची और काली जीरी दोनों का ही वाचक है। किन्तु कृमि रोग में बाकुची की अपेक्षा काली जीरी बहुत अधिक गुणकारी होने से इस योग में काली जीरी ही डालना चाहिए | काली जीरी स्वतन्त्र रूप से भी कृमि रोग पर बहुत उत्तम सिद्ध हुई है, इसके अनेक परीक्षण हो चुके हैं।
कांकायन बटी (अर्श)
हरड़ का वक्कल 20 तोला, काली मिर्च, जीरा और पीपल 4-4 तोला, पीपलामूल 8 तोला, चव्य 12 तोला, चीता 16 तोला, सोंठ 20 तोला, शुद्ध भिलावा 32 तोला, जिमिकन्द 64 तोला, यवक्षार 8 तोला और गुड़ सबसे दूना लेकर यथाविधि 4-4 रत्ती की बटक बना लें। — बंगसेन
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली सुबह-शाम मट्ठा के साथ दें।
गुण और उपयोग
खूनी और वादी दोनों प्रकार के बवासीर के लिए यह बहुत अच्छी दवा है । इसके सेवन से बवासीर के मस्से सूख जाते हैं और बवासीर में
कब्ज रहने के कारण टट्टी के समय जो तकलीफ होती है, वह भी मिट जाती है। बवासीर के साथ उपद्रव रूप में होने वाली अग्निमांद्य तथा पाण्डु
रोग आदि भी अच्छे हो जाते हैं। इसके सेवन से मन्दाग्नि, उदरशूल, कोष्ठबद्धता आदि अर्श के मूलजनक विकार भी मिट जाते हैं। अर्श (बवासीर) रोग की यह सुप्रसिद्ध औषधि है।
कांकायन बटी (गुल्म)
कचूर, पोहकरमूल, दन्ती, चीता अरहर की जड़, अदरक, बच, निसोथ – प्रत्येक 4-4 तोला, हींग 12 तोला, जवाखार 8 तोला, अम्लवेत 8 तोला, अजवायन, जीरा, काली मिर्च और धनियाँ – प्रत्येक 1-1 तोला, कलौंजी और अजमोद 2-2 तोला सब का चूर्ण करके बिजौरा नींबू के रस में घोंटकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बनावें । -चक्रदत्त
मात्रा और अनुपान
2-3 गोली सुबह-शाम और दोपहर गर्म जल, घृत या गोदुग्ध के साथ सेवन करें । गो-मूत्र के साथ सेवन करने से पुराना कफज गुल्म, दूध के साथ सेवन करने से पित्तज गुल्म और मद्य तथा कांजी के साथ सेवन करने से वातज गुल्म नष्ट होता है। त्रिफला के क्वाथ या गो- के साथ सेवन करने से सन्निपातज गुल्म और ऊँटनी के दूध के साथ सेवन करने से स्त्रियों का रक्त- गुल्म नष्ट होता है ।
गुण और उपयोग
यह बटी गुल्म रोग को प्रसिद्ध दवा है। अनेक बार की अनुभूत भी है। गुल्म रोग के अतिरिक्त बवासीर और हृदय रोग तथा कृमि रोग के लिए भी उपयोगी है।
कास बटी
लौंग 8 तोला, बहेड़ा 4 तोला, छोटी पीपल 4 तोला, सकर तगाल 4 तोला, काकड़ सिंगी 4 तोला, अनार का छिलका सूखा 1 तोला, दालचीनी 2 तोला, खैरसार ( कत्था ) 10 तोला, मुलेठी का घन सत्त्व 20 तोला, मुनक्का 10 तोला, आक के फूल 5 तोला, नौसादर 2 तोला, कपूर 1 तोला, शुद्ध टंकण 1 तोला, लेकर प्रथम मुनक्का और आक के फूलों को कूटकर चौगुने जल में क्वाथ करें, जब चौथाई जल शेष रहे, तब छानकर उसमें मुलेठी सत्त्व, नौसादर, कपूर और शुद्ध टंकण मिला दें। पश्चात् अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला अच्छी तरह मर्दन कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर, सुरक्षित रखें। - अनुभूत योग
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली मुँह में रखकर अकेली या मिश्री के टुकड़े के साथ चूसें। दिन-रात में 7-8 गोली तक चूसना चाहिए।
गुण और उपयोग
इस बटी का उपयोग करने से समस्त प्रकार के कास रोग नष्ट होते हैं। जब खाँसी जोर की आती हो और कफ न निकलता हो, तब इस बटी को मुँह में रखकर चूसने से खाँसी का वेग शीघ्र ही शान्त हो जाता है। गला और फेफड़ों तथा श्वास-प्रणाली में चिपका हुआ शुष्क कफ पतला होकर सरलता से निकल जाता है एवं गला साफ हो जाता है। यदि गला खराब होने के कारण खाँसी उठती हो, तो उसे भी यह बटी शीघ्र नष्ट करती है। इसके अतिरिक्त श्वास और स्वरभेद में भी इसके सेवन से लाभ होता है। इसमें लौंग, बहेड़ा, पीपल, काकड़ासिंगी, आक के फूल आदि कफघ्न द्रव्य होने से यह बटी कफज कास में भी उत्तम लाभ करती है। खाँसी के लिए यह बटी अत्युत्तम लाभदायक सुप्रसिद्ध औषध है। इसके गुणों की यथार्थता का हमें काफी अनुभव मिल चुका है।
कासकर्तरी गुटिका
रससिन्दूर 1 तोला, पीपल 2 तोला, हरड़ का बक्कल 3 तोला, बहेड़ा का छिलका 4 तोला, वासा 5 तोला, भारंगी 6 तोला, कत्था 21 तोला लेकर सबको यथाविधि चूर्ण बना, बबूल के क्वाथ की 21 भावना देकर 3 3 रत्ती की गोलियाँ बना लें। — रसामृत
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली दिन भर में 4 बार मुँह में रखकर चूसें या गर्म जल के साथ सेवन करें।
गुण और उपयोग
खाँसी, श्वास, यक्ष्मा की खाँसी तथा हिक्का ( हिचकी) में बहुत फायदा करती है । यह बटी श्वास नली में से कफ को निकालने में (फुफ्फुस में यदि किसी तरह के विकार न हुए हों तो ) बहुत शीघ्र लाभप्रद होती है। पित्त की अधिकता से कफ सूख कर सूखी खाँसी होने लगती है; जिससे मुँह सूखना, आँख और हाथ-पैरों में जलन होना, खाँसी में कफ नहीं निकलना आदि उपद्रव उत्पन्न होते हैं ।
ऐसी हालत पित्त-प्रकोप को शान्त करने के लिये इसका प्रयोग करना अच्छा है। यह दूषित (चिपका हुआ) कफ को बाहर निकालकर खाँसी को नष्ट कर देती है।
कस्तूरी गुटिका
स्वर्ण भस्म 1 भाग, कस्तूरी 2 भाग, रौप्य भस्म 3 भाग, केशर 4 भाग, छोटी इलायची के बीज 5 भाग, जायफल 6 भाग वंशलोचन 7 भाग जावित्री 8 भाग लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् उसमें स्वर्ण भस्म केशर, कस्तूरी मिला, बकरी के दूध और पान के रस से तीन-तीन दिन मर्दन
1- 1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रखें। - भा. भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम दूध की मलाई के साथ सेवन करें या शहद अथवा पान के रस साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के प्रयोग से शुक्रक्षय-जनित समस्त प्रकार के रोग, शीघ्रपतन, वीर्य का पतलापन, प्रमेह – ये रोग नष्ट होते हैं। अति मैथुनजनित शिथिलता, शुक्रक्षीणता, समस्त प्रकार मूत्र रोग, कास रोग, श्वास रोग, कफ एवं वात जनित विकारों को भी यह बटी शीघ्र नष्ट करती है। इस बटी का वीर्यवाहिनी नाड़ियों और वातवाहिनी नाड़ियों, हृदय, मस्तिष्क तथा फुफ्फुसों पर विशेष एवं शीघ्र प्रभाव होता है। यह बटी अत्यन्त वृष्य, वीर्यवर्द्धक और उत्तम
रसायन है । समस्त प्रकार के वात रोगों में इसके सेवन से अच्छा लाभ होता है। कुछ समय तक निरन्तर सेवन करने से रस- रक्तादि धातुओं की पुष्टि करके शरीर को हृष्ट-पुष्ट एवं कान्ति- युक्त बना देती है ।
कुटजघनबटी
कुड़ा के मूल की या वृक्ष की ताजी हरी छाल ला, उसको जल से धोकर जौकुट कर 16 ने जल में पकावें । जब आठवाँ हिस्सा जल बाकी रहे, तब उसको नीचे उतार कर ठण्डा होनेपर स्वच्छ और मजबूत कपड़े से छान लें। फिर प्रारम्भ में मध्यम और पीछे मन्द आँच पर पकावें और लकड़ी के कोंचे से चलाते रहें, जब क्वाथ गाढ़ा होकर कोंचे (लकड़ी) में लगने लगे तब नीचे उतार कर, सूर्य की धूप गाढ़ा ही तब तक सुखावें । पीछे उसमें अतीस का चूर्ण गोली बनने योग्य मिला, 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -- सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली दिन में 3-4 बार ठण्डे जल के अनुपान से दें।
गुण और उपयोग
अतिसार, ग्रहणी और ज्वर में जब पतले दस्त आते हों, तब इसके उपयोग से अच्छा लाभ होता है।
(कुर्स) कहरवा बटी
गिले अरमनी 1। तोला, निशास्ता (गेहूँ का सत्व ) 11 तोला, गुलाब के फूल 1। तोला, कहरवा - पिष्टी 1111 तोला, हब्बुलास 1।।। तोला, मीठे पानी का केकड़ा अन्तर्धूम में जलाया हुआ 3 तोला, कुल्फा के बीज 3 तोला, सफेद चन्दन 3 तोला, लौकी (कद्दू) के बीज की मींगी 3 तोला, ककड़ी के बीज की मींगी 3 तोला, गिले मख्तूम 1 तोला, प्रवाल पिष्टी 1 तोला, कतीरा गोन्द 1।। तोला, वंशलोचन 1 ।। तोला, सादनज का चूर्ण (धोया हुआ ) 1 तोला, बबूल का गोन्द 2 तोला, मुलेठी सत्त्व 2 तोला, कपूर 111 माशा - लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् अन्य द्रव्य तथा पिष्टी मिला, बिहीदाने के लुआब में मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की टिकिया सदृश गोली बना सुखाकर सुरक्षित रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली दिन में दो बार सुबह-शाम पेठे के ताजे निकाले गये रस के साथ या अर्क गुलाब या वासा पत्र स्वरस या उचित अनुपान के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी का सेवन करने से उरःक्षत (राजयक्ष्मा) में होने वाला कफ मिश्रित रक्तस्राव शीघ्र नष्ट होता है। इसके अतिरिक्त यह बटी रक्तपित्त, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, दाह रोग और पित्त रोग को नष्ट करता है। हृदय और मस्तिष्क को इसके सेवन से अपूर्व बल मिलता है तथा अश्मरी में भी अच्छा लाभ होता है। दिल, दिमाग तथा फेफड़ों और मूत्र संस्थान को भी अच्छा बल मिलता है। यह सौम्य होने के कारण पित्त वृद्धि एवं उष्णता जन्य विकारों में भी लाभ करती है। यूनानी चिकित्सक इस औषध का विशेष व्यवहार करते हैं।
खदिरादि बटी
खैरसार (कथा) 4 तोला, जावित्री 1 तोला, कंकोल मिर्च 1 तोला, कपूर 1 तोला, सुपारी 1 तोला लेकर कपूर को छोड़कर शेष द्रव्यों को कूटकर सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें पश्चात् कपूर मिला जल के साथ मर्दन कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना छाया रख लें।
मात्रा और अनुपान
एक-एक गोली करके दिन रात में 4-5 गोली चूसनी चाहिए।
गुण और उपयोग
मुँह में छाले पड़ने और पक जाने पर इस बटी को मुँह में रख कर धीरे-धीरे चूसना चाहिए। स्वर भङ्ग में भी इसके चूसने से लाभ होता है। इसके अतिरिक्त दन्त तथा ओष्ठ रोग, जिल्हा विकार और तालु आदि के रोगों में फायदेमन्द है। इसको मुख में रखने से मुँह का जायका ठीक हो जाता है, मुँह सूखता नहीं तथा कफ पिघल कर निकल जाता है।
खर्जुरादि वटी
खजूर (छुहारा या पिण्ड खजूर), मुनक्का, मुलेठी, खांड – प्रत्येक 4-4 तोला, पीपल, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात - प्रत्येक 2-2 तोला लेकर कूट, कपड़छन चूर्ण बना, शहद के साथ 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - बृ. नि. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली मुंह में रखकर चूसें। दिन-रात में 7-8 गोली चूसें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पिपासा, पित्तप्रकोप और रक्त पित्त का नाश होता है। यह भी एलादि बटी के समान ही गुणकारी है। विशेषतया रक्त-पित्त में जब कारण रक्त में पित्त प्रकोप के खलबली मचती है और रक्तवाहिनी शिरायें भी जगह-जगह पर फट जाती हैं, जिनसे रक्त निकलना शुरू हो जाता है। यह रक्त कभी-कभी नीचे के भाग (गुदा और जननेन्द्रिय) से भी निकलने लगता है। विशेष प्रकोप होने पर रोम छिद्रों द्वारा भी रक्त बहने लग जाता है। ऐसी दशा में खर्जूरादि बटी देने से पित्त शमन हो, रक्त का बहना बन्द हो जाता है। साथ ही खाँसी होना, मुँह सूखना, प्यास, जलन आदि उपद्रव भी शान्त हो जाते हैं।
राजयक्ष्मा की खाँसी में भी इसका बहुत उपयोग होता है। यह ज्वर की बढ़ी हुई गर्मी को कम कर देती तथा खाँसी को बिल्कुल बन्द कर देती है।
गन्धक बटी (राज बटी )
इन तीनों शुद्ध गन्धक 2 तोला, सोंठ का महीन चूर्ण 4 तोला, सेंधा नमक 2 तोला - का महीन चूर्ण कर नींबू के रस में तीन दिन तक मर्दन कर, चने के बराबर गोलियाँ बना लें। -यो. चि. तथा आरोग्य - प्रकाश
मात्रा और अनुपान
भोजन के बाद 1-1 गोली गर्म जल के साथ सेवन करें।
गुण और उपयोग
यह बटी दीपन- पाचन तथा जायकेदार होने से बहुत प्रसिद्ध है। अजीर्ण रोग को नाश करने के लिए यह बहुत लाभदायक है। भोजन के बाद 2-4 गोली जल के साथ लेने से अन्न अच्छी तरह हजम हो जाता और दस्त भी साफ निकलता है । अरुचि, अजीर्ण, पेट दर्द, पेट में वायु का जमा होना, आँव की शिकायतें, कब्जियत, रक्त विकार और अम्लपित्त आदि रोगों में यह बटी बहुत फायदा करती है। जो लोग भोजन अच्छी तरह पचने के लिए सोडा वाटर का व्यवहार करते हैं, उनके लिए उसकी अपेक्षा यह अमृत के समान गुणकारी है।
इससे भोजन अच्छी तरह पचता और खुल कर भूख लगती है और चित्त हमेशा प्रसन्न रहता है। इसके नियमित सेवन से किसी देश के जल का बुरा प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता। इसमें यह विचित्र और अद्भूत शक्ति है। अमीर-गरीब सभी के योग्य, उत्तम गुणदायक यह दवा है । हैजा में भी इसके उपयोग से अच्छा लाभ होते देखा गया है। इसका नाम राजबटी भी प्रचलित है।
गुडूचीघन बटी ( संशमन बटी )
अंगूठे जितनी मोटी अच्छी ताजी हरी गिलोय लाकर पहले उसको जल से अच्छी तरह धो लें। पीछे उसके 4-4 अंगुल के टुकड़े करके कूट लें। बाद में भीतर से खूब साफ की हुई लोहे की कड़ाही या. पीतल के कलईदार बर्तन में चौगुने पानी में डालकर चतुर्थांश शेष क्वाथ करें। क्वाथ ठंडा होने पर अच्छे स्वच्छ वस्त्र से दो-तीन बार छान, कलईदार बरतन में डाल कर जब तक हलुवा जैसा गाढ़ा न हो, तब तक पकावें, पीछे अग्नि पर से उतार कर गोली बनने योग्य हो, तब तक धूप में सुखा, 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
5 से 10 गोली दिन में 4-5 बार जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
हर प्रकार के ज्वर में इसे निर्भयतापूर्वक दे सकते हैं। जीर्ण ज्वर और राजयक्ष्मा के ज्वर में इसका अच्छा उपयोग होता है। प्रमेह, श्वेतप्रदर, मन्दाग्नि, दौर्बल्य और पाण्डु रोग में भी इससे अच्छा लाभ होता है। यह बलकारक और रसायन गुणयुक्त है। इसी घन में चतुर्थांश अतीस का चूर्ण मिलाकर दो-दो रत्ती की गोल्लियाँ बना लें। इसमें से 5-10 गोली जल के साथ देने से विषम ज्वर में भी बहुत लाभ होता है। पित्तवृद्धि के कारण बढ़ी हुई गर्मी, अन्तर्दाह, प्यास की अधिकता, मन्द मन्द ज्वर-सा मालूम पड़ना, आँखों एवं हाथों-पैरों में जलन, पसीना आना आदि लक्षणों में इसको ठण्डे जल, अर्क खस, गन्ने का रस आदि सौम्य अनुपान के साथ देने से उत्तम लाभ होता है।
गुडूच्यादि मोदक
गुडूची का सत्त्व बना, उसमें खस, अडूसे के फूल या मूल की छाल, तेजपात, कूठ, आँवला, सफेद मूसली, छोटी इलायची, गुलशकरी, केशर, मुनक्का, नागकेशर, कमलकन्द, कपूर, श्वेत चन्दन, मुलेठी, बरियार के मूल या बीज, अनन्तमूल, बंशलोचन, छोटी पीपल, घान का लावा (खील), असगन्ध, शतावर, छोटा गोखरू, कवाँच के बीज, जायफल, कबाब चीनी, रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, बंग भस्म और लौह भस्म - प्रत्येक 1-1 तोला और गुडूची घनसत्त्व - इन सब दवाओं के समान भाग लें। प्रथम पत्थर के खरल में रससिन्दूर को खूब महीन पीस लें पश्चात् उसमें भस्म तथा अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिला एक दिन मर्दन
कर शीशी में भर लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1 से 3 माशा तक चूर्ण मिश्री, गाय का घी और शहद के साथ दें।
गुण और उपयोग
क्षय, रक्तपित्त, हाथ-पैर की जलन, प्रदर, मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह और जीर्ण ज्वर में इसका प्रयोग कर लाभ उठाते हुए अनेक बार देखा है।
चन्दनादि बटी
श्वेत चन्दन का बुरादा, छोटी इलायची के बीज, कबाबचीनी, सफेद राल, गन्ध-बिरोजा का सत्त्व, कत्था और आमला - प्रत्येक 4-4 तोला, गेरू 2 तोला और कपूर 1 तोला ले कपड़छन चूर्ण बना, उसमें 1। तोला उत्तम चन्दन तैल ( इत्र ) तथा 4 तोला रसोत मिला कर 3- 3 रत्ती की गोलियाँ बना लें। - सि. यो. सं. से किंचित् परिवर्तित
नोट - रसोत शुद्ध करके या दारु हल्दी क्वाथ से बनाकर डालें ।
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली दिन में 3-4 बार ठंडे जल से दें अथवा दूध की लस्सी के साथ या शर्बत खश अथवा शर्बत चन्दन से दें।
गुण और उपयोग
यह पेशाब की जलन व पेशाब में मवाद जाने की उत्तम दवा है। सूजाक या मूत्रकृच्छ्र हो जाने पर पेशाब में भयंकर जलन, कड़की एवं वेदना होती है और मूत्र मार्ग से मवाद जाने लगता है। ऐसी अवस्था में इसके प्रयोग से सब उपद्रव दूर हो जाते हैं तथा अन्दर के घाव भी अच्छे हो जाते हैं और गिरता हुआ मवाद रुक जाता है।
सूजाक
इस रोग का जहर शरीर में घुसते ही अथवा दो-तीन दिन बाद ही रोग के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में मूत्र नली का मुँह सुरसुराता और खुजलाता है, पेशाब गर्म और लाल होती है। उसमें कुछ जलन होती है और मवाद भी आने लगता है। इसके बाद सूजाक की असली अवस्था शुरू होती है, जिससे पेशाब करते समय भयानक यन्त्रणा होती है।
हरा, पीला या सफेद मवाद भी आने लगता है, रात को सोते समय जननेन्द्रिय उत्तेजित हो जाती है, जिसके कारण रोगी को अत्यन्त कष्ट होता है। जननेन्द्रिय के अग्र भाग और में सूजन अण्डकोष तथा पेडू में प्रदाह होता है, जिससे मवाद आता रहता है। ऐसी दशा में चन्दनादि बटी के प्रयोग से बहुत शीघ्र लाभ होता है, क्योंकि इसका असर सीधे मूत्र नली पर पड़ता तथा मूत्र विकारनाशक और व्रणरोपक होने की वहज से इस रोग में बहुत शीघ्र फायदा करती है।
मूत्रकृच्छ्र में
इसका प्रयोग पेशाब साफ और खुलकर लाने के लिए किया जाता है— क्योंकि यह शीत- वीर्यप्रधान तथा मूत्र नली की शोधक होने की वहज से इस रोग में भी बहुत लाभ करती है।
चन्द्रकला बटी
छोटी इलायची के बीज, कपूर, शुद्ध सूखा शिलाजीत, आँवला, जायफल, केशर, रससिन्दूर, बंग भस्म और अभ्रक भस्म समान भाग लें। प्रथम रससिन्दूर को खरल में खूब महीन पीसें । उसमें शिलाजीत, भस्में तथा अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिला, हरी गिलोय तथा सेमल मूल के स्वरस में 3-3 दिन मर्दन कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। — सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली शहद में मिलाकर दें और ऊपर से गाय का दूध या प्रमेहनाशक क्वाथ पिलावें ।
गुण और उपयोग
यह बीसों प्रकार के प्रमेह को नष्ट करती है; विशेषतः शुक्रमेह और स्वप्न दोष में इसका प्रयोग करने से अधिक लाभ होता है। यह रसायन पौष्टिक तथा बल-वीर्यवर्द्धक है। इसका प्रभाव वातवाहिनी और शुक्रवाहिनी शिराओं पर ज्यादा होता है। इसकी कमजोरी से ही स्वप्नदोष या पेशाब के साथ शुक्र निकलने लगता है।
मर्ज पुराना होने पर शरीर कमजोर, दुर्बल, कान्तिहीन और आँखें निस्तेज जाती हैं। शरीर में रक्त की कमी की वजह से शरीर पाण्डु वर्ण का हो जाता है, भूख नहीं लगती, मन्दाग्नि और अजीर्ण रहने लगता है।
इस दवा के उपयोग से ये सब विकार दूर हो जाते हैं तथा शरीर भी सबल और सुन्दर बन जाता है।
चन्द्रप्रभा बटी
कपूरकचरी, बच, नागरमोथा, चिरायता, गिलोय, देवदारु, हल्दी, अतीस, दारूहल्दी- पीपलामूल, चित्रकमूल-छाल, धनिया, बड़ी हर्रे, बहेड़ा, आँवला, चव्य, वायविडङ्ग, गज पीपल, छोटी पीपल, सोंठ, काली मिर्च, स्वर्ण माक्षिकभस्म, सज्जीखार, यवक्षार, सेंधानमक, सोंचरनमक, साँभर लवण, छोटी इलायची के बीज, कबाबचीनी, गोखरू और श्वेतचन्दन— प्रत्येक 3-3 माशे, निशोथ, दन्तीमूल, तेजपात, दालचीनी, बड़ी इलायची, बंशलोचन- प्रत्येक 1-1 तोला, लौह भस्म 2 तोला, मिश्री 4 तोला, शुद्ध शिलाजीत और एड गूगल 8-8 तोला लें। प्रथम गूगल को साफ करके लोहे के इमामदस्ते में कूटें, जब कूट जाय, तब उसमें शिलाजीत और भस्में तथा अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण क्रमश दिन गिलोय के स्वरस में मर्दन कर, 3-3 रत्ती की गोलियाँ बनाकर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1-3 गोली सुबह - शाम धारोष्ण दूध, गुडूची क्वाथ, दारुहल्दी का रस, बिल्वपत्र- रस, गोखरू - क्वाथ या केवल मधु से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी मूत्रेन्द्रिय और वीर्य विकारों के लिये सुप्रसिद्ध है। यह बल को बढ़ाती तथा शरीर का पोषण कर शरीर की कान्ति बढ़ाती है। प्रमेह और उनसे पैदा हुए उपद्रवों पर इसका धीरे- धीरे स्थायी प्रभाव होता । सूजाक आतशक आदि के कारण मूत्र और वीर्य में जो विकार पैदा होते हैं, उन्हें यह नष्ट कर देती है।
टट्टी पेशाब के साथ वीर्य का गिरना, बहुमूत्र, श्वेतप्रदर, वीर्य दोष, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अश्मरी, भगन्दर, अण्डवृद्धि, पाण्डु, अर्श, कटिशूल, नेत्ररोग तथा स्त्री-पुरुष के जननेन्द्रिय के विकारों में चन्द्रप्रभा बटी से बहुत लाभ होता है।
पेशाब में जाने वाला एल्ब्युमिन् इससे जल्दी बन्द हो जाता है। पेशाब की जलन, रुक-रुक कर देर में पेशाब होना, पेशाब में चीनी आना (मधुमेह), मूत्राशय की सूजन और लिंगेन्द्रिय की कमजोरी इससे ठीक हो जाती है। यह नवीन शुक्र कीटों को उत्पन्न करती है। और रक्ताणुओं का शोधन तथा निर्माण करती है। थके हुए नौजवानों को इसका सेवन अवश्य करना चाहिए।
मूत्राशय में
किसी प्रकार की विकृति होने से मूत्र दाहयुक्त होना, पेशाब का रंग लाल, पेडू में जलन, पेशाब में दुर्गन्ध अधिक हो, पेशाब में कभी-कभी शर्करा भी आने लगे, ऐसी हालत में चन्द्रप्रभा बटी बहुत उत्तम कार्य करती है, क्योंकि इसका प्रभाव मूत्राशय पर विशेष होने से वहाँ की विकृति दूर होकर पेशाब साफ तथा जलनरहित आने लगता है।
वृक्क (मूत्र-पिण्ड, Kidney)
की विकृति होने पर मूत्र की उत्पत्ति बहुत कम होती है, जिससे मूत्राघात - सम्बन्धी भयंकर रोग वातकुण्डलिका आदि उत्पन्न हो जाते हैं। मूत्र की उत्पत्ति कम होने या पेशाब कम होने पर समस्त शरीर में एक प्रकार का विष फैल कर अनेक तरह के उपद्रव उत्पन्न कर देता है। जब तक यह विष पेशाब के साथ निकलता रहता है, शरीर पर इसका बुरा प्रभाव नहीं होता, किन्तु शरीर में रुक जाने पर अनेक उपद्रव कर देता है । ऐसी दशा में चन्द्रप्रभा से काफी लाभ होता है। साथ में लोध्रासव या पुनर्नवा -सव आदि का भी प्रयोग करते हैं । चन्द्रप्रभा बटी का प्रभाव मूत्रपिण्ड पर होने की वजह से विकृति दूर हो जाती तथ मूत्रल होने के कारण यह पेशाब भी साफ और खुल कर लाती है।
पुराने सूजाक
में भी इसका उपयोग किया जाता है। सूजाक पुराना होने पर जलन आदि तो नहीं होती, किन्तु मवाद थोड़ी मात्रा में आता रहता है। यदि इसका विष रस - रक्तादि धातुओं में प्रविष्ट हो उसके शरीर के ऊपरी भाग में प्रकट हो गया हो, यथा- शरीर में खुजली होना, छोटी-छोटी फुन्सियाँ हो जाना, लिंगेन्द्रिय पर चट्टे पड़ जाना आदि, तो ऐसी दशा में चन्द्रप्रभा बटी - चन्दनासव अथवा सारिवाद्यासव के साथ देने से बहुत अच्छा लाभ करती है। यह रस- रक्तादि-गत विषों को दूर कर धातुओं का शोधन करती तथा रक्त शोधन कर उससे होने वाले उपद्रव को शांत करती है। इसके सेवन से पेशाब शीघ्र खुलकर होने लगता है ।
यह गर्भाशय को भी
शक्ति प्रदान कर उसकी विकृति को दूर करके शरीर निरोग बना देती है। अधिक मैथुन या जल्दी-जल्दी सन्तान होने अथवा सूजाक, उपदंश आदि रोगों से गर्भाशय कमजोर हो जाता है, जिससे स्त्री की कान्ति नष्ट हो जाती, शरीर दुर्बल और रक्तहीन हो जाता, भूख नहीं लगती, मन्दाग्नि एवं वातप्रकोप के कारण समूचे शरीर में दर्द होना, कष्ट के साथ मासिक धर्म होना, रजःस्राव कभी-कभी 10-12 रोज तक बराबर होते रहना आदि उपद्रव होने पर चन्द्रप्रभा अशोक घृत के साथ दें। फलघृत के साथ देने से भी लाभ होता है।
अधिक शुक्र क्षरण या रजः स्त्राव हो जाने से ( स्त्री-पुरुष) दोनों की शारीरिक क्रान्ति नष्ट हो जाती है। शरीर कमजोर हो जाना, शरीर का रंग पीला पड़ जाना, मन्दाग्नि, थोड़े परिश्रम से हाँफना, आँखें नीचे धँस जाना, बद्धकोष्ठता, भूख खुलकर नहीं लगना आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे समय में चन्द्रप्रभा का उपयोग करने से रक्तादि धातुओं की पुष्टि होती है तथा वायु का भी शमन होता है।
स्वप्नदोष या अप्राकृतिक ढंग से छोटी आयु में वीर्य का दुरुपयोग करने वातवाहिनी तथा शुक्रवाहिनी नाड़ियाँ कमजोर हो शुक्र धारण करने में असमर्थ हो जाती हैं। परिणाम यह होता है कि स्त्री-प्रसंग के प्रारम्भकाल में ही पुरुष का शुक्र निकल जाता है । अथवा स्वप्नदोष हो जाता है या किसी नवयुवती को देखने या उससे वार्तालाप करने मात्र से ही वीर्य निकल जाता है। ऐसी दशा में चन्द्रप्रभा बटी गुर्च के क्वाथ के साथ खाने से बहुत लाभ करती है।
वात- पैत्तिक प्रमेह में
इसका अच्छा असर पड़ता है। वातप्रकोप के कारण बद्धकोष्ठ हो जाने पर मन्दाग्नि हो जाती है, फिर जीर्ण, अपच, भूख नहीं लगना, अन्न के प्रति अरुचि, कभी-कभी प्यास ज्यादे लगना, शरीर शक्तिहीन मालूम पड़ना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। इस अवस्था में चन्द्रप्रभा बटी के प्रयोग से प्रकुपित वायु शान्त होकर इससे हाने वाले उपद्रव भी शान्त हो जाते हैं तथा प्रमेह - विकार भी दूर हो जाते हैं ।
चित्रकादि वटी
चित्रकमूल की छाल, पीपलामूल, सज्जीखार, यवक्षार, सेंधानमक, सोंचर नमक, काला नमक, समुद्र नमक, सांभर नमक, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, घी में सेंकी हुई हींग, अजमोद, चव्य - प्रत्येक समान भाग लेकर कूट- कपड़छन चूर्ण बना बिजोरा या दाड़िम के रस में 1 दिन मर्दन कर, चने के बराबर गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। -च. स.
वक्तव्य
अन्तः सम्मार्जने प्रायोऽजमोदा तु यवानिका' इस उक्ति के अनुसार अजमोदा के स्थान पर अजवायन डालकर बनाना उत्तम है।
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली जल के साथ भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
आमाशय के बिगड़ जाने पर अन्न ठीक से हजम नहीं होता हो, अर्थात् खाये हुए पदार्थों का अच्छी तरह से परिपाक न होने पर आंवयुक्त कच्चा मल दस्त के साथ निकलता हो (इसकी चिकित्सा जल्दी नहीं करने से संग्रहणी हो जाती है) तो जल के साथ सुबह-शाम इसका सेवन करने से अग्नि प्रदीप्त हो जाती और भूख खुलकर लगने लगती है।
अन्न का अच्छी तरह से परिपाक होने पर आँव का बनना बिल्कुल बन्द हो जाता है और पाचनशक्ति ठीक हो जाती है। आँवपाचन के लिये यह बटी सर्वोत्तम लाभदायक है। पेट में वायु का या कफ का प्रकोप होने पर उदरशूल, विबन्ध, पेशाब कम होना आदि त्रासदायक कष्ट हो जाते हैं, उनमें इस बटी के सेवन से शीघ्र लाभ होता है।
छर्दिरुपि वटी
कपूरकचरी के सूक्ष्म कपड़छन किये हुए चूर्ण को 3 घंटे तक चन्दनादि अर्क या गुलाब जल में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1- 2 गोली केवल या उसके साथ मयूर पिच्छ भस्म 2 रत्ती, जहरमोहरा पिष्टी 2 रत्ती मिलाकर लाजमण्ड या चन्दनादि अर्क के साथ या पोदीना अर्क के साथ दें।
गुण और उपयोग
सब प्रकार के छर्दि (वमन) में यह बटी उपयोगी है। विशेष कर पित्त प्रकोपजन्य छर्दि में इसका असर बहुत शीघ्र होता है । हैजे की छर्दि में भी इसका उपयोग किया जाता है।
जम्बीर - लवण बटी
जम्बीरी या कागजी नींबू का रस 120 तोला, सेंधा नमक 12 तोला, सोंठ 211 तोला, अजवायन 2।। तोला, सज्जीखार 21 तोला, छोटी पीपल 211 तोला, घी में सेंकी हुई हींग 2 तोला, करंज के फल को थोड़ा सेंककर निकाला हुआ मगज 2 ।। तोला, काली मिर्च 2 तोला, छिला हुआ लहसुन 211 तोला, सफेद पुनर्नवा के मूल 2 तोला, पीली सरसों 1 तोला, सफेद जीरा भुना हुआ 2 तोला, अतीस 2 तोला, और समुद्र लवण 2 तोला लें। स्वच्छ-सफेद कपड़े से छाने हुए जम्बीरी या कागजी नींबू के रस को काँच के बर्तन में डाल, उसमें सेंधानमक का चूर्ण मिला, बर्तन के मुँह पर सफेद कपड़ा बाँध कर उसको 4 दिन तक दिन में कड़ी धूप में रखें और रात को घर में रख दें, पाँचवें दिन उस रस को मजबूत मिट्टी के बर्तन में डालकर मन्द आँच पर पकावें और लकड़ी से चलाते रहें, जब गाढ़ा हो जाय तब उसमें अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिला, नीचें उतार कर ठंडा होने पर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना लें।
— सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली ठंडे पानी के साथ भोजन के बाद या आवश्यकतानुसार दिन में 3-4 बार दें।
गुण और उपयोग
यह गोली उत्तम दीपन- पाचन है। मन्दाग्नि, अरुचि, पेट का दर्द, अजीर्ण और आफरे में इससे अच्छा लाभ होता है। यह स्वादिष्ट, पाचक तथा रुचि को बढ़ाने में अपूर्व काम करती है।
जयन्ती बटी
शुद्ध बच्छनाग, पाठा, असगन्ध, बच, तालीसपत्र, काली मिर्च, पीपल और नीम की छाल का समान भाग चूर्ण लेकर सबको बकरी के मूत्र में घोंट कर चने के बराबर (2-2 रत्ती की गोलियाँ) बना छाया में सुखाकर रख लें। - र. सा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम । पित्त ज्वर में गो दुग्ध के साथ दें। सन्निपात ज्वर में इस बटी को काली मिर्च के चूर्ण और शहद के साथ दें। विषमज्वर में घृत के साथ और सब प्रकार के ज्वरों में त्रिकटु (सोंठ, पीपल, मिर्च) चूर्ण साथ दें।
ज्वरयुक्त रक्त-पित्त में
चन्दन के काढ़े के साथ दें। खाँसी में - शहद के साथ, पाण्डु और शोथ में दूध के साथ तथा पथरी और भयंकर मूत्रकृच्छ्र में चावलों के पानी के साथ दें। कुष्ठ में - गो-मूत्र के साथ देना चाहिए।
प्रमेह में
केतकी की जड़ के साथ दें। अथवा लोध, मोथा, हर्रे और जायफल के क्वाथ में शहद डाल कर पिलाने से भी प्रमेह रोग नष्ट होता है। त्रिदोषजगुल्म में आनन्दभैरव रस या जयन्ती बटी को गुड़ में मिला कर गर्म जल के साथ देने से त्रिदोषजगुल्म नष्ट होता है । भगन्दर रोग में सोंठ के साथ, ग्रहणी में छाछ के साथ और त्रिदोषज रक्त-पित्त में शीतल जल के साथ प्रयोग करना चाहिए।
जया बटी
शुद्ध बच्छनाग, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, पीपल), नागरमोथा, हल्दी, नीम के पत्ते और बकरे के मूत्र में 12 घण्टे तक घोंट कर चने के बराबर वायविडंग का चूर्ण समान भाग लेकर गोलियाँ बनावें। -र. सा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम रोगानुसार अनुपान के साथ दें।
गुण और उपयोग
रसेन्द्रसार संग्रहकार ने इन दोनों (जया और जयन्ती बटी) का अनुपान तथा गुण एक-सा ही लिखा है और वैद्य लोग इसी अनुपान के अनुसार प्रयोग करके लाभ भी उठा रहे हैं। इन दोनों प्रयोगों में बच्छनाग आया है, जो एक खास और विलक्षण गुण रखता है। बच्छनाग विष का प्रभाव प्रकुपित वात तथा ज्वर पर बहुत होता है।
यह बटी वात और पित्त को शमन करने वाली है, अतएव शरीर में किसी प्रकार का दर्द होने पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। यह विषमज्वर को भी नष्ट करती है। यदि दस्त में कब्जियत हो, तो जयन्ती बटी का ही प्रयोग करना चाहिए। इससे बद्धकोष्ठता दूर हो कर दस्त साफ आने लगता है और बुखार भी उतर जाता है।
जातिफलादि बटी ( संग्रहणी )
जायफल, शुद्ध टंकण, अभ्रक भस्म, शुद्ध धतूर - बीज - प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग, शुद्ध अफीम 2 भाग लेकर प्रथम काष्ठौषधियों का कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् अन्य द्रव्य मिला, गन्धप्रसारणी पत्र-स्वरस या क्वाथ मर्दन कर, 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -भै. र.
दूसरा
जायफल, खजूर (छुहारा ) और अफीम समान भाग लेकर पान के रस में घोंटकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। — बृ. नि. र
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम मट्ठा (छाछ) के साथ दें।
गुण और उपयोग
कफ-वात प्रधान संग्रहणी, अतिसार आदि में इसका उपयोग किया जाता है। दस्तों के साथ आँव आता हो, अथवा दस्त आने के समय पेट में दर्द होता हो, पेट में मरोड़ उठती हो, दस्त पतला और ज्यादा परिमाण में होता हो तथा कभी-कभी रक्त भी आने लगता हो, साथ ही पेट में भारीपन तथा अपचन आदि हो तो ऐसी दशा में इस रसायन का सेवन करना बहुत लाभदायक है।
जातिफलादि बटी ( स्तम्भक )
अकरकरा 1 तोला, सोंठ 1 तोला, शीतल चीनी 1 तोला, केशर 1 तोला, पीपल 1 तोला, जायफल 1 तोला, लौंग 1 तोला, सफेद चन्दन 1 तोला, शुद्ध अफीम 4 तोला लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें, पश्चात् अफीम और केशर मिला, जल के साथ दृढ़ मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। - शा. सं.
वक्तव्य
शार्ङ्गधर संहिता - मध्यम खण्ड अध्याय 6 में 'आकारकरभादि चूर्ण' नाम से उपरोक्त योग है। इसी योग को हमने बटी रूप में बनाकर अनुभव किया है, बहुत उत्तम गुणकारी सिद्ध हुआ है।
मात्रा और अनुपान
रात को सोने से पूर्व 1 गोली खाकर गो- दुग्ध पीना चाहिए या मधु अथवा घृत सेवन करें।
गुण और उपयोग
वीर्यस्तम्भन करने वाली जितनी दवाइयाँ होती हैं, वे प्रायः स्नायु- संकोचक हुआ करती हैं। इसका प्रभाव वातवाहिनी और शुक्रवाहिनी नाड़ियों पर विशेष होता है। इसी कारण यह वीर्य को जल्दी क्षरण नहीं होने देती है । वीर्य स्खलन उसी हालत में होता है, जब स्नायु ढीली पड़ जाती है। इस दवा के प्रभाव से जब तक स्नायु कड़ी रहती है, तब तक वीर्य रुका रहता है और इसका प्रभाव दूर हो जाने पर शुक्र निकल जाता है।
नोट- इस दवा का प्रयोग बहुत होशियारी के साथ करना चाहिए, क्योंकि इसमें अफीम की मात्रा अधिक है। दूसरी बात - इस दवा के सेवन करने के बाद तीन रोज तक दूध, मलाई, रबड़ी आदि स्निग्ध पदार्थों का खूब सेवन करना चाहिए।
अन्यथा क्षणिक आनन्द के लोभ में पड़कर बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है। खुश्की बढ़ जाती है, कमजोरी तथा शक्ति की कमी, किसी कार्य में मन नहीं लगना, शरीर की कांति नष्ट हो जाना, किसी की बात अच्छा न लगना आदि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं। कारण यह होता है, कि जितनी देर से वीर्य निकलता है उतना ही ज्यादे परिमाण में वीर्य गिरता है, जिसकी पूर्ति तुरन्त होना कठिन हो जाता है। यह पूर्ति दूध, मलाई आदि स्निग्ध तथा पौष्टिक पदार्थों से शीघ्र हो जाती है।
तक्र वटी
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक 1-1 तोला, शुद्ध बच्छनाग 2 माशा, ताम्र भस्म 4 माशा, पीपल और मण्डूर भस्म 1-1 तोला लेकर प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बना लें, फिर अन्य औषधियों का चूर्ण मिला कर सबको 7 दिन तक काले जीरे के रस में घोंट कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम तक्र (छाछ) के साथ सेवन करें।
गुण और उपयोग
पुरानी से पुरानी ग्रहणी
जब किसी भी दवा से अच्छी न हो रही हो, रोगी दिन-प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा हो, दस्त की मात्रा तथा तादाद बढ़ती ही जाती हो, पेट की गड़बड़ी तथा आँतों की कमजोरी के कारण पाचन-क्रिया बिलकुल मन्द पड़ गयी हो, तब इस बटी का उपयोग किया जाता है।
यदि कल्प- रूप से इस दवा का उपयोग किया जाय, बहुत शीघ्र लाभ होता है। शोथ एवं ग्रहणी रोग में इस दवा का कल्प प्रारम्भ करते हुए इसके सेवन - काल में लवण और पानी एकदम बन्द कर दें। पानी की जगह केवल छाछ (मट्ठा) पीने को दें।
आहार में लघुपाकी तथा हल्का अन दें। इस क्रम से दवा सेवन कराने से दुःसाध्य शोथ एवं संग्रहणी रोग अच्छा हो जाता है । पाण्डु, मन्दाग्नि रोग, यकृत् रोग, इनमें भी इसके सेवन से उत्तम लाभ होता है।
त्रैलोक्य विजया वटी
भाँग का घन सत्त्व 3 तोला और बंशलोचन चूर्ण 3 तोला, दोनों एक खरल में जल के साथ मर्दन कर अच्छी तरह सावधानी से 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें। - र. वि.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम मधु से देना चाहिए।
गुण और उपयोग
इस बटी के सेवन से प्रलाप, उन्माद और वृक्कशूल नष्ट होता है। माहवारी के समय होने वाले रजः कष्टजन्य शूल को यह दूर करती तथा राजयक्ष्मा की खाँसी को मिटाती है। इसके सेवन से पुरातन अतिसार नष्ट हो जाता और स्वप्नदोष बन्द हो जाता है।
इस बटी का प्रभाव वातवाहिनी नाड़ियों पर विशेष होता है। दूध या मलाई के साथ सेवन करने से यह बाजीकर भी है, क्योंकि इसका प्रभाव जननेन्द्रिय एवं शुक्रवाहिनी शिराओं पर भी होता है। शरीर में कहीं भी किसी तरह की पीड़ा हो इस बटी के सेवन से तुरन्त लाभ होता है ।
रजः कृच्छ्रता अर्थात् कष्ट से माहवारी होने पर इसका कार्य बहुत अच्छा होता है। यह दस्त को भी रोकती है, परन्तु यह अफीम की तरह मल बन्धक नहीं है। इसको थोड़ी मात्रा में सेवन करने से कुछ नशा आ जाने के कारण यह थकावट को भी दूर करती है।
दाड़िमादि वटी
अनारदाने का चूर्ण 8 तोला, गुड़ 32 तोला, सोंठ, पीपल, मिर्च- प्रत्येक 5-5 तोला लेकर सब का चूर्ण बना, कपड़छन करके एकत्र घोंट कर चने के प्रमाण की गोलियाँ बना लें। - वाग्भट
मात्रा और अनुपान
1-4 गोली जल से या वैसे ही दिन भर मुख में रख कर चूसते रहें ।
गुण और उपयोग
ये गोलियाँ रोचक, दीपक, स्वर को सुधारने वाली और पीनस, खाँसी तथा श्वासनाशक है। कभी-कभी कफ की वृद्धि या मल संचय के कारण मुँह का स्वाद फीका हो जाता है, तथा कफ की वृद्धि से मुँह में कफ लिपटा हुआ मालूम पड़ता है।
अन्न में अरुचि, भूख न लगना, मन्दाग्नि, जी मिचलाना, देह में आलस्य बना रहना, निरुत्साह आदि लक्षण हो जाते हैं। ऐसी हालत में इस बटी से बहुत शीघ्र लाभ होता है, क्योंकि इसमें अनारदाना की मात्रा विशेष होने की वहज से यह पाचक, अग्निदीपक तथा अरुचिनाशक है। कितने ही आदमी इस गोली को शौक से भी लेते हैं। क्योंकि इसका जायका अच्छा होता है। अजीर्ण, पेट दर्द, भूख नहीं लगना आदि विकारों में भी इसका सेवन किया जाता है।
दाड़िमपाक वटी
सोंठ, जायफल, शुद्ध अफीम, कच्चे अनार के बीज - ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर इनको कूट करके चूर्ण बनावें । पश्चात् इस चूर्ण को (बीज निकाले हुए) अनार में भर कर उसके ऊपर मिट्टी का लेप चढ़ा कर सुखा लें । पश्चात् पुटपाकविधि से पाक करें। बाद में स्वांग - शीतल होने पर पुटपाक से औषधि को निकाल कर अच्छी तरह मर्दन कर 1-1 रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनावें और सुखाकर सुरक्षित रखें। - अमृतसागर
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम गौ के मट्ठा (छाछ) के साथ या जल के साथ अथवा रोगानुसार अनुपान के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी का सेवन करने से समस्त प्रकार के कठिन संग्रहणी और अतिसार रोग नष्ट होते हैं, किन्तु पक्वातिसार में इस बटी के सेवन से विशेष उत्कृष्ट लाभ होता है। यह औषधि उत्तम आमपाचक और स्तम्भक है। अतः इसके सेवन से आमदोष का पाचन एवं स्तम्भन ये दोनों कार्य उत्तम प्रकार से हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त रक्तातिसार और वमन को भी शीघ्र नष्ट करती है। विसूचिका (हैजा ) की वमन और दस्तों में भी इसके प्रयोग से अपूर्व लाभ होता है ।
हैजा में
वमन और अतिसार द्वारा शरीर का जलीयांश बाहर निकल जाने से प्यास की अधिकता होती है, जिससे गला सूखने लगता है और रोगी को बड़ा कष्ट अनुभव होता है।
ऐसी दशा में मिश्री की डली के साथ इस बटी को मुँह में रख कर चूसने से बड़ा अच्छा लाभ होता है। पानी में पीपल (अस्वत्थ) वृक्ष की छाल के अंगारों को बुझाकर उस पानी को छान कर रख लें। उसके साथ इस बटी को देने से वमन, अतिसार, दाद तथा प्यास का शमन उत्तम प्रकार से हो जाता है।
द्राक्षादि गुटिका
धोकर, बीज निकाला हुआ मुनक्का और हर्रे के छिलके का चूर्ण दोनों समभाग लेकर इससे दूनी शक्कर मिला, सबको एकत्र कर 1-1 माशा की गोलियाँ बना लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1- 4 गोली सुबह - शाम शीतल जल के साथ।
गुण और उपयोग
यह बटी पित्त और वात- शामक है। प्रकुपित पित्त के कारण उत्पन्न हुए रोगों में इसका उपयोग किया जाता है। यह अम्लपित्त, कण्ठ और हृदय का दाह, तृष्णा, मूर्च्छा, भ्रम, मन्दाग्नि और आमवातनाशक है। रात को सोते समय गरम दूध के साथ 4 गोली सेवन करने से प्रातः दस्त हो कर तबियत हल्की हो जाती है। प्राकृतिक कब्ज के रोगियों के लिये नित्य सेवन करने योग्य उत्तम निर्दोष औषधि है ।
दुग्ध वटी (शोथ)
शुद्ध विष 12 भाग, शुद्ध अफीम 12 भाग, लौह भस्म 5 भाग, अभ्रक भस्म 60 भाग लेकर सब को एकत्र मिला गो दुग्ध के साथ अच्छी तरह मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। — भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम दूध के साथ दें।
गुण और उपयोग
सूजन (शोथ ) की बीमारी में जब किसी दवा से आराम न होता हो, तब दुग्ध बटी का सेवन करना चाहिए।
संग्रहणी, मन्दाग्नि, पाण्डु रोग और विषम ज्वर में भी इस दवा से अच्छा लाभ होता है।
दुग्ध वटी (संग्रहणी)
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध विष, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, लौह भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध हिंगुल, मोचरस और अफीम - प्रत्येक समान भाग लेकर दूध में घोंटकर 1-1 रत्ती बराबर गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें।- भै.र.आरोग्य - प्रकाश
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम दूध के साथ अथवा संग्रहणी में भाँग के क्वाथ के साथ दें।
गुण और उपयोग
आँव सम्बन्धी विकार, अतिसार, संग्रहणी, प्रवाहिका और आमातिसार में इससे बहुत लाभ होता है। आँतों की सूजन को दूर करके उनमें ग्राहीशक्ति उत्पन्न करती है। संग्रहणी के साथ शोथ वाले रोगी पर इसका प्रभाव बहुत अच्छा होता है।
संग्रहणी
के रोग में कभी-कभी हाथ-पाँव और मुख भी सूज जाते हैं। यह सूजन वात- कफात्मक होती है। पेट में आँव का संचय होने से भी सूजन हो जाती है। आँव का संचय भी उपरोक्त कारणों से होता है। यह बटी वात-कफनाशक एवं पाचक तथा स्तम्भक है। अतएव, संग्रहणी को दूर करते 'हुए सूजन को भी यह नष्ट करती है।
पथ्य
केवल दूध-भात देना चाहिए। नमक एकदम बन्द कर दें। प्यास लगने पर भी दूध ही देना चाहिए। यदि दूध देने पर भी प्यास न बुझे तो नारियल का पानी या अनार बेदाना का रस या मौसम्बी का रस दे सकते हैं।
धनंजय वटी
सफेद जीरा, चित्रक, चव्य, काला जीरा, बच, दालचीनी, इलायची, कचूर, हाऊबेर, तेजपात, नागकेशर — प्रत्येक 1-1 तोला, सौंफ 6 माशा, अजवायन, पीपलामूल, सज्जीखार, हरें, जायफल, लौंग — प्रत्येक 2-2 तोला, धनियाँ और तेजपात 3-3 तोला, पीपल और सांभर नमक 4-4 तोला, काली मिर्च 7 तोला, निशोथ 8 तोला, समुद्र लवण, सेंधानमक और सोंठ 10-10 तोले, चूक या अम्लवेत 32 तोले, पकी इमली 16 तोले - सब को कूट- कपड़छन चूर्ण कर नींबू के रस में 3 दिन घोंट कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - बृ. नि. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 8 गोली दिन में गर्म जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बटी दीपन - पाचन - अग्निवर्धक है तथा अजीर्ण, शूल, मन्दाग्नि, बद्धकोष्ठ, पेट फूलना, अपचन, पेट का दर्द, आमाजीर्ण तथा विष्टब्धाजीर्ण दूर करती है।
अजीर्ण रोग 3 प्रकार के होते हैं। यथा— कफ दोष से आमाजीर्ण, पित्त दोष से विदग्धाजीर्ण और वात दोष से विष्टब्धाजीर्ण ऐसे तीन भेद हैं। इनके अतिरिक्त रसशेषाजीर्ण भी होता है। इनमें दोषानुरूप चिकित्सा होने से जल्दी लाभ होता है। यथा -कफ से उत्पन्न आमाजीर्ण में कफ दोषनाशक, पित्त दोष से उत्पन्न विदग्धाजीर्ण में पित्त दोषनाशक और वायु से उत्पन्न विष्टब्धाजीर्ण में वात दोषनाशक दवा का उपयोग करने से लाभ होता है।
यह बटी वात और कफ दोषनाशक है। अतएव, विष्टब्धाजीर्ण और आमाजीर्ण में इसका विशेष उपयोग किया जाता है। सामान्यतया जिस अजीर्ण रोग में पेट में वायु भरा रहना, दर्द होना, विबंध, पेट में भारीपन और दर्द विशेष हो ऐसी दशा में धनंजय बटी देने से बहुत लाभ होता है। यह प्रकुपित वात और कफ दोष को शान्त कर पक्वाशय में पाचक रस की उत्पत्ति कर अजीर्ण दोष को मिटा देती है, जिससे वायु का संचार हो कर दस्त साफ होने लगता तथा भूख भी खुल कर लगती है।
नवज्वरहर वटी
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बच्छनाग, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, आँवला, हरें, बहेड़ा, जमालगोटा - प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, फिर अन्य दवाओं का कपड़छन चूर्ण मिला सबको एक दिन गूमा के रस में घोंट कर उड़द बराबर ( 1-1 रत्ती की ) गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। - भा. प्र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम मधु के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बटी दीपन - पाचन है। ज्वर की प्रारम्भिक अवस्था में उपवास करने के बाद दोष- पाचन के लिए क्वाथ आदि देने की आवश्यकता होती है। इसमें दोष - पाचन के लिए इस बटी का प्रयोग करने से दोष- पाचन भी हो जाता तथा ज्वर भी धीरे-धीरे कम होने लगता है। यह साधारण रेचक भी है, क्योंकि इसमें जमालगोटा पड़ा हुआ है। अतः बद्धकोष्ठता को भी दूर करने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए। अन्य विरेचन योगों की अपेक्षा यह सौम्य है।
नाग गुटिका
शुद्ध बच्छनाग, पीपल, लौंग, पीपलामूल, जायफल, दालचीनी, जावित्री, सोंठ, अकरकरा, काली मिर्च, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध टंकण - यें प्रत्येक द्रव्य 1-1 तोला, केशर, माशा, कस्तूरी 1 रत्ती लेकर काष्ठौषधियों को कूट कर सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चा त्अन्य द्रव्य मिला, अदरक और पान के रस में क्रम से 12-12 घण्टे मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर आधी-आधी रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा लें। - औ. गु. ध. शा.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली दिन में दो बार सुबह-शाम पान के साथ या जड़ के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह जुकाम, ज्वर, गला और छाती का दर्द, अरुचि, जुकाम से होने वाला अतिसार, उबाक, सिर दर्द, अपचन के कारण उदर में भारीपन रहना आदि विकारों को नष्ट करती है । इस गुटिका में प्रधान औषधि बच्छनाग होने से इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
बच्छनाग शोथहर, ज्वरनाशक, अवसादक और पीड़ाहर है। इसके प्रयोग से नासिका और कण्ठ को श्लैष्मिक कला में से होने वाला स्राव शोषण होकर कम हो जाता है। यह स्राव शरीर के किसी भी भाग से बाहर अवश्य निकलना चाहिए। इस बटी के प्रभ् व से स्वेद अधिक होता है एवं मूत्रोत्पत्ति भी अधिक होती है। अतः प्रतिश्याय जन्य श्लेष्मस्राव शीघ्र कम हो जाता है और विकार कम हो जाने पर मूत्र की मात्रा भी कम हो जाती है ।
मुँह में पानी भर जाना, उबाक, अरुचि आदि अपचनजनित विकार होने पर फेनयुक्त कफ गिरने की दशा में अग्निकुमार रस का सेवन किया जाता है । परन्तु शीतल स्थान में शयन करने पर, वर्षा के जल से भींगने पर शीत लग जाने से क्षुधा नाश होना, उदर में भारीपन, कब्ज, मस्तिष्क की जड़ता, अंग जकड़ना आदि लक्षणों के साथ ज्वर होने पर नाग गुटिका का प्रयोग करने से शीघ्र उत्कृष्ट लाभ होता है। किन्तु मूत्र का रंग पीला हो या मूत्र स्राव कम हो जाय, तो ऐसी दशा में इस बटी का सेवन बन्द कर देना चाहिए। यदि यह गुटिका बन्द न की गई तो लाभ की अपेक्षा हानि होने की अधिक सम्भावना रहती है।
शीत लग कर जुकाम और ज्वर हो जाने पर त्वचा में चिपचिपापन, सर्वांग में जड़ता, आलस्य, जंभाई आना, मुँह में मधुरता या चिपचिपापन रहना, खाँसी आने पर छाती और कण्ठ में दर्द होना आदि लक्षणों युक्त दशा में इस बटी के प्रयोग से अत्यन्त लाभ होता है ।
इस गुटिका के योग में श्वेत बच्छनाग का मिश्रण करने पर यह योग मधुमेह, इक्षुमेह, हस्तिमेह नामक प्रमेह रोगों में अच्छा लाभ करती है। इस योग के सेवन में मधु की उत्पत्ति कम न होकर केवल बार-बार होनेवाली मूत्र की शंका नष्ट होती है। मधु (शर्करा Sugar) की उत्पत्ति कम करने के लिए नाग भस्म, बसन्तकुसुमाकर, जातिफलादि बटी, प्रमेह गजकेशरी का प्रयोग करना उत्कृष्ट लाभकारी है।
नाग गुटिका के प्रयोग से रस का संशोधन होने पर शरीर में शीतलता आदि गुण कम हो जाते हैं और बच्छनाग के संयोग से त्वचा में स्थित केशिकाओं के रक्त का दबाव बढ़ जाता है, जिससे प्रस्वेद - वृद्धि होकर सेन्द्रिय विष त्वचा से बाहर निकल जाते इसी कारण से बच्छनाग-प्रधान औषधियाँ क्षोभजन्य ज्वर और क्षोभयुक्त अन्यान्य रोगों में अत्यन्त लाभकारी हैं।
पञ्चतिक्तघन वटी
सप्तपर्ण (छतिबन) के वृक्ष की हरी-ताजी छाल, करंज की हरी पत्ती, गुर्च (हरी), कालमेघ और कुटकी सब समभाग लें। इन सब को तथा कुटकी को भी अलग-अलग धो कर काढ़ा बनाने योग्य जौकट करें। पीछे सब को अच्छे कलईदार बर्तन में अठगुने जल में पकावें । जब अष्टमांश जल बाकी रहे, तब नीचे उतार कर ठण्डा होने दें। ठण्डा होने पर अच्छे कपड़े से उसको दो बार छान कर कलईदार बर्तन में पुनः पकावें । पकाते-पकाते क्वाथ जब कलछी में लगने लगे अर्थात् गाढ़ा हो जाय, तब बर्तन को नीचे उतार कर धूप में रख कर सुखावें । पीछे उसमें थोड़ा (चतुर्थांश) अतीस का चूर्ण मिला 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुरक्षित रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
2 से 3 गोली, दिन भर में 4 बार गर्म जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
विषम ज्वर (मलेरिया) के लिये अच्छी दवा है। पारी का बुखार जब किसी दवा से नहीं रुकता हो, तब इसका उपयोग करना चाहिए। इसमें एक विशेषता यह है कि कुनैन की तरह सेवन करने पर भी नुकसानदायक नहीं है, बल्कि जिन लोगों को कुनैन के सेवन से शरीर में गर्मी, पसीना आना, हाथ-पैरों में दर्द, कानों में सनसनाहट, सिर में दर्द, मस्तिष्क में खुश्की आदि लक्षण हों, उनको भी दूध या ठण्डे पानी के साथ इस बटी के सेवन से अच्छा लाभ होता है।
प्राणदा गुटिका
सोंठ 12 तोला, काली मिर्च 16 तोला, पीपल 8 तोला, चव्य 4 तोला, तालीसपत्र 4 तोला, नागकेशर 2 तोला, पीपलामूल 8 तोला, तेजपात 1/2 तोला, छोटी इलायची 1 तोला, दालचीनी 1 तोला और खस 1 तोला, गुड़ 120 तोला लेकर गुड़ की चाशनी में अन्य समस्त औषधियों का कूट- कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिला, 4-4 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली, दिन में दो बार जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह खूनी, बादी और प्राकृतिक दोष से उत्पन्न बवासीर के लिए सर्वोत्तम दवा है। इसके नियमित सेवन से बवासीर में खून गिरना बन्द हो जाता है और बवासीर के मस्से सूखने लगते हैं। पाण्डु, कृमि, पेट-दर्द, गुल्म, श्वास, खाँसी आदि रोगों में इस औषध से अच्छा लाभ होता है।
यह बटी मूत्रकृच्छ्र, श्वासरोग, गलग्रह, विषमज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डु, कृमि, हृद्रोग, गुल्म, श्वास और खाँसी से पीड़ित रोगियों के लिए भी समान गुणकारी है।
नोट- यदि अर्श के साथ मलावरोध भी हो तो इस योग में सोंठ के स्थान पर हर्रे डालनी चाहिए और यदि पित्तार्श में सेवन कराना हो, तो गुड़ के स्थान में समस्त चूर्ण से चौगुनी शक्कर डालनी चाहिए। गोलियाँ गुड़ य शक्कर की चाशनी बना, उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिला कर बनानी चाहिए। मूल ग्रन्थ में आधा-आधा तोला की गोलियाँ बनाने को लिखा है, किन्तु इतनी बड़ी गोली खाने में बड़ी दिक्कत होती है और आजकल के रोगों के लिए यह मात्रा भी अधिक है, अतः 4 4 रत्ती की गोलियाँ बना, 2 से 6 गोली तक सेवन करना अच्छा है।
प्लीहारि वटी
एलुवा, अभ्रक भस्म, कसीस और शुद्ध लहसुन — प्रत्येक समान भाग लेकर सबको तीन के रस में घोंट कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना कर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 4 गोली दिन में दो बार गरम जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
प्लीहा ( तिल्ली ) के लिए यह अच्छी दवा है। इसके सेवन से पेट की बढ़ी हुई तिल्ली कट जाती है और तिल्ली के बढ़ जाने से होने वाले ज्वर, खाँसी, सूजन तथा मन्दाग्नि आदि रोग भी अच्छे हो जाते हैं। यकृत् विकार (लीवर का बढ़ कर अपने कार्य में असमर्थ हो जाना), गुल्म, मन्दाग्नि, सूजन आदि में भी यह औषध फायदेमन्द है ।
प्रभाकर वटी
स्वर्णमाक्षिक भस्म, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, वंशलोचन का चूर्ण, शुद्ध शिलाजीत — प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर एकत्र मिला, अर्जुन छाल के क्वाथ की 1 भावना देकर अच्छी तरह मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर सुरक्षित रख लें। — भै. र.
मात्रा और अनुपान | प्रभाकर वटी सेवन विधि
1-1 गोली सुबह-शाम शहद के साथ दें। ऊपर से गौ-दुग्ध पिलावें या अर्जुन छाल के क्वाथ के साथ दें। आँवला चूर्ण 1 माशा और मिश्री चूर्ण 1 माशा के साथ मिला कर देने से भी यह उत्तम कार्य करती है।
गुण और उपयोग
इस बटी का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के हृदय रोगों का नाश होता है और समस्त प्रकार के फुफ्फुसजन्य रोगों में भी इसके सेवन से उत्कृष्ट लाभ होता है तथा हृदय और फुफ्फुसों को अपूर्व बल मिलता है।
इसके अतिरिक्त हृदय की अनियमित गति, धड़कन, थोड़े ही परिश्रम से श्वास फूलना, रक्ताल्पता, पाण्डु, कामला हलीमक, शोथजन्य एवं यकृत् - वृद्धिजन्य हृदय रोग, पार्श्वशूल, हृदयशूल, प्रमेह, इनको शीघ्र नष्ट करती है।
श्वास और कास नष्ट होकर शरीर में बल-वीर्य की वृद्धि होती है। यह उत्तम पुष्टिकारक तथा श्रेष्ठ रसायन है। इस बटी का प्रधान कार्य हृदय को बल पहुँचाना है। इस बटी के प्रयोग से हृदय एवं फुफ्फुस की मांसपेशियों तथा वात नाड़ियों को अपूर्व बल मिलता है।
कई रोगियों को हृदय की दुर्बलता के कारण दाहिनी नाड़ियों में क्षोभ उत्पन्न होकर रक्तचाप की वृद्धि हो जाती है, रोगी के मुखमण्डल का कपोल भाग उभरा हुआ-सा आँखें लाल रहना, मस्तिष्क में भ्रम, चक्कर आना, सारी चीजें घूमती हुई-सी नजर आना, अत्यधिक कमजोरी मालूम पड़ना, नींद न आना आदि लक्षण होते हैं।
ऐसी स्थिति में इस प्रभाकर बटी के सेवन से बड़ा उत्तम लाभ होता है। रोगी का हृदय बलवान हो जाता है एवं मस्तिष्क क्षोभ दूर हो कर नींद भी अच्छी आने लगती है।
बालजीवन गुटिका
गोरोचन 3 माशा, एलुवा (मुसब्बर ) 6 माशा, उसारे रेबन्द, केशर, कटरी छोटी, जीरा, यवक्षार, सत्यानाशी के बीज -- प्रत्येक 1-1 तोला लेकर, महीन चूर्ण अदरक के रस में 5 घण्टे घोंट कर मूँग के बराबर गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली आवश्यकतानुसार शहद या माता के दूध के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बच्चों की पसली चलना ( डब्बा रोग), कब्जियत, अफरा, श्वास, कास, पेशाब रुकना, आदि को दूर करती तथा बच्चे को हृष्ट-पुष्ट बनाती है। अक्सर बच्चों को कफ की वृद्धि के कारण कब्ज हो जाता है, जिससे बच्चे का पेट फूल जाता, दस्त नहीं होता, बच्चे अधिकतर रोते ही रहते, बच्चे का मुँह भरा हुआ-सा मालूम पड़ता, कफ-वृद्धि के कारण श्वास लेने में भी दिक्कत होती तथा नाक का श्वास बन्द हो जाने से मुँह से ही सांस लेना पड़ता है आदि उपद्रव होने पर यह बटी देने से प्रकुपित कफ शान्त हो जाता और दस्त खुलकर होने लगता तथा दस्त के साथ ही कफ भी निकल जाता है।
बाल वटी
सफेद जीरा, छाया में सुखाया हुआ पोदीना, बड़ी हर्रे, वायविडंग, लौंग, अतीस, सौंफ, जायफल, भाँग, रूमीमस्तंगी, कच्छपास्थि भस्म (कछुए की पीठ की भस्म ), अपराजिता के बीज, जहरमोहरा की पिष्टी और केशर, समभाग लेकर कपड़छन चूर्ण कर शीशी में रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम माँ के दूध अथवा शहद में मिलाकर चटा दें।
गुण और उपयोग
बच्चे को विकृत - दूध अथवा कफ-वृद्धि के कारण दूध नहीं पचता है। दूध पीने पर थोड़ी ही देर बाद उगल देता है अथवा पच गया तो अच्छी तरह से हजम न होने के कारण फटे-फटे दस्त होने लगते हैं। रात में नींद नहीं आती, बराबर तो नहीं, किन्तु अधिक देर तक जागता और रोता ही रहता है। सर्दी जोर की हो जाती है, साथ-साथ खाँसी भी आने लगती है। इन उपद्रवों को दूर करने के लिए इस बटी का उपयोग करना सर्वोत्तम है।
विषमुष्ट्यादि वटी
एरण्डतैल में भुनकर शुद्ध किया हुआ कुचला 1 भाग, काली मिर्च 1 भाग लेकर दोनों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् इन्द्रायण फल-स्वरस के साथ 12 घण्टे तक खरल करें। गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। — सि. भै. म. मा.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 गोली तक दिन में 2-3 बार आवश्यकतानुसार जल के साथ दें। वात रोगों में पान के रस के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के उपयोग से नवीन ज्वर, विषम ज्वर, मन्दाग्नि, अजीर्ण, उदर-वात, उदर- शूल, जीर्ण-वात रोग, पागल कुत्ते का विष आदि रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। पक्षाघात, अर्दित, कम्पवात, गृध्रसीः, आमाशय और पक्वाशयिक वात प्रकोप तथा चेष्टा (ज्ञान) तन्तुओं की विकृति को शीघ्र नष्ट करती है।
वातवाहिनी नाड़ियों एवं स्नायुमण्डल का तनाव दूर होकर कठिन वात रोगों को नष्ट करने में यह औषधि उत्तम एवं शीघ्र प्रभावकारी सिद्ध हुई है। अग्नि को बढ़ा कर भूख भी अच्छी लगाती है तथा स्नायुमण्डल को शक्ति प्रदान कर काम शक्ति को जागृत करती है।
नोट- इस योग में कुचले का विशेष सम्मिश्रण होने के कारण एक साथ दो सप्ताह से अधिक सेवन नहीं कराना चाहिए। तीन-चार सप्ताह बाद आवश्यकता हो, तो पुनः इस बंटी का सेवन कराया जा सकता है। इसी क्रम में तीन-चार बार तक प्रयोग किया जा सकता है।
बोलादि वटी
हीरा बोल (मुरमकी) 2 तोला, शुद्ध सुहागा 1 तोला, कसीस 1 तोला, घी में सेंकी हुई हींग और एलुवा (मुसब्बर) 1-1 तोला, सबको जटामांसी के क्वाथ में पीस कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
2-2 गोली, सुबह - शाम, भोजन के आधा घण्टा बाद जल से दें।
गुण और उपयोग
स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी में इसका उपयोग किया जाता है। यह गर्भाशय को शक्ति प्रदान करती है तथा मासिक धर्मसम्बन्धी उपद्रवों को भी दूर करती है। इसके सेवन से मासिक धर्म में रक्त का कम स्राव होना या अधिक स्राव होना दोनों ही प्रकार की खराबियाँ नष्ट होकर उचित परिमाण में नियमित मासिक धर्म होने लगता है।
व्योषादि वटी
सोंठ, पीपल, मिर्च, अम्लवेत, चव्य, तालीसपत्र, चित्रकमूल, सफेद जीरा और तिन्तड़ीक 1- 1 तोला, दालचीनी, तेजपात और छोटी इलायची का सम्मिलित चूर्ण 9 माशा, सबको एकत्र कूट- कपड़छन चूर्ण कर 20 तोला गुड़ की चाशनी बना, मिला कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर रख लें। - शा. सं.
वक्तव्य
कई लोग दालचीनी, इलायची और तेजपात को अलग-अलग तीन-तीन शाण लेते हैं, किन्तु वृहन्निघण्टु रत्नाकर तथा शार्ङ्गधर संहिता के मूल पाठ में 'त्रिसुगन्धिस्त्रिशाणं' लिखा है। एवं योगचिन्तामणि में ‘त्रिसुगन्धं त्रिभागं' लिखा है, इससे दालचीनी, तेजपात और छोटी इलायची को सम्मिलित तीन शाण लेना ही उचित है।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, दिन भर में 7-8 गोली तक गरम जल से दें या मुँह में रखकर एक-एक गोली चूसते रहें।
गुण और उपयोग
सर्दी जुकाम की यह प्रसिद्ध दवा है। इसका उपयोग अधिकतर सर्दी-जुकाम, पीनस, नजला आदि रोगों में किया जाता । यह नवीन कफ को बाहर निकालती तथा बढ़े हुए कफ का शमन करती है साथ ही सर्दी से होने वाले उपद्रवों में यथा सिर में दर्द होना, सिर भारी रहना, भूख नहीं लगना आदि उपद्रवों को भी दूर करती है।
वर्षा में ज्यादे भींगने, ठंड लगने, कड़ी धूप में घूमने, पसीने में पानी पीने, रात्रि जागरण, दिवास्वप्न, अजीर्ण, एकाएक पसीना बन्द हो जाने आदि कारणों से जुकाम हो जाता है। कस्बे या शहरों में आजकल धुआँ तथा धूलमिश्रित वायु में ही अधिक काल रहना पड़ता है। अतएव, स्वच्छता के अभाव में यह रोग उत्पन्न हो जाता हैं। यही कारण है कि देहातों की अपेक्षा कस्बे तथा शहरों में इस रोग का प्रसार विशेष देखने में आता है।
उक्त अपथ्य के कारण जुकाम उत्पन्न हो जाता है। नासिका और गले की श्लैष्मिक कला में शोथ (सूजन) होने से सर्दी और ज्वर दोनों हो जाते हैं। जुकाम होने पर बेचैनी, सम्पूर्ण शरीर में दर्द, अंगड़ाई आना, नाक और आँख से जल बहना, छींक आना, सिर दर्द, सिर का भारीपन, खुश्क-खाँसी, स्वरभंग, अरुचि आदि विकार उत्पन्न होते हैं।
अगर समय पर इसका उचित उपचार न हुआ तो जुकाम से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें मन्द मन्द ज्वर, अरुचि, कफ, खाँसी, बलगम गिरना, नाक से दुर्गन्ध आना तथा दुर्गन्धयुक्त स्राव होना, सिर-दर्द आदि प्रधान उपद्रव उत्पन्न होते हैं। ऐसे भयंकर रोगों का नाश करने के लिए
व्योषादि बटी का उपयोग करना चाहिए।
वृद्धिबाधिका वटी
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, ताम्र भस्म, कास्य भस्म, बंग भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध तूतिया, शंख भस्म, कौड़ी भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्रे, बहेड़ा, आँवला, चव्य, वायविडंग, विधारामूल, कचूर, पीपलामूल, पाठा, हपुषा, बच, इलायची के बीज, देवदारु, सेंधानमक, काला नमक, बिड्लवण, सामुद्र लवण और सांभर लवण - प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बनावें। फिर उसमें अन्य औषधियों का कपड़छन चूर्ण तथा भस्में मिला कर हर्रे के क्वाथ में घोंटकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। —भै. र.
मात्रा और अनुपान
एक-एक गोली सुबह - शाम, ताजा पानी या बड़ी हरीतकी के क्वाथ के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह नये - पुराने सभी तरह के अण्ड-वृद्धि (Varicocele and Hydrocele) रोगों को दूर करती है । अन्त्र वृद्धि (हर्निया) में भी इससे उत्तम लाभ होता है । अण्डकोष में वायु भर जाना, दर्द होना तथा नये दूषित रस का उतरना, रक्त एवं जल भरना आदि सभी प्रकार के अण्डकोष के विकारों में यह दवा गुण करती है।
किन्तु प्रारम्भिक अवस्था की अपेक्षा पुरानी अवस्था में जब अण्डकोष में जल भर गया हो, तब विशेष लाभ नहीं करती है। अतएव अण्ड- वृद्धि का आभास होते ही यह दवा शुरू कर देनी चाहिए ताकि आगे वृद्धि न हो, साथ ही कदम्ब-पत्र पर या एरण्ड पत्र पर घी का लेप कर उसे सेंक कर अण्डकोष पर लपेट लँगोटा कस देना चाहिए। इससे प्रारम्भिक अवस्था में बहुत लाभ होता है।
वृद्धिहरी टिका
कुन्दरू का गोंद 4 तोला, कटकरंज के फल को सेंककर निकाली हुई मींगी 4 तोला, इन्द्रजौ 2 तोला, घी में सेंकी हुई हींग 1 तोला, डीका माली ( नाड़ी हिंगु) 1 तोला, वायविडंग 2 तोला, छिला हुआ लहसुन 2 तोला, इन्द्रायन की जड़ 2 तोला, अजमोद 2 तोला, रूमी मस्तंगी 2 तोला, काला नमक 4 तोला लेकर सबको एकत्र कूटकर कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् ग्वारपाठे के रस में एक दिन मर्दन कर, 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
2-2 गोली दिन में 2-3 बार आवश्यकतानुसार ठंडे जल से सेवन करें।
गुण और उपयोग
इस बटी के उपयोग से समस्त प्रकार के वृद्धि रोग, विशेषतः वातज तथा कफज अण्ड- वृद्धि तथा अन्त्र - वृद्धि (आँत उतरना - हर्निया) रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। यह बटी उत्तम वातानुलोमक है। इसके प्रयोग से शीघ्र ही वायु का अनुलोमन होकर विविध प्रकार के उदर रोग और आध्मान नष्ट होते हैं, तथा कृमिरोग, उदरशूल, गुल्म और उदावर्त रोगों में भी अच्छा लाभ करती है । अन्त्रवृद्धि रोग प्रायः कब्ज की शिकायत रहने वाले लोगों को होता है। इस बटी के सेवन से दस्त साफ आता है और कब्ज भी नष्ट हो जाता है।
ब्राह्मी वटी (स्वर्णघटित)
अभ्रक भस्म, संगेयशव की भस्म या पिष्टी, अकीक की भस्म या पिष्टी, माणिक्य भस्म या पिष्टी, चन्श्वेदय, प्रवाल भस्म या पिष्टी, कहरवा पिष्टी, स्वर्ण भस्म या वर्क, मोती पिष्टी या भस्म प्रत्येक 6-6 माशे, जायफल, लौंग, कूठ, जावित्री, स्याह जीरा, छोटी पीपल, दालचीनी, अनीसून, असगन्ध अकरकरा, धनिया, बंसलोचन, छोटी इलायची के बीज, शंखाहुली, श्वेत चन्दन, सौंफ, तेजपात, रूमीमस्तंगी, पीपला मूल, चित्रकमूल की छाल और कुलिंजन – प्रत्येक 4-4 माशा और कस्तूरी, अम्बर, ब्राह्मी, निशोथ, अगर और केशर- प्रत्येक डेढ़-डेढ़ तोला लें। प्रथम चन्श्वेदय, केशर, कस्तूरी तथा अम्बर को खूब महीन पीसें, उसमें अन्य भस्में और पिष्टियाँ मिला कर सोने का वर्क एक-एक करके मिला लें, पीछे अन्य द्रव्यों का कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिला एक दिन ब्राह्मी के स्वरस में मर्दन कर, 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर शीशी में रख लें। -- सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली दिन में 2-3 बार आवश्यकतानुसार मक्खन, मलाई, दूध आदि के साथ दें। शीतांग सन्निपात में दो-दो घण्टे बाद था आवश्यकतानुसार पान के रस या मधु से दें। मियादी बुखार में भी पान के रस और मधु दें। मूर्च्छा और पागलपन आदि वात विकारों में दशमूल काढ़ा के साथ तथा अनिद्रा रोग में मांस्यादि क्वाथ के साथ देना चाहिए।
गुण और उपयोग
यह बटी स्नायविक दुर्बलता को दूर करने तथा स्मरण शक्ति और बुद्धि बढ़ाने के लिये आयुर्वेद में बहुत प्रसिद्ध है। इसके उपयोग से ज्ञानवाहिनी नाड़ियों की शक्ति बढ़ती है, शीतग सन्निपात में बेहोशी और नाड़ी की गति क्षीण हो जाने पर इससे बड़ा लाभ होता है।
दिमाग की कमजोरी हृदय की दुर्बलता, अनिद्रा, हिस्टीरिया, मूर्च्छा, पागलपन, स्मरण शक्ति का अभाव आदि मस्तिष्क-विकारों में यह बटी बहुत फायदेमन्द है । मोतीझरा और मियादी बुखार की बेचैनी, प्रलाप आदि में बैद्यगण इसका प्रयोग कर अपूर्व लाभ करते हैं। जीर्णज्वर के बाद की निर्बलता या किसी भी दीर्घ रोग से मुक्त होने के बाद की कमजोरी इस बटी से बहुत शीघ्र दूर हो जाती है।
ब्राह्मी वटी (चेचक )
ब्राह्मी 5 तोला रससिन्दूर 2 तोला, अभ्रक भस्म, बंग भस्म, शुद्ध शिलाजीत काली मिर्च, पीपल, वायविडंग - प्रत्येक 1-1 तोला लेकर कूट-कपड़छन चूर्ण बना ब्राह्मी में घोंटकर चना बराबर गोलियाँ बना, सुखाकर सुरक्षित रख लें। - प्रचलित अनुभूत योग
यह बटी उपरोक्त बंटी से गुण में किंचित् न्यून है। फिर भी छोटी-बड़ी चेचक, मोतीझरा, मियादी बुखार तथा कमजोरी दूर करने तथा ताकत और स्मरण शक्ति की वृद्धि के लिए उपयोगी है।
ब्राह्मी वटी (बुद्धिवर्धक )
छाया में सुखाई हुई ब्राह्मी 2 भाग, शंखपुष्पी की पत्ती ( छाया में सुखाई हुई ) 2 भाग, बच 1 भाग, काली मिर्च आधा भाग, गावजवाँ 2 भाग, स्वर्ण माक्षिक भस्म 1 भाग, रससिन्दूर 1 भाग लेकर प्रथम रससिन्दूर को खरल में डालकर सूक्ष्म मर्दन करें, पश्चात् अन्य चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करके मिलावें और जटामांसी के क्वाथ की 1 भावना देकर मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुरक्षित - सि. भै. म. मा. के सरस्वती बटी के योग से किंचित् परिवर्तित।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 गोली, छोटी वयवालों को आधी गोली से 1 गोली, सुबह - शाम, गुलकन्द 3 माशा या बीजरहित मुनक्का को पीसकर 1।। माशे के साथ लेकर ऊपर से दूध पिलावें या रोगानुसार, मधु, मक्खन, आँवले का मुरब्बा, ब्राह्मी शर्बत आदि अनुपान से देना लाभकारी है।
गुण और उपयोग
इस बटी का प्रयोग करने से मस्तिष्क की दुर्बलता सम्बन्धी समस्त प्रकार के विकार शीघ्र नष्ट होते हैं। स्मरण शक्ति तथा बुद्धि को बढ़ाने में यह बहुत उपयोगी है।
इसके सेवन से वातनाड़ियों एवं चेतना केन्द्र, हृदय के रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। विद्यार्थी, अध्यापक, आफीसर, न्यायाधीश आदि जिनको मस्तिष्क सम्बन्धी कार्य अधिक करना पड़ता है, उनके लिए इस बटी का प्रयोग अत्यन्त गुणकारी है।
यह बटी बुद्धिवर्द्धक होने के अतिरिक्त अनिद्रा, हिस्टीरिया, मूर्च्छा, आदि रोगों में भी श्रेष्ठ लाभ करती है। इस बटी के सेवन के साथ-साथ सुबह-शाम ब्राह्मी घृत 3 से 6 माशे तक दूध में मिलाकर पीना और भोजन के बाद दोनों समय सारस्वतारिष्ट का सेवन विशेष उपयोगी है।
भागोत्तर गुटिका
शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक 2 तोला, छोटी पीपल 3 तोला, हर्र 4 तोला, बहेड़ा 5 तोला, अडूसा की जड़ की छाल या छाया में सुखाये हुए फूल 6 तोला, भारंगी की जड़ 7 तोला, और मुलेठी 8 तोला लें। प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बनाकर, बाद में उसमें अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिला, बबूल की अन्तर्छाल के क्वाथ की 21 भावना दें, 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम, मधु के साथ अथवा गोजिह्वा क्वाथ या द्राक्षारिष्ट अथवा *शर्बत जुफा* के साथ दें।
शर्बत जूफा बनाने की विधि
मुनक्का 30 तोला, उन्नाव 20 तोला, लहसोड़े के पके और सूखे फल 20 तोला, सूखा अंजीर 20 तोला, सोसन की जड़ 20 तोला, मुलेठी 20 तोला, सौंफ की जड़ 20 तोला, कपास की जड़ 10 तोला, जूफा 10 तोला, हंसराज 10 तोला विहीदाना 5 तोला, अनीसून 5 तोला, सौंफ 5 तोला, जौ छिले हुए 2 तोला, अलसी 3 तोला, जटामांसी 5 तोला, खतमी के बीज 5 तोला - सबको लेकर जौकुट करके तीन गुने जल में रात को भिगो दें। सबेरे मन्द मन्द आँच पर पकावें। जब एक तिहाई जल रह जाय, तब ठंडा करके कपड़े से छान लें। पीछे उसमें 6 सेर चीनी मिलाकर पकावें । जब शहद जैसी चाशनी हो जाय, तब नीचे उतारकर ठंडा पानी होने दें। जब ठंडा हो जाय, तब कपड़े से छान कर बोतल में भरकर रख लें। -- सि. यो. सं.
गुण और उपयोग
यह खाँसी और दमे की उत्तम दवा है। विशेषकर वात-पित्त प्रधान सूखी खाँसी में जब कफ नहीं निकलता हो, कफ सूखकर छाती में बैठ गया हो, खाँसी ज्यादा जोर पर हो, मुँह सूखना, आँखें लाल हो जाना, प्यास लगना, बुखार का भी कुछ-कुछ सन्देह होना, शरीर में दर्द, दम फूलना आदि लक्षण होने पर यह बटी शर्बत जूफा के साथ देने से बहुत लाभ करती है । यह दवा प्रकुपित वात और पित्त को शान्त कर, उससे होने वाले उपद्रवों को भी शान्त कर देती है। छाती में जमे हुए कफ को पिघला कर बाहर निकालती और श्वासनली को साफ करती है।
मकरध्वज वटी
मकरध्वज 4 तोला, कपूर 4 तोला, जायफल 4 तोला, काली मिर्च (छिलका साफ की हुई) 4 तोला, कस्तूरी 3 माशा लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्मकपड़छन चूर्ण करें, पश्चात् मकरध्वज खरल में डालकर सूक्ष्म मर्दन करें, फिर मकरध्वज में काष्ठौषधियों का चूर्ण, कपूर तथा कस्तूरी मिला, जल के साथ दृढ़ मर्दन कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखा कर रख लें। — भै. र.
वक्तव्य
यह योग भैषज्यरत्नावली में 'बृहच्चन्श्वेदय मकरध्वज' के नाम से है, किन्तु वैद्य समाज में 'मकरध्वज बटी' के नाम से अधिक प्रचलित है । कोई-कोई इसे 'सिद्ध मकरध्वज' के नाम से भी व्यवहार करते हैं। इसे पान के रस से मर्दन कर गोली बनाने पर विशेष अच्छी बनती है।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम अदरक रस और मधु या मिश्री, मक्खन, मलाई अथवा दूध साथ दें।
गुण और उपयोग
रोगानुसार विविध अनुपान भेद से बटी का प्रयोग करने से वात-पित्त-कफ और त्रिदोषजनित समस्त प्रकार के रोगों को नष्ट करती है। इस बटी का विशेष प्रभाव हृदय, मस्तिष्क, वातवाहिनी तथा शुक्रवाहिनी नाड़ियों पर होता है, अतः समस्त प्रकार के शुक्र विकार- अधिक मैथुनजनित आ अप्राकृतिक मैथुन जनित इन्द्रिय शैथिल्य इस बटी के सेवन से शीघ्र नष्ट होता है।
इसके अतिरिक्त प्रमेह, शीघ्रपतन, वीर्य का पतलापन आदि विकार नष्ट होते हैं। यह उत्तम पुष्टिकारक, स्तम्भन शक्तिवर्द्धक और नपुंसकता - नाशक है। यह शरीर में बल-वीर्य और ओज की वृद्धि करती है।
मधूका गुटिका
मुलेठी, महुआ, मुनक्का, पीपल, वंशलोचन, दालचीनी, तेजपात और इलायची प्रत्येक 1- 1 तोला, खाँड 8 तोला, मुलेठी, मुनक्का, खजूर 4-4 तोला लेकर कूटने योग्य औषधियों को कूटकर महीन (कपड़छन) चूर्ण बना लें। शेष चीजों को पत्थर पर पीस कर महीन कर लें। फिर सबको शहद में मिला 1-1 माशा की गोली बना, सुखाकर रख लें। — बंगसेन
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, सुबह-दोपहर और शाम, बकरी के दूध के साथ या मधु से दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से रक्तपित्त, खाँसी, छर्दि, अरुचि, मूर्च्छा, हिचकी, भ्रम, क्षतक्षय, स्वरभंग पुरानी वातव्याधि, थूक में रक्त जाना, हृदय और पसली की पीड़ा, तृषा तथा ज्वर का नाश होता है।
यह दवा पित्त प्रकोपजन्य उपद्रवों का नाश करती है। विशेष कर रक्त पित्त में यह अधिक उपयोगी है। रक्त-पित्त को किसी भी अवस्था में इसका प्रयोग करने से आशातीत लाभ होता है। यह राजयक्ष्मा की खाँसी में भी काफी लाभ करती है। इसके सेवन से साधारण खाँसी भी अच्छी हो जाती है।
मरीच्यादि वटी
काली मिर्च 1 नोला, पीपल 1 तोला, यवक्षार 6 माशा, अनार का छिलका 2 तोला, गुड़ 8 तोला लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों को कपड़छन चूर्ण करें, पश्चात् गुड़ की चाशनी बनावें और उपरोक्त द्रव्यों का चूर्ण मिला, इमामदस्ते में डालकर एक-जीव होने तक कूटकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - शा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, दिन-रात में 5-6 गोली मुँह में रख चूसें।
गुण और उपयोग
खाँसी के लिये मरीचादि बटी बहुत प्रसिद्ध दवा है। इससे सब तरह की खाँसी दूर जाती है। यह स्वरभंग, गले की खराबी, सर्दी, जुकाम, खाँसी आदि में फायदा पहुँचाती है। कफ-वृद्धि के कारण कभी-कभी गले में दर्द होने लगता है, अथवा गलसुण्डिका बढ़ जाती है— जिसे अंग्रेजी में "Tonsils" कहते हैं। इसके बढ़ जाने से खाना-पीना कठिन हो जाता है। गले में इतना दर्द बढ़ जाता है कि पानी तक नहीं पिया जाता; साथ ही गले के भीतर सूजन हो जाती तथा श्वासनली कफ से भरी हुई रहती है। कभी-कभी बुखार भी हो जाता है। ऐसी दशा में इस मरीचादि बटी को गर्म जल के साथ देना लाभदायक है।
मदनमञ्जरी वटी
रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, बंगभस्म, प्रवालपिष्टी, केशर, जायफल, जावित्री, लौंग, छोटी इलायची के बीज, अकरकरा, सफेद मिर्च ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 तोला, स्वर्ण भस्म 6 माशे, कपूर 6 माशे, कस्तूरी 111 माशे, अम्बर 1।। माशे लेकर केशर, कस्तूरी अम्बर, को छोड़कर शेष भस्में और काष्ठौषधियों का सूक्ष्म चूर्ण मिलाकर पान के रस के साथ 3 दिन तक मर्दन करें, चौथे दिन केशर, कस्तूरी, कपूर और अम्बर को सूक्ष्म पीसकर मिला, एक जीव होने तक मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर सुरक्षित रख लें। - र. त. सा.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 गोली आवश्यकतानुसार दिन में दो बार मिश्री मिले दूध के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बटी उत्कृष्ट कामोत्तेजक, वीर्यवर्द्धक और उत्तम वल्य है। नवयुवकों के लिये परम हितकारक है। इसके प्रयोग से वीर्य वृद्धि होकर वह गाढ़ा और शुद्ध तथा सन्तानोत्पत्ति योग्य बन जाता है, शीतकाल में इस बटी का सेवन करने पर सत्वर लाभ होता है। इस योग में अफीम न होने से यह निर्दोष बाजीकरण एवं स्तम्भक औषधि है।
यह औषधि स्वप्नदोष, पेशाब साथ या पेशाब में घुलकर धातु का गिरना बहुमूत्र, प्रमेह, कफ एवं वात के विकारों में बहुत श्रेष्ठ लाभ करती है। रस रक्तादि धातुओं की पुष्टि कर शरीर को बलवान बनाकर ओज की वृद्धि करती है। वातवाहिनियों एवं स्नायु मण्डल तथा मस्तिष्क सुदृढ़ बनाकर उसकी क्रियाओं को भली-भाँति सम्पादित कराती है। बल-वीर्य एवं
स्मरण शक्ति बढ़ाने में यह अपूर्व गुणकारी सुप्रसिद्ध महौषधि है। कितने ही लोगों ने केवल इसी के प्रयोग द्वारा पर्याप्त धन और यश कामाया है।
मधुमेह नाशिनी गुटिका
त्रिवंग भस्म 4 तोला, गुड़मार की पत्ती 12 तोला, छाया में सुखाई हुई नीम की पत्ती 12 तोला, शुद्ध शिलाजीत शुष्क 24 तोला, लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् सब द्रव्यों को एकत्र मिला, जल के साथ मर्दन करें और 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। यदि इसमें 1 तोला स्वर्ण भस्म डाली जाय तो यह विशेष गुण करती है। - रसामृत
मात्रा और अनुपान
2 से 3 गोली दिन में 3-4 बार या आवश्यकतानुसार ताजी हल्दी का स्वरस और आँवला स्वरस के साथ दें या जामुन की गुठली का चूर्ण 1 माशा, गूलर का चूर्ण 1 माशा और ताजी गिलोय या बिल्वपत्र स्वरस आधा तोला के साथ दें।
गुण और उपयोग
त्रिवंग भस्म, गुड़मार की पत्ती, शिलाजीत आदि मधुमेह नाशक उत्तम द्रव्यों से निर्मित इस बटी के सेवन से मधुमेह रोग में शीघ्र ही आशाप्रद लाभ होता है। कुछ दिनों तक पथ्य और संयम के साथ इस बटी के सेवन से नवीन मधुमेह में शीघ्र लाभ होता है ।
वक्तव्य
इस योग में स्वर्ण भस्म 1 तोला, जामुन की मींगी का चूर्ण 12 तोला मिलाकर गूलर पत्र- स्वरस, गिलोय - स्वरस और विजयसार के क्वाथ की 1-1 भावना देकर मर्दन कर बटी बनाने से इसके गुण-धर्मों में अत्यन्त वृद्धि होती है।
इसके सेवन से प्रमेह रोग में अपूर्व लाभ होता है। इसके नियमित सेवन से मधुमेह रोग नष्ट हो जाता है। अतः यह 'मधुमेहारि' योग के नाम से भी व्यवहार किया जाता है। मधुमेह कठिन रोग है और इसका प्रसार भी आज कल अधिक हो रहा है प्रायः पौष्टिक भोजन करने वाले वे लोग जो शारीरिक श्रम का कार्य नहीं करते, केवल दिमागी कार्य करते हैं, उन लोगों को यह रोग अधिक होता है। बीज दोष से या वंश परम्परागत भी यह रोग होता है।
कितने ही कम उम्र के बच्चों को भी यह रोग होते देखा गया है। इसमें होता यह है कि यकृत की पित्तोत्पादक ग्रन्थि पेंक्रियाज की क्रिया में विकृति आने पर वह भोजन द्रव्यों में जो मधुरसार (शर्करा ) रहता है उसे द्राक्षौज में परिणत, नहीं कर पाती और वह शर्करा ऐसे ही पेशाब में घुलकर बाहर निकलती रहती है, जिससे शरीर में शक्ति बढ़ाने में मुख्य ईंधन द्राक्षौज नहीं मिल पाती या कम मिल पाती है, इससे शारीरिक धातुएँ निर्बल हो जाती है, रोगी के शरीर, दिल तथा दिमाग में अत्यन्त कमजोरी अनुभव होती है।
किसी काम में मन नहीं लगता और चिन्ता, भ्रम तथा थकावट बराबर बनी रहती है। आधुनिक चिकित्सा में इसके लिये सबसे अच्छी दवा इन्सुलीन का इन्जेक्शन है। रोगी के मूत्र में शर्करा की जाँच कराते रहें। जब भी शर्करा की मात्रा बढ़ जाती ये इन्जेक्शन लगवाने होते हैं, किन्तु इन इन्जेक्शनों की भी कितनी ही संख्या में लगवा चुकने पर भी रोग नहीं मिटता, केवल रोग को दबाये रखने की शक्ति इनमें है और ये इन्जेक्शन अधिक महंगे भी पड़ते हैं। इस प्रकार अधिक व्यय करने पर भी रोगी को इस बीमारी से मुक्ति नहीं मिलती और रोगी अपने जीवन से निराश हो जाता है। ऐसे कितने ही पीड़ित बन्धुओं को इस 'मधुमेह विनाशिनी बटी' एवं 'मधुमेहारि योग' के सेवन से अच्छा लाभ होते देखा गया है।
महाभ्र वटी
अभ्रक भस्म, शुद्ध मैनसिल, ताम्र भस्म, लौह भस्म, शुद्ध पारा, गन्धक, सुहागे की खील, यवक्षार, हर्रे, बहेड़ा, आँवला प्रत्येक 4-4 तोला, शुद्ध विष 4 माशा और काली मिर्च का चूर्ण 5 तोला लेकर सबको एकत्र मिला, गूमा, वासक और पान- इनके रस में पृथक्-पृथक् 1-1 दिन घोंटकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें। -र. सा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम दशमूल क्वाथ से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी प्रसूत रोग के लिए बहुत उपयोगी है । बच्चा पैदा होने के बाद रस रक्तदि धातु तथा वात-पित्त और कफादि दोष निर्बल हो जाते हैं। ऐसी हालत में थोड़ा भी कुपथ्य होने से अनेक प्रकार के रोग आक्रमण कर देते हैं। फिर मन्दाग्नि, भूख न लगना, अन्न में अरुचि, उठने-बैठने में तकलीफ मालूम होना आदि उपद्रव प्रारम्भिक अवस्था में उत्पन्न होते हैं । ऐसी हालत में यह बटी अमृत के समान गुण करती है। इसके सेवन से ज्वर शीघ्र छूट जाता है । यह बटी गर्भाशय को भी शक्ति प्रदान करती तथा शरीर में रक्त वृद्धि करती है ।
महाशंख वटी
पीपलामूल, चित्रकमूल की छाल, दन्तीमूल शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, पीपल, सज्जीक्षार, यवक्षार, शुद्ध टंकण, सेंधानमक, कालानमक, मनिहारी नमक, सामुद्र नमक, साँभर नमक, काली मिर्च, सोंठ, शुद्ध विष, अजवायन, हरड़ (छोटी), शुद्ध हींग, इमलीक्षार प्रत्येक द्रव्य 1-1 तोला, शंखभस्म 2 तोला लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, पश्चात् अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण कर एकत्र मिला अम्ल वर्ग के द्रव्यों के स्वरस या क्वाथ के साथ अम्लता (खट्टापन) आने तक मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें !
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली भोजन के बाद खट्टे अनार के रस या बिजौरा निम्बू के रस, मट्ठा, काँजी, सिरका, मद्य, गरम जल आदि किसी एक अनुपान साथ दें।
गुण और उपयोग
अजीर्ण और वायु के कारण उत्पन्न हुए पेट दर्द तथा परिणाम शूल की यह उत्तम दवा है। इसके सेवन से अजीर्ण की शिकायत मिटती है। भोजन का परिपाक बहुत अच्छी तरह से होता है। मन्दाग्नि की समस्त शिकायतों को नष्ट कर यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। इससे भूख खुल कर लगती और अधिक गरिष्ठ चीज खा लेने या अधिक भोजन करने पर जो अचानक अजीर्ण हो जाता है उसे मिटाने के लिये यह बहुत अच्छी दवा है। इसके सेवन से ग्रहणी, अर्श, कुष्ठ प्रमेह, भगन्दर, प्लीहा, अश्मरी, श्वास, खाँसी, उदर कृमि, अफरा आदि रोग भी नष्ट होते हैं। यह उत्तम पाचक और अग्निदीपक है।
मुक्तादि वटी
मोती पिष्टी 2 तोला, सोने का वर्क 5 माशा, चाँदी का वर्क 1 तोला, नागकेशर 2 तोला, कमल के फूलों के अन्दर का केशर 1 तोला, जीरागुलाब (गुलाब के पुष्प का केशर) 1 तोला, केशर आधा तोला, कपूर चौथाई तोला, कहरवा 1 तोला, जहरमोहरा खताई 1 तोला, संगेयशव 1 तोला, गोरोचन 1 तोला और गोदन्ती भस्म सब दवा के बराबर लें। दोनों वर्कों को छोड़ सबका कपड़छन चूर्ण करके पीछे उसमें वरक 1-1 करके मिलावें । फिर अच्छे गुलाब के अर्क में आठ दिन मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, गाय या माता के दूध के साथ दें।
गुण और उपयोग
बच्चों के लिये यह बटी अमृत के समान लाभदायक है। बालकों के जीर्णज्वर, बालशोष ( सूखा रोग), दूध न पचकर, अपच हो दस्त हो जाना या उल्टी होना और खाँसी आदि रोगों के लिए रामबाण दवा है। इस बटी के सेवन से बच्चे हृष्टपुष्ट और नीरोग हो जाते हैं।
बच्चों के शरीर में अस्थियों का निर्माण होने में सुधांश (Calcium) की अधिक आवश्यकता रहती है, इसके अभाव में अस्थियाँ कमजोर और लचीली एवं सार - रहित हो जाती हैं, जिसे (Rickets) रोग कहते हैं। इस बटी में गोदन्ती भस्म, मोतीपिष्टी, कहरवा, जहरमोहरा, संगेयशव ये द्रव्य उत्तम सुधांश (Calcium) पोषक होने से यह इस रोग में बहुत लाभ करती है।
मेहमुद्गर वटी
रसौत, विड्नमक, देवदारु, बेलगिरी, गोखरू, अनारदाना, चिरायता, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्रे, बहेड़ा, आँवला और निशोथ - प्रत्येक का कपड़छन किया हुआ चूर्ण 1-1 तोला, लौह भस्म सब दवा के बराबर तथा शुद्ध गूगल-4 तोला लेकर काष्ठौषधियों को एकत्र कूट, पश्चात् लौह भस्म और गुग्गुल मिलाकर आवश्यकतानुसार घी डाल कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। —भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली प्रातः - सायं ताजे जल के साथ या बकरी के दूध से दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के सेवन से सभी प्रकार के प्रमेह रोग और पेशाब के साथ वीर्य निकलना, स्वप्नदोष आदि वीर्य-सम्बन्धी सभी शिकायतें मिट जाती हैं। मूत्रकृच्छ्र (जलन और तकलीफ के साथ रुक-रुक कर पेशाब होना), पेशाक का रुक जाना, पथरी आदि मूत्राशय सम्बन्धी रोगों के लिए भी बहुत फायदेमन्द है ।
कामला, पाण्डु, धातुगत ज्वर, रक्तपित्त, ग्रहणी, आमदोष अग्निमांद्य और अरुचि आदि रोग भी इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं।
रजः प्रवर्तनी वटी
सोया के बीज 5 सेर, गाजर के बीज 5 सेर, उलट कम्बल 10 सेर, बाँस की जड़ 5 सेर लेकर, इन सबको जौकुट करके आठ गुना जल मिला कर क्वाथ करें । पुनः इसी प्रकार आठ गुना जल मिलाकर क्वाथ करें। पश्चात् छानकर दोनों बार के क्वाथ को एकत्र मिलाकर अग्निपर चढ़ा करके घन बना लें। उपरोक्त रीति से बनाया गया घन 3 भाग हीराबोल, 2 भाग, शुद्ध टंकण 1 भाग, हराकसीस 1 भाग, मुसब्बर (एलुवा) 1 भाग, शुद्ध हींग 1 भाग लेकर इन द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण कर घन में मिला अच्छी तरह मर्दन कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। — आनुभविक योग
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम मासिक धर्म होने के एक सप्ताह पहले गरम जल के साथ दें अथवा उलट कम्बल के क्वाथ से दें।
गुण और उपयोग
स्त्रियों के मासिक धर्म रुक जाने पर कमर और पेडू में दर्द होना, हाथ-पैर के तलुओं तथा आँखों में जलन होना, हरारत रहना आदि विकारों को दूर करने के लिए यह दवा रुके हुए मासिक धर्म को जारी करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। मासिक धर्म की खराबी से उत्पन्न होने वाले उपद्रवों को यह तुरन्त दूर करती है।
रत्नप्रभा वटिका
स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, अभ्रक भस्म, नाग भस्म, बंग भस्म, पीतल भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, रौप्य भस्म, हीरा भस्म (अभाव में बैक्रान्त भस्म ), लौह भस्म, शुद्ध हरिताल, खर्पर भस्म इन सबको समान भाग लेकर खरल में एकत्र पीसकर केले के रस, काकमाची (मखोय) का रस, वासा - रस, जयन्ती - रस और कपूर के जल प्रत्येक की एक-एक अहोरात्र भावना देकर घुटाई करें। गोली बनने योग्य होने पर एक-एक रत्ती की गोलियाँ बनाकर छाया में सुखाकर रख लें। — भै. र.
मात्रा और अनुपान
एक गोली प्रातः काल खाकर ऊपर से खरेंटी क्वाथ अथवा गरम दूध या भृंगराज - स्वरस या क्वाथ 2 तोला पीवें ।
गुण और उपयोग
हीरा भस्म, स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, अभ्रक, लौह, नाग, बंग, रौप्य, स्वर्णमाक्षिक आदि अनेक रासायनिक गुणकारी भस्मों तथा शुद्ध हरिताल के सम्मिश्रण से बनी यह बटिका अपने तीक्ष्ण एवं रासायनिक तथा योगवाही प्रभाव के कारण सभी प्रकार के स्त्री रोगों में अत्यन्त गुणकारी महौषधि है।
जिन विकारों में अन्य सभी औषधियाँ असफल सिद्ध हो गयी हों वहाँ भी यह बटिका अपने चमत्कारिक दिव्य गुणों के कारण उत्तम लाभकारी सिद्ध होती है। इसके योगवाही गुणों के कारण रोगानुसार उचित अनुपान के साथ देने से यह बटिका सभी रोगों उत्तम लाभ करती है।
किसी भी रोग की जीर्ण एवं असाध्यावस्था में इसका उपयोग सफलता- प्राप्तिकारक सिद्ध होता है। स्त्रियों के स्वास्थ्य को नष्ट करने वाले अत्यन्त दुष्ट प्रदर रोग, विकार, गर्भाशय दोष, राजयक्ष्मा, खाँसी, श्वास, हृदय रोग, स्नायुदौर्बल्य, धनुर्वात, अपतन्त्रक (हिस्टीरिया), पाण्डु, कामला, हलीमक आदि रोगों में इसका उपयोग विशेष लाभदायक सिद्ध हुआ है।
रोगों के कारण, जीर्ण-शीर्ण शरीर में रस- रक्तादि धातुओं की वृद्धि कर हृष्ट-पुष्ट एवं शक्ति और स्फूर्तिसम्पन्न बनाने में यह बटिका अपना विशिष्ट प्रभाव रखती है। स्त्रियों की तरह पुरुषों के प्रमेह रोग, धातु क्षीणता, क्षय, खाँसी, श्वास, स्नायु-दौर्बल्य, कठिन विकार आदि रोगों में निश्चित लाभकारी और उत्तम महौषधि है।
रविसुन्दर वटी
शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अम्लवेत, सोंठ, पीपल, काली मिर्च और शुद्ध धतूर- बीज प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बना, फिर उसमें अन्य दवाओं का कपड़छन चूर्ण मिला सब को एकत्र कर स्नुही ( सेहुण्ड ) के दुग्ध की 3 भावना और दन्तीमूल, चित्रक, धतूर, निशोथ तथा अदरक इनके रस की 7-7 भावना देकर मूँग के बराबर (1-1 रत्ती की) गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - र. रा. सु.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, सुबह-शाम भोजन के बाद गर्म जल से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी वात व कफजन्य मन्दाग्नि, अजीर्ण, आमाजीर्ण रस- शेषाजीर्ण, पेट दर्द, पेट में वायु भर जाना, अपचित दस्त आदि होना इन रोगों में बहुत शीघ्र कार्य करती है।
विसुन्दरी वटी
शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अम्लवेत, सोंठ, पीपल, काली मिर्च और शुद्ध धतूर - बीज प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना, फिर उसमें अन्य दवाओं का कपड़छन चूर्ण मिला सब को एकत्र कर स्नुही (सेहुण्ड ) के दुग्ध की 3 भावना और दन्तीमूल, चित्रक, धतूर, निशोथ तथा अदरक इनके रस की 7-7 भावना देकर मूंग के बराबर (1-1 रत्ती की ) गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - र. रा. सु.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, सुबह-शाम भोजन के बाद गर्म जल से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी वात व कफजन्य मन्दाग्नि, अजीर्ण, आमाजीर्ण रस- शेषाजीर्ण, पेट दर्द, पेट में वायु भर जाना, अपचित दस्त आदि होना इन रोगों में बहुत शीघ्र कार्य करती है। अजीर्ण कफ-वृद्धि के कारण जठराग्नि मन्द हो जाती है। फिर पाचक रस की उत्पत्ति न होने से अन्नादि का पाचन ठीक तरह से नहीं हो पाता, जो कुछ भी खाया जाता है, सब आमाशय में जमा होता रहता है, इसमें – पेट फूलना, पेट भारी हो जाना, जी मिचलाना, आलस्य, अपच होकर दस्त होना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी दशा में रविसुन्दर बटी का उपयोग करना बहुत लाभकारी होता है। यह बढ़े हुए कफ दोष को शान्त कर पाचक पित्त (जठराग्नि) को प्रदीप्त करती है, जिससे अन्नादिक का पाचन ठीक से होने लगता है और धीरे-धीरे सब उपद्रव भी दूर हो जाते हैं।
रेचक वटी
हर्रे का कपड़छन किया हुआ चूर्ण 5 तोला शुद्ध जमालगोटा 1 तोला दोनों की हुण्ड (थूहर ) के दूध में घोंटकर 4-4 रत्ती की गोलयाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। -- र. चि. म.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली रात को सोते समय गर्म जल या दूध से दें।
गुण और उपयोग
इस बटी के सेवन से सुखपूर्वक 1-2 दस्त साफ हो जाते हैं। कदाचित यदि रेचक बटी हजम भी हो जाय तो यह किसी प्रकार का नुकसान नहीं करती है। विशेष कर आम-संचय को यह बहुत शीघ्र नष्ट करती है।
मन्दाग्नि के कारण आमाशय की शिथिलता से पेट में विशेष आम-संचय हो जाता हैं; जिससे मल बद्ध हो जाता, दस्त खुल कर नहीं होता; पेट तथा शरीर में आलस्य बना रहता है । ऐसी अवस्था में आमदोष दूर करने के लिए इस बटी का उपयोग करना चाहिए ।
लवंगादि वटी
लौंग 8 तोला, बहेड़े के छिलके 4 तोला, पीपल 4 तोला, सकरतिगार 3 तोला, काकड़ासिंगी 2 तोला, अनार का सूखा छिलका 1 तोला, दालचीनी 2 तोला, खैरसार या कत्था 10 तोला, सत- मुलेठी 20 तोला, मुनक्का 10 तोला आक के फूल 5 तोला, नौसादर 2 तोला, कपूर 1 तोला और सुहागे की खील 1 तोला लें। प्रथम मुनक्का और आक के फूल को कूटकर चौगुने जल में क्वाथ करें, जब चौथाई जल बाकी रह जाय तब कपड़े से छानकर उनमें मुलेठी सत्त्व, नौसादर, कपूर और सुहागे की खील मिलावें। पीछे अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला, मटर के बराबर गोलियाँ बना छाया में सुखा कर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, दिन भर में 5-7 गोली मुँह में रखकर चूसें।
गुण और उपयोग
खाँसी का दौरा रोकने के लिए यह बटी बहुत उपयोगी है।
कफ नहीं निकलता हो, पुरानी उसी हो अधिक देर तक खाँसने पर जरा-सा पीले कफ का टुकड़ा निकल जाता हो, छाती में दर्द हो, शिर में दर्द हो, ऐसी हालत में इस बटी को मुँह में रखकर चूसने से कफ निकल आता है, और श्वासनली साफ हो जाती एवं खाँसी भी बन्द हो जाती है।
लवंगादि वटी दूसरी
लौंग, काली मिर्च, बहेड़े के फल का छिलका 1-1 भाग तथा खैरसार ( कत्था ) सबके बराबर लेकर यथाविधि कपड़छन चूर्ण बना, बबूल की छाल के क्वाथ में घोंटकर, चने बराबर गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - वैद्य जीवन
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली करके दिन भर में 5-7 गोलियाँ चूसनी चाहिए।
गुण और उपयोग
खाँसी के लिए बहुत प्रसिद्ध बटी है। सूखी और गीली सभी तरह की खाँसी में लाभ करती है । गोली चूसने से गले की खराबी से उत्पन्न खाँसी में बड़ा फायदा होता है। मुँह में छाले पड़ जाने पर भी इससे लाभ होता है।
लवण वटी
पाँचों नमक (सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र नमक, सोंचर नमक, सांभर नमक) प्रत्येक पृथक्-पृथक्, यवक्षार, सज्जीखार, पीपल, काली मिर्च, सोंठ, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, अजवायन और भुनी हुई हींग-प्रत्येक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । फिर उसे बिजौरा नींबू के रस या बेर अथवा अनार के रस में घोंटकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना लें। — वाग्भट
वक्तव्य
यही योग चरक संहिता में चित्रकादि बटी के नाम से है। सिर्फ द्रव्यों के उल्लेख क्रम का अन्तर है।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली गर्म जल से भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
यह अग्निदीपक तथा पाचक । आमाजीर्ण और विष्टब्धाजीर्ण जो क्रमशः कफ-वात- दोष से उत्पन्न होते हैं, उनमें यह बहुत फायदा करती है। यह संग्रहणी तथा आमातिसार में भी गुण करती है। आम पाचन तथा शूल को नष्ट करने में यह बटी अतीव गुणकारी सिद्ध हुई है।
उदरवात के प्रकोप को शमनकर, अनुलोमन करती है । आँतों में संचित् मल (कब्ज़ दोष) का भेदन कर दस्त भी साफ लाती है।
शुनादी वटी
छिलका निकाला हुआ लशुन 2 तोला, जीरा सफेद, शुद्ध गन्धक, सेंधा नमक, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, घी में भुनी हुई हींग – प्रत्येक 1-1 तोला इन सबको यथा-विधि कूट, कपड़छन चूर्ण बना, नींबू के रस में 3 दिन तक घोंटकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - वैद्य जीवन
विशेष
छिले हुए लहसुन को 3 दिन तक छाछ में भिगोकर पश्चात् निकालकर जल से धोकर डालें।
मात्रा और अनुपान
1 से 4 गोली - भोजन करने के बाद गर्म जल से दें।
गुण और उपयोग
यह पेट में वायु भर जाने की उत्तम दवा है। इसके सेवन से मन्दाग्नि, उदर-वायु, पेट- दर्द, आदि शीघ्र अच्छे हो जाते हैं। यह दीपक - पाचक तथा वायुनाशक है।
अजीर्ण और विसूचिका (हैजा )
आदि रोगों बहुत फायदा करती है। अजीर्ण के कारण पेट में वायु भर जाता है जिससे डकारें आने लगती हैं। इस वायु को पचाने तथा डकारों को बन्द करने के लिए यह बटी बहुत उपयोगी है। पेट में वायु कुपित होकर उर्ध्य गति हो जाती है, सामान्य लोग इसे गोला बनना कहते हैं। दिमागी काम करने वालों को यह शिकायत बहुत होती है।
इसमें जी मिचलाना, सिर भारी रहना, दिल धड़कना, भ्रम, चक्कर आना, खट्टी डकारें आना, पेट फूलना या अफरा आदि लक्षण होते हैं। इस बटी के प्रयोग से उर्ध्ववात का शमन शीघ्र ही हो जाता है।
शम्बूकादि वटी
क्षुद्र शंख (शम्बूक - घोंघा) भस्म, काली मिर्च, पाँचों नमक - प्रत्येक सम भाग लेकर करमी (कलम्बी) शाक के रस में 1 दिन घोंटकर 4-4 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - यो. र.
वक्तव्य
पाँचों नमक शब्द से सैन्धव नमक, काला नमक, सोंचर नमक, सामुद्र नमक, साम्भर नमक, इन पाँचों को पृथक्-पृथक् लेना चाहिए।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली गर्म जल से सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
यह आम को पचाती तथा अजीर्ण मन्दाग्नि पेट दर्द - परिणामशूल, पित्तज शूल आदि रोगों को दूर करती है। इसके नियमित सेवन से उदर-सम्बन्धी किसी व्याधि के होने का डर नहीं रहता है, क्योंकि उदर - सम्बन्धी व्याधियों का मूल अजीर्ण और कब्ज, इसके सेवन करने से न तो अजीर्ण ही हो सकता है और न कब्ज ही होता है। अतएव उदर सम्बन्धी व्याधियों से रक्षा के लिये इसका नियमित प्रयोग करना अतीव श्रेष्ठ उपाय है।
शंख वटी
इमली क्षार 5 तोला, सेंधा नमक, काला नमक, मनिहारी नमक, सामुद्र नमक, साम्भर नमक -- 1-1 तोला लेकर इनकी 20 तोला नींबू के रस में घोल दें। पश्चात् शुद्ध शंख के टुकड़े 5 तोला को अग्नि में तपा तपा कर तब तक बुझावें जब तक कि शंख के टुकड़े नरम होकर चूर्ण न होने लगें । फिर भुनी हींग, सोंठ, काली मिर्च, पीपल ये चारों द्रव्य मिश्रित 5 तोला, शुद्ध पारद 3 माशे, शुद्ध गन्धक 3 माशे लेकर प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बनावें, पश्चात् उनमें शुद्ध विष तथा उपरोक्त शंख के टुकड़ों का चूर्ण और शेष काष्ठौषधियों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण कर एकत्र मिला नींबू रस के साथ दृढ़ मर्दन करें और 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1- 2 गोली, दिन में 3 बार गरम जल या रोगानुसार अनुपान से दें।
वक्तव्य
नींबू के रस का वजन अनुभव के आधार पर लिखा गया है। शंख के टुकड़े 5 तोले की अपेक्षा शंख भस्म 5 तोला डालकर बनाने से यह बटी उत्तम बनती है।
गुण और उपयोग
आयुर्वेद शास्त्र में पाचन संस्थान के लिए प्रयुक्त होने वाली औषधियों में यह सर्वोत्तम औषध है। विष्टब्धाजीर्ण जन्य अफरा, उदरशूल, शूल और इनके कारण व्याकुलता होने पर शंखबटी के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है। अधिक भोजन कर लेने की अवस्था में उदर में भारीपन या वेदना होने पर इस बटी का सेवन अत्यन्त लाभकारी है। वातवर्द्धक या गरिष्ठ भोजन खाने पर कुछ समय के पश्चात् उदर में खूब खिंचाव - सा होना ज्ञात होता है। यहाँ तक कि श्वास लेने भी रुकावट एवं चलने-फिरने में असमर्थता हो जाती है। ऐसी अवस्था में शंखवटी के सेवन से आमाशयिक बिबन्ध को उत्तेजना मिलने पर अलसीभूत आमाशयिक अन्न को आगे गति करने में सहायता पहुँचती है। पश्चात् उदर खिंचाव और व्यथा ये लक्षण कम हो जाते हैं।
क्षुद्रात्रशूल में
भी इस प्रकार की अवस्था होने पर इस बटी के प्रयोग से उत्कृष्ट - लाभ होता है। इसके द्वारा अन्त्र की पुरःक्षरण क्रिया में वृद्धि होकर आन्त्रिक अवरोध नष्ट हो जाता है और अन्त्र की गति करने में सुविधा हो जाती है। इस प्रकार शूलोत्पादक सभी कारण नष्ट हो जाने पर शूल भी स्वयमेव शान्त हो जाता है।
क्षुद्रान्त्र (Small Intestine) और बृहदन्त्र (Colon)
के संगम स्थान पर अपक्व अन्न संचित होकर आनाह और भयंकर शूल उत्पन्न कर देता है, यह अजीर्ण-जनित शूल उत्पन्न कर देता है। यह अजीर्ण-जनित शूल और इस प्रकार की अवस्था विष्टब्ध में होती है। ऐसी स्थिति में शंख बटी के सेवन से शीघ्र लाभ होता है। अन्यथा अपक्व अन्न सड़कर दोनों आँतों के सन्धि स्थान पर तीव्र अन्त्रपुच्छ प्रदाह ( अपेण्डिसाइटिस) नामक तीव्र शूल उत्पन्न कर देता है। यदि इसकी शीघ्र ही चिकित्सा न की जाय तो रोगी की प्रायः एक सप्ताह में ही मृत्यु हो जाती है। इस रोग की मुख्य चिकित्सा तो शल्य क्रिया द्वारा ही होती है, परन्तु विष्टब्धाजीर्ण होते ही शंखबटी का सेवन चालू कर दिया जाय तो यह रोग होने की सम्भावना नहीं रहती है।
विदग्धाजीर्ण
की अवस्था में कण्ठ में दाह, खट्टी डकार, उदर में जलन, भोजन करने के पश्चात् अन्न का घण्टों जैसे का तैसे पड़ा रहना आदि लक्षण युक्त अवस्था में शंख बटी का सेवन अपूर्ण गुणकारी है।
अतिसार
अपक्व आहार, विदग्धाहारजनित मूर्च्छा, अत्यधिक भोजन, विष्टम्भकारक अन्न, कच्चे या अपक्व भोजन, पक्व या गरिष्ठ भोजन, शीतल पदार्थ या दुर्गन्ध युक्त भोजन का सेवन आदि कारणों से अतिसार उत्पन्न हो जाता है। इस विष से विष्टम्भ, वेदना, सिरदर्द, मूर्च्छा, भ्रम, पीठ और कमर का जकड़ जाना, जृम्भा, अंग टूटना, प्यास की अधिकता, ज्वर, छर्दि, प्रवाहिका, अरुचि, अपचन आदि विकार हो जाते हैं। इस अन्न विष से विदाह होकर अन्त्र की श्लैष्मिक कला भी विकृत हो जाती है और जलीय धातु की वृद्धि होने लगती है, पश्चात् यही जलीय धातु अपक्व आहार में मिश्रित होकर अत्यन्त तीव्र अतिसार होने लगते हैं। साथ ही आफरा भी हो जाता है और उदर में मन्द मन्द वेदना या कभी-कभी तीव्र शूल भी होने लगता है। वे सब उपद्रव अन्न- विष-जनित क्षोभ से होते हैं। इस अवस्था में भी यह बटी उत्तम कार्य करती है।
ग्रहणी रोग (IBS)
की अत्यन्त तीव्र अवस्था में इस बटी के प्रयोग से आशाप्रद लाभ नहीं होता, किन्तु तीव्रावस्था प्राप्त होने से पूर्व अग्निमान्द्य, अजीर्ण, अन्न- विष के संचय आदि पर इस बटी का अच्छा प्रभाव होता है। ग्रहणी रोग की तीव्रावस्था में भी कफप्रधान लक्षण और शूल होने की दशा में इस बटी के सेवन से अच्छा लाभ होता है और मन्दाग्नि होने पर अरुचि और शूल आदि लक्षण हों, तो इससे अच्छा उपकार होता है।
परिणामशूल
की अवस्था में बिबन्ध, अफरा, और कोष्ठ शूल आदि लक्षण या अन्न के आमाशय में अधिक समय तक रहने की दशा में शूल होने पर शंखबटी सर्वोत्कृष्ट लाभ करती है। जीर्ण बद्धकोष्ठ के विकार में क्षुद्रान्त्र और बृहदन्त्र के सन्धि स्थान पर अन्त्रपुच्छ, बृहदन्त्र, इन स्थानों में अफरा या कब्ज होकर भयंकर त्रास, शूल, घबराहट आदि लक्षण उत्पन्न होने पर शंखबटी के सेवन से उत्तम लाभ होता है।
यह बटी वात-कफ जन्य दोष, रस दूष्य तथा आमाशय, यकृत, प्लीहा, ग्रहणी, क्षुद्रान्त्र, वृहदन्त्र इन स्थानों पर विशेष प्रभावकारी है।
शिलाजित्वादि वटी (स्वर्णयुक्त )
शुद्ध-शुष्क शिलाजीत, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म या वर्क, लौह भस्म, शुद्ध गुग्गुलु, शुद्ध टंकण - ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर एकत्र मिला मर्दन करें, पश्चात् काले भांगरे के रस को 1 भावना देकर दृढ़ मर्दन करें । गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर सुरक्षित रखें। - भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह - शाम। अनार का रस, दूध अथवा जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह पाण्डु, कुष्ठ, ज्वर, प्लीहा, अर्श, भगन्दर, रक्तपित्त, रक्त प्रदर, शुक्रदोष आदि रोग नाशक है। इसके सेवन से वीर्य की क्षीणता, इन्द्रिय शिथिलता, स्वप्नदोष, टट्टी और पेशाब के साथ वीर्य जाना आदि शुक्र सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं। यह बल-वीर्यवर्द्धक भी
शिलाजित्वादि वटी
त्रिवङ्ग भस्म 3 तोला, छाया में सुखाई हुई नीम की पत्ती तथा गुड़मार की पत्ती का चूर्ण 10-10 तोला और शिलाजीत 15 तोला लें। प्रथम शिलाजीत में त्रिवङ्ग भस्म मिलावें, पीछे अन्य चूर्ण मिलाकर 4-4 रत्ती की गोलियाँ बनावें । यदि इस योग को विशेष गुणकारी बनाना हो, तो इसमें आधा तोला सुवर्ण भस्म मिला, गोलियाँ बना कर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
4-4 घण्टे से 3-3 गोली करके दिन भर में 12 गोलियाँ ठण्डे जल के अनुपान से दें।
गुण और उपयोग
बहुमूत्र, इक्षुमेह और मधुमेह में इस योग से अच्छा लाभ होता है। आजकल बुद्धिजीवी लोगों में पेशाब में शक्कर (चीनी) जाने की शिकायत बहुतायत से पायी जाती है। इस विकार में शिलाजित्वादि बटी के इस योग को लगातार सेवन करते रहने से उत्तम लाभ होते देखा गया है ।
शुक्रमातृका वटी
गोखरू - बीज, त्रिफला, तेजपात, इलायची-बीज, रसोत, धनियाँ, चव्य, जीरा, तालीसपत्र, सुहागे की खील और अनारदाना - प्रत्येक 2-2 तोला, शुद्ध गुग्गुलु 1 तोला, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, लौह भस्म - प्रत्येक 4-4 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, फिर उसमें अन्य औषधियों के चूर्ण मिलाकर सबको खरल कर लें (या पानी के साथ 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना लें ) ।.- भै. र.
वक्तव्य
त्रिफला शब्द से हरड़, बहेड़ा, आमला तीनों द्रव्य पृथक्-पृथक् 2-2 तोला डालें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली, अनार के स्वरस, बकरी के दूध या जल से सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
इस बटी का प्रभाव वातवाहिनी नाड़ी तथा वृक्क (मूत्र-पिण्ड ) एवं वीर्यवाहिनी शिराओं पर विशेष होता है। इसके सेवन से वीर्यस्त्राव और वातज पित्तज तथा कफज स्वप्नदोष, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी आदि रोग आराम होते हैं तथा वीर्य शुद्ध और गाढ़ा हो जाता है। यह रक्ताणुओं की वृद्धि कर मांस- ग्रन्थियों को सुदृढ़ बनाती है। इससे मानसिक शक्ति भी बढ़ती है।
शूलवर्जिनी वटी
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, शंख भस्म - प्रत्येक 2-2 तोला, शुद्ध सुहागा, भुंजी हुई हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्रे, बहेड़ा, आँवला, दालचीनी, तेजपात, तालीसपत्र, जायफल, लौंग, अजवायन, जीरा और धनिया – प्रत्येक 1-1 तोला लेकर सबको एकत्र मिला कूट- कपड़छन चूर्ण बना, 3 दिन आँवले के रस में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना सुखा कर रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली सुबह-शाम । बकरी का दूध या ठण्डे पानी के साथ दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से आठ प्रकार के शूल, प्लीहा, गुल्म रोग, अम्लपित्त, आमवात, कामला, पाण्डु, शोथ, गलग्रह, वृद्धि रोग, श्लीपद, भगन्दर, कास, श्वास, व्रण, कुष्ठ, कृमि, हिचकी, अरुचि, अर्श ग्रहणी रोग, अतिसार, विसूचिका, कण्डू, अग्निमान्द्य, पिपासा, पीनस और अन्य भी वातज, पित्तज तथा कफज रोग नष्ट होते हैं।
शूल रोग में इस रसायन का बहुत उपयोग होता है। हमारा अनुभव भी है कि जिस रोगी को मन्दाग्नि के कारण पेट में मन्द मन्द दर्द बना रहता हो, उसे यह दवा विशेष लाभ करती है। हम भोजन के बाद इस गोली को अर्क अजवायन या गर्म पानी के साथ देते हैं।
सर्पगन्धाघन बटी
सर्पगन्धा 10 सेर, खुरासानी अजवायन की पत्ती या बीज 2 सेर, जटामांसी 1 सेर इनका जौकुट-दरदरा चूर्ण करके उसको अठगुने पानी में मन्द आँच पर पकावें और लकड़ी के कोंचे से चलाते रहें। जब अष्टमांश जल बाकी रहे, तब ठंडा होने पर दो बार कपड़े से छानकर फिर उस फोक में उतना ही जल डालकर पका कर दो बार कपड़े से छानकर दोनों बार के छने जल को मन्द आँच पर पकावें । जब क्वाथ कलछुल या लकड़ी के कोंचे में लगने लगे, इतना गाढ़ा हो जाय, तब उसको नीचे उतार कर धूप में सुखावें । जब गोली बनने योग्य हो जाय, तब उसमें एक पाव भांग का चूर्ण तथा घन से चतुर्थांश पीपला - मूल चूर्ण मिलाकर 3-3
रत्ती की गोलियाँ बना लें। - सि. यो. सं. से किंचित् संशोधित
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली रात्रि को सोते समय दूध या जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से मस्तिष्क को आराम मिलता है और अच्छी निद्रा आती है। अतएव यह उन्माद में भी लाभदायक है। डॉक्टर लोग भी "सर्पिना टेबलेट" के नाम से सर्पगन्धा की गोलियों का ही प्रयोग करते हैं। यह बहुत कटु और उष्णवीर्य है।
अतएव, पित्त प्रकृति वालों को कभी-कभी इसके सेवनोपरान्त पसीना छूटने लगता है। मूर्च्छा तक भी कभी-कभी आ जाती है - परन्तु वातानुलोमन करने में इसका प्रयोग अच्छा होता है। अतएव यह हाई ब्लडप्रेशर को घटाती और निद्रा भी अच्छी लाती है।
स्वदेन गुण विशिष्ट होने से स्रोतसों को खोलती और नरम करती है। यदि इसे दूध साथ उपयोग किया जाय, तो पित्तवर्द्धक गुण भी कम हो जाता है। इसके सेवन से अनिद्रा, अपतन्त्रक (हिस्टीरिया), उन्माद, अपस्मार, रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। इसमें नींद भी अच्छी आती है।
सर्पगन्धा टेबलेट
सर्पगन्धा चूर्ण में षोडशांश स्टार्च और 32वाँ भाग शुद्ध बबूल के गोंद का चूर्ण मिला पानी का छींटा देकर दाना बना, सुखा, टेबलेट मशीन से 3-3 रत्ती की टेबलेट बना कर रख लें। ब्लडप्रेशर में सुबह-शाम दो-दो टेबलेट दें। यह उत्तम लाभदायक है, अनिद्रा में भी श्रेष्ठ लाभ करती है।
सबीर वटी
सबीर, केशर, लौंग का चूर्ण, श्वेतचन्दन का चूर्ण - प्रत्येक 4-4 तोला और कस्तूरी 6 माशे लें। प्रथम सबीर को खूब महीन पीसें, फिर उसमें केशर और कस्तूरी मिला कर पान के रस से घोंटें, जब खूब घुट जाय तब अन्य दवाओं का चूर्ण मिला कर पान के रस में 1 दिन
मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें।
- सि. यो. सं.
वक्तव्य
सबीर रसकपूर को ही कहते हैं। अतः बनाने में असुविधा हो, तो बाजार में तैयार बना हुआ रसकपूर मिलता है, उसे लेकर व्यवहार कर सकते हैं।
मात्रा और अनुपान
1- 2 गोली, सुबह - शाम निगल कर ऊपर से मिश्री मिला हुआ गाय का (गरम कर पीने योग्य ठण्डा किया हुआ) दूध पिलावें ।
गुण और उपयोग
फिरंगोपदंश के विष से होने वाले सब प्रकार के रोगों में इसके सेवन से अच्छा लाभ होता है। कुष्ठ, भगन्दर, व्रणरोग, उपदंश-जन्य सन्धिवात (गठिया), शरीर में चकत्ते पड़ना या रक्त विकार होना इन सब रोगों में इसके सेवन से अच्छा लाभ होता है। गोली को बिना चबाये ही निगल लेना चाहिए।
पथ्य
इस गोली के सेवन काल में खटाई, मिर्च, हींग, राई आदि गरम मसाले तथा करेला, सरसों, मूली, एरण्ड - खरबूजा इसका शाक नहीं खाना चाहिए।
सुदर्शन टेबलेट
सुदर्शन चूर्ण में षोडशांश स्टार्च और 92वाँ भाग शुद्ध बबूल के गोंद के चूर्ण को मिला थोड़ा जल का छींटा देकर, दाना तैयार कर, टेबलेट बना लें। चूर्ण की अपेक्षा यह लेने में सुविधाजनक एवं उत्तम गुणकारी है।
सुखविरेचन वटी
जमालगोटे के बीज को फोड़कर उसके मग्ज (मींगी) की दो दाल कर । ऐसी 26 दाल को रात को एक कलईदार पात्र में उबलते हुए पानी में डालकर रात भर ढँक कर रख दें। सबेरे उस दाल को हाथ से मसल कर जल से धो लें, पीछे खरल में डाल उनको खूब घोंटें। दाल अच्छी तरह पिस जाने पर उनमें 2 तोला सोंठ का कपड़छन चूर्ण मिला, जल से 8 घंटा मर्दन कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1 गोली रात को सोते समय शीतल जल के साथ लें।
गुण और उपयोग
इसकी 1 गोली लेने से ही प्रातः दस्त बगैर कष्ट के खूब साफ आता है, परन्तु इस गोली के सेवन करने से पहले मूँग की खिचड़ी घी मिलाकर खिला ताकि पेट स्निग्ध (चिकना ) हो जाय। इस क्रिया के बाद रेचन की गोली लेने से काफी फायदा होता है। रेचन के बाद पथ्य में दही-भात खाने को दें।
सूरणबटक
सूरण कन्द, विधारा - बीज – प्रत्येक 16-16 भाग, स्याह मूसली, चित्रकमूल - छाल प्रत्येक 8-8 भाग, हरड़, बहेड़ा, आँवला, वायविडंग, सोंठ, पीपल, शुद्ध भिलावा, पीपलामूल, तालीशपत्र - प्रत्येक 4-4 भाग, दालचीनी, छोटी इलायची, काली मिर्च- प्रत्येक 2-2 भाग लेकर सब द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण करें, पश्चात् सब द्रव्यों के बराबर गुड़ की चाशनी बना, उपरोक्त द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर इमामदस्ते में डालकर मर्दन करें, गोली बनाने योग्य होने पर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। - शा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-3 गोली तक आवश्यकतानुसार सुबह-शाम गरम दूध या गरम जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बटक अर्श रोग की सुप्रसिद्ध औषध है और जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, इसके अतिरिक्त वात-कफज - ग्रहणी, श्वास, कास, क्षय रोग, प्लीहा रोग, श्लीपद ( फीलपाँव), शोथ, हिक्का ( हिचकी), प्रमेह, भगन्दर आदि रोग नष्ट होते हैं और असमय में केशों को पकने से रोकता है। यह शरीर एवं बुद्धि-वर्द्धक उत्तम रसायन है।
संचेतनी वटी
सोंठ, पीपलामूल, वायविडंग, चित्रक, दालचीनी, तेजपात, जावित्री, शुद्ध कुचला, शुद्ध बच्छनाग, मल्ल भस्म, ताम्र भस्म, कस्तूरी - प्रत्येक दवा समान भाग लेकर भांगरे के रस में 12 घन्टे तक खरल कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना सुखा कर रख लें। - ध०
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली तीव्र सन्निपात में 2-2 या 3 3 घन्टे के बाद गरम जल का वेग कम होने पर 6 या 8 घंटे से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी हृदय, मस्तिष्क तथा वातवाहिनी नाड़ियों को चेतना देंने वाली है तथा रक्त में गर्मी पैदा कर नाड़ी की गति का संचालन करती है। सन्निपात में बेहोशी की हालत में इस बटी उपयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। कफ- वात प्रधान सन्निपात में इसका असर ज्यादा होता है। अन्तिमावस्था में - जब सर्वांङ्ग शरीर शीतल हो गया हो, नाड़ी की गति धीमी पड़ गई हो, चेतना शक्ति क्षीण हो गई हो, ऐसी भयंकर परिस्थिति में इस बटी के उपयोग से थोड़ी देर के लिए समस्त शरीर में गर्मी उत्पन्न होकर हृदय, नाड़ी तथा मस्तिष्क को उत्तेजित कर रोगी में चेतना आ जाती है। ऐसी दशा में हदय को बल देने वाला मकरध्वज, मोती भस्म, स्वर्ण भस्म, हंसपोट्टली रस आदि का भी उपयोग करने से मृत्यु- मुख से रोगी निकल आता है।
संजीवनी वटी
वायविडंग, सोंठ, पीपल, हर्रे, बहेड़ा, आँवला, बच, गिलोय, शुद्ध भिलावा, शुद्ध बच्छनाग-प्रत्येक समभाग लेकर प्रथम बच्छनाग और भिलावे को गो-मूत्र में खूब महीन पीस, पीछे अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला गो-मूत्र में मर्दन करके 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - शा. सं.
मात्रा और अनुपान
1-2 गोली अदरक रस या मधु साथ देनी चाहिए।
अनुपान
अजीर्ण से होने वाले ज्वर में और कफवात प्रधान ज्वर में अदरक के रस और मधु के साथ और सन्निपात ज्वर में 3-7 लवंग और 10-20 ब्राह्मी की ताजी पत्ती पीस, 2-4 तोला जल में मिलाकर उस जल के साथ दें।
ज्वर में पतले दस्त होते हों, तो 2 रत्ती दवा और जायफल को जल में घिस कर उसके साथ देना चाहिए ।
विषूची रोग में रोग का वेग तेज होने पर एक-एक घंटे से 1-1 गोली को अर्क पुदीना या पुदीना के स्वरस से अथवा अर्क कपूर 10 बूँद को जल में मिलाकर उसके साथ या प्याज के रस 1 तोला के साथ दें। रोग का वेग कम होने पर 3-3 या 6-6 घंटे से दवा दें।
सर्प काटने पर तीन-तीन गोली एक साथ में दो- दो घंटे से तीन-चार बार दें।
गुण और उपयोग
यह बटी पसीना लाने वाली, पेशाब साफ करने वाली तथा सर्प - विष, कीटाणु एवं ज्वरनाशक है। यह आमदोष को भी पचाती है और उससे उत्पन्न होने वाले उपद्रव - ज्वर, विसूचिका आदि रोगों का भी नाश करती है। यह बच्छनाग-प्रधान दवा है, अतएव यह कुछ उष्ण, स्वेदन और मूत्रल है। इन्हीं गुणों के कारण ज्वर में इसका प्रयोग करने से यह पसीना लाकर स्वेद - मार्ग से तथा पेशाब लाकर मूत्र मार्ग से ज्वर - दोष को निकाल कर ज्वर को दूर करती है।
मन्दाग्नि के कारण पेट में आमसंचय होने पर ज्वर हो जाता है। इसमें ज्वर होना, पेट में भारीपन, अपचित दस्त भी थोड़ा-थोड़ा होना, ज्वर की गर्मी बढ़ी हुई हो, पसीना बन्द रहना, बेचैनी, सिर में दर्द, पेट में भी दर्द बना रहना आदि उपद्रव होते हैं। ऐसी हालत में संजीवनी बटी के उपयोग से विशेष लाभ होता है, क्योंकि यह आम दोष का पाचन करके ज्वर को भी दूर करती है तथा पसीना और मूत्र द्वारा भीतर के मल दोष को भी बाहर निकाल देती है ।
अधिक खा लेने या बिना भूख की दशा में फिर खा लेने अथवा दूषित पदार्थ आदि के सेवन से पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो, अपचन हो जाता है। फिर पेट में दर्द, पेट भारी हो जाना, पतला और अपचित दस्त होना, पेशाब कम मात्रा में होना, होना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। ऐसी हालत में आरम्भिक अवस्था बढ़ती हुई नजर आवे तो 2-2 गोली 1-1 घण्टे पर दें। इससे भी उग्रावस्था में 4-4 गोली आधा-आधा घण्टे से देने से अवश्य लाभ होता है।
यह आमजन्य दोष को पचाते हुए वमन और दस्त को रोकती है तथा पेशाब साफ और खुलकर लाती है, जो इस रोग में विशेष कष्ट देने वाले होते हैं। साथ ही पाचन पित्त को जागृत कर अपचन दूर करती है । सन्तत ज्वर या मोतीझरा में इसकी एक-एक गोली लौंग के पानी से या सोंठ, अजवायन, सेंधा नमक को तीन-तीन रत्ती ले जल के साथ पीसकर पानी में मिलाकर जरा गरम कर इसके साथ दें, इससे दोषों का पाचन होकर ठीक समय पर बुखार उतर जाता है।
सारिवादि वटी
सारिवा, मुलेठी, कूठ, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात, नागकेशर, फूलप्रियंगु, नीलोत्पल, गिलोय, लौंग, हरें, बहेड़ा, आँवला - इनका चूर्ण 1-1 तोला और अभ्रक भस्म, लौह भस्म 14-14 तोला लेकर सबको एकत्र मिला भांगरे के रस, अर्जुन के क्वाथ, जवा के क्वाथ, मकोय के रस और गुंजा की जड़ के क्वाथ की 1-1 भावना देकर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना लें। - भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली प्रातः काल धारोष्ण दूध या शतावर का रस अथवा लाल चन्दन के क्वाथ के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह बटी कर्ण रोग, प्रमेह, रक्तपित्त, क्षय, श्वास, नपुंसकता, जीर्णज्वर, अपस्मार, अर्श, हृद्रोग, स्त्री रोग आदि को नष्ट करती है।
इस बटी का उपयोग कर्ण रोग में विशेष किया जाता है। कान का बहना, कान में सायँ- सायँ आवाज होना, ऊँचा सुनना आदि को दूर करती है। किसी भी कारण से मस्तिष्क में उष्णता पहुँचने पर अथवा वातवाहिनियों में विकृति होने से कान बहरा हो गया हो, या कान में दर्द होता हो, तो इसके सेवन से दूर हो जाता है। कान के लिए यह उत्तम दवा है ।
सौभाग्य वटी (प्रसूत )
शुद्ध पारा, गन्धक, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध सिंगिया विष, लौंग, त्रिकुटा, कूठ, नागरमोथा, भुनी हुई हींग, बड़ी इलायची, जायफल, कायफल, त्रिफला, सफेद जीरा, कालाजीरा, सज्जीखार, यवक्षार, सेंधा नमक, काला नमक, सांभर नमक, सामुद्र नमक और पांगा (मनिहारी) नमक — ये 27 दवाएँ समभाग लेकर पहले पारा - गन्धक की कज्जली बनावें, फिर शेष 25 दवाओं का चूर्ण मिलाकर निर्गुण्डी, गूमा, अपामार्ग, अदरक और पान के रस की एक-एक भावना देकर चने बराबर गोलियाँ बना लें। - आरोग्य - प्रकाश
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम दशमूल क्वाथ, दूध या जल से दें।
गुण और उपयोग
यह नुस्खा शास्त्रोक्त नहीं आनुभविक है, किन्तु रस पीपरी की तरह इसका भी नाम बिहार प्रान्त में सर्व साधारण से लेकर पढ़े-लिखे सबकी जबान पर रहता है। प्रसूत रोग की तो यह खास दवा है। बहुत-सी स्त्रियाँ ऐसी होती हैं जो अपने स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखने के लिए साल भर में एक या दो सप्ताह इस दवा का सेवन करना परमावश्यक समझती हैं और प्रतिवर्ष इसका सेवन भी करती हैं। प्रसूत में होने वाले ज्वर, मन्दाग्नि, आमदोष, शूल, वात प्रकोप,
अतिसार, कफदोष आदि में उत्तम गुणकारी है।
सौभाग्य बटी (सन्निपात )
शुद्ध टंकण, शद्ध विष, श्वेत जीरा, सेंधा नमक, सौवर्चल नमक, विड्नमक, सामुद्र नमक, सांभर नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरड़, बहेड़ा, आँवला, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद - ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर प्रथम पारा - गन्धक की कज्जली बनावें । पश्चात् अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण कर एकत्र मिला, सफेद फूलवाली निर्गुण्डी, नीले फूलवाली निर्गुण्डी, भांगरा, अडूसा, अपामार्ग इनके स्वरस की 1-1 भावना देकर मर्दन करें, गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोली बना, सुखाकर रखें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम अदरक स्वरस और मधु से या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस बटी का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के सन्निपात रोग नष्ट होते हैं। अत्यन्त शीतज्वर, दाहज्वर, प्रलेपक ज्वर, घोर मूर्च्छा युक्त ज्वर, तन्द्रा, समस्त इन्द्रियों का मूच्छित होना, साथ ही मन का भी मुग्ध होना, और ऊर्ध्व श्वासादि रोग, घोर कफ युक्त कास, मूर्च्छा, अरुचि, तृष्णा, पार्श्वशूल सहित ज्वर को नष्ट कर मनुष्य को मृत्यु से निकाल कर उसकी रक्षा करती है।
हिंगुकर्पूरादि वटी
घी में सेंकी हुई असली हींग 1 भाग, कपूर 1 भाग, कस्तूरी 1/8 भाग लेकर सबको एकत्र मिला दृढ़ मर्दन करें, 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें। प्रथम हींग और कपूर को मिलाकर मर्दन करें, इन दोनों के मिलने से गीलापन आ जाता है, फिर कस्तूरी मिलाकर गोली बनावें, यदि गोली न बन सके तो 10-20 बूँद शहद मिलाकर गोली बनावें। -सि.यो
वक्तव्य
कभी-कभी कपूर और हींग दोनों मर्दन करते-करते इतने अधिक गीले हो जाते हैं कि गोलियाँ नहीं बन पाती हैं। ऐसी स्थिति में योग से चतुर्थांश शुण्ठी चूर्ण मिलाने से गोलियाँ अच्छी तरह बन जाती हैं एवं गुणों में भी किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता ऐसा हमारा अनुभव है।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली जल या 2-4 तोला दूध या अदरक रस 3 माशा और शहद के साथ दें। यदि गोली को न निगल सकें तो गोली को अदरक के रस और शहद में मिलाकर जिह्वा पर लगा दें।
गुण और उपयोग
ज्वरावस्था में सन्निपात के लक्षण देखते ही इस बटी का सेवन कराना विशेष उपयोगी है। इससे नाड़ी की गति नियमित हो जाती है और हाथ-पाँव कांपना, कपड़ा फेंकना, उठ-बैठ करना, अण्ट-सण्ट बकना आदि लक्षण नष्ट हो जाते हैं। योषापस्मार (हिस्टीरिया) में इस बटी के सेवन से अच्छा लाभ होता है। श्वसनक ज्वर (न्यूमोनिया) में इस बटी से अच्छा लाभ होता है और कफ पतला होकर निकल जाता है, कफ की दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है और कफगत कीटाणुओं का नाश होता है।
हृदय रोग में कम्प, हृदय में वेदना, घबराहट, चक्कर आना आदि लक्षण हो तो इस बटी के सेवन से शीघ्र लाभ होता है । शीतज्वर में इस बटी के प्रयोग से शीत, कम्प आदि लक्षण सरलता से नष्ट हो जाते हैं। यह बटी पसीना लाती और बढ़े हुए शारीरिक उत्ताप को नष्ट करती है।
हिंग्वादि वटी
भुनी हींग, अम्लवेत, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, अजवायन, सेंधानमक, बिड् नमक, काला नमक—ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर कपड़छन चूर्ण करें, पश्चात् बिजौरा नींबू के रस की तीन भावना देकर तीन दिन तक मर्दन करें, गोली बनाने योग्य होने पर 3-3 रत्ती की गोली बना सुखाकर रखें। --चक्रदत्त
मात्रा और अनुपान
1 से 2 गोली दिन में दो-तीन बार सेंधानमक, काली मिर्च, भुने जीरे के चूर्ण मिश्रित मट्ठे के साथ सेवन करें या 1-1 गोली मुँह में रखकर चूसें ।
गुण और उपयोग
यह बटी उत्तम पाचक, दीपक और वातानुलोमक है। इस बटी के सेवन से अपचन जनित कठिन शूल रोग सत्त्वर नष्ट हो जाता है । आफरे को नष्ट कर, पाचन क्रिया को प्रबल बना, जठराग्नि की वृद्धि करती है।
अफारे में इस बटी का प्रयोग करने के साथ-साथ उदर पर एरण्ड तैल मलकर सेंक करें, बाहर से भी अच्छी सहायता मिलती है। यदि अंत्र के भीतर आम संचित होकर आँतें चौड़ी और निर्बल हो गई हों तो दिन में दो बार प्रातः और रात्रि को 1-2 माशे वायविडंग चूर्ण को शक्कर के साथ देवें और ऊपर से 5-10 तोला पिलावें । यदि साथ ही मलावरोध की भी अधिक शिकायत हो, तो काला मुनक्का या गुलकन्द 1-2 तोला देते रहें, इससे उदर साफ होने में विशेष सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त सौंफ को नमक का जल लगा थोड़ा सेंककर उसमें से थोड़ी-थोड़ी सौंफ दिन में 4-6 बार देते रहने से आम पाचन में विशेष सहायता मिलती है। प्रातः काल 3-4 गोली खाने से आमजीर्ण को नष्ट करती है, भोजन के पूर्व खाने से भूख में वृद्धि होती है तथा भोजन के बाद खाने से अन्न का परिपाक ठीक होता है।
इस बटी का नियमित सेवन करने वालों को मन्दाग्नि और उदर सम्बन्धी विकार होने का भय नहीं रहता है।
क्षार बटी
शुद्ध बच्छनाग 1 तोला, अभ्रक भस्म 2 तोला, शंख भस्म 4 तोला, इमली क्षार 8 तोला, ताम्र भस्म 16 तोला, त्रिकुटा चूर्ण 31 तोला लेकर सबको एकत्र मिला तुलसी भाँगरा, बिजौरा नींबू और अदरक, इनके स्वरस की पृथक्-पृथक् सात-सात भावना देकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। - र. र. स.
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम गर्म जल से दें।
गुण और उपयोग
यह बटी तीक्ष्ण और दीपन - पाचन है । ग्रहणी, गुल्म, शूल, अग्निमांद्य, अर्श, रक्त-गुल्म और अरुचि नाशक है।
इस बटी का प्रयोग अग्निमांद्य, गुल्म और शूल रोगों में विशेष किया जाता है। यह अपनी तीक्ष्णता के कारण गुल्म को बहुत शीघ्र पचा देती है और जठराग्नि को प्रदीप्त कर मन्दाग्नि दूर कर पाचन-क्रिया को सुधार देती है।
क्षुधावती गुटिका
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, अजवायन, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, सोया, चव्य, जीरा, काला जीरा, पुनर्नवा, बच, दन्ती-मूल, घण्टाकर्ण, दण्डोत्पला-मूल, निशोथ, अनन्तमूल - प्रत्येक का कूट-कपड़छन किया हुआ महीन चूर्ण 1-1 तोला और मण्डूर भस्म 2 तोला लें। इन्हें अदरक के रस से मर्दन कर, 4-4 रत्ती की गोलियाँ बना लें। -भै. र.
वक्तव्य
त्रिफला शब्द से हरड़, बहेड़ा, आमला तीनों पृथक्-पृथक् 1-1 तोला डालें।
मात्रा और अनुपान
1-1 गोली सुबह-शाम गर्म जल या काँजी से दें।
गुण और उपयोग
यह गुटिका अम्लपित्त, प्लीहा, पेट फूलना, भूख न लगना, आमवात, परिणामशूल, अजीर्ण, पाँचों प्रकार के कास, श्वास आदि रोगों के लिए अच्छी है। भोजन के बाद 1-2 गोली खा लेने से मन प्रसन्न हो जाता है और भूख खूब लगती है। जी मिचलाना, मुँह का स्वाद खराब होना, कब्जियत तथा अनपच के लिए यह बटी बहुत फायदेमन्द है ।
अम्लपित्त में
जब दर्द के साथ वमन होता हो, अन्न या पानी तक भी न पचता हो, शरीर दुर्बल और कमजोर हो गया हो, खट्टी डकारें आती हों, ऐसी अवस्था में इससे बहुत फायदा होता है। यह पित्त को शमन करते हुए जठराग्नि को दीप्त कर देती है, जिससे अन्नादिक कॉ पचन ठीक से होने लगता है। फिर धीरे-धीरे रोगी अच्छा हो जाता है।
क्षुधाकारी वटी
निम्बू रस 2 सेर को लोहे की साफ कड़ाही में डाल कर अग्नि पर पकावें, जब अष्टमांश शेष रह जाये, तब सेंधा नमक पिसा हुआ 1 सेर, घी 2 तोला, चीनी 12 तोला मिला दें, पश्चात् सोंठ 7 तोला, मरीच 7 तोला, पीपल 7 तोला, जीरा सफेद 7 तोला, जीरा स्याह 7 तोला, शुद्ध टंकण 7 तोला, अकरकरा 1 तोला, निम्बू
सत्त्व 12 तोला, इनका कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिलाकर मर्दन कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। — सि: भै. म. मा.
मात्रा और अनुपान
2-4 गोली आवश्यकतानुसार दिन में दो-तीन बार सेवन करें। यह बटी अत्यन्त स्वादिष्ट एवं रोचक होने के कारण मुँह में रखते ही मुँह में लालास्राव होकर उसके साथ गोली पिघल कर पेट में पहुँच जाती है। अतः इसके सेवन में किसी अनुपान की आवश्यकता नहीं है।
गुण और उपयोग
यह बटी अरोचक, अजीर्ण, मन्दाग्नि, उदर शूल, खट्टी डकारें आना, पेट फूलना, पेट वायु संचित होकर ऊपर को जाना (गैस बनना) आदि विकारों में उत्तम गुणकारी है। उपरोक्त विकारों से पीड़ित कितने ही व्यक्ति इस बटी का सेवन कर लाभ उठाते देखे गए हैं। अत्यन्त स्वादिष्ट और रोचक होने के कारण सभी लोग इसे बहुत पसन्द करते हैं।