आसव आरिष्ट प्रकरण
आसवों के सामान्य गुण
पाचनशक्ति को बढ़ा कर खाए हुए पदार्थों को हजम करना, पेट में रुकी हुई वायु का अनुलोमन कर दस्त साफ लाना, शरीर में स्फूर्ति पैदा करना, पेशाब उचित मात्रा में और खुलकर होना, मूत्र की विकृति दूर करना इत्यादि।
नये और पुराने आसवारिष्ट
आसवारिष्ट यदि ठीक विधि से बनाये गये हों, तो वे कभी भी बिगड़ नहीं सकते, बल्कि रखे रहने पर पुराने होकर और भी गुणवृद्धि करते हैं। यह अनुभव और शास्त्र सिद्ध बात है। आसवारिष्ट जितने पुराने होते हैं, उतने ही रुचिकर, जायकेदार शीघ्र गुणकारी और तेज होते हैं। कारण नये आसवों में दवाओं की मिलावट से उत्पन्न होने वाले गुण अच्छी तरह प्रकट नहीं हो पाते, अतः लाभ कम होता है। पुराने आसवों में गुणों की बराबर वृद्धि होती है।
आसवारिष्ट लेने की मात्रा और अनुपात
पुराने आसवारिष्ट में अधिकतर तीक्ष्णता उत्पन्न हो जाती है अतः आसवारिष्ट अकेला न लेकर बड़े या बच्चों को भी समान भाग पानी मिलाकर सेवन कराना चाहिये बड़े और बलवान मनुष्यों को 2 से 4 तोला तक कमजोर को 1 तोला तक बच्चे को 3 से 6 माशे तक, और दूध पीने वाले बच्चे को 15 से 30 बूंद तक आसवारिष्ट देना चाहिए।
आसव सेवन के विधान
आसवारिष्ट सेवन करते समय पानी बराबर दुगुनी मात्रा में मिलाना चाहिये। आसवारिष्ट इस तरह से पीवें कि मसूड़ों में न लगकर गले से सीधे पेट में पहुँच जाय।
पथ्यापथ्य
जिस रोग-विनाश के लिये आसवारिष्ट का सेवन किया जाय, उस रोग में बताये हुए पथ्य का ही सेवन करना अच्छा है यदि स्वस्वावस्था में अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिये आसवारिष्ट का सेवन किया जाय, तो स्निग्ध (धी, दूध आदि) और पौष्टिक पदार्थों का सेवन करें, क्योंकि आसवारिष्ट के प्रभाव से अन्नादि शीघ्र ही पच जाते हैं।
अंगूरासव
लौंग, आयफल, जावित्री, नागकेशर, कंकोल शीतलचीनी, पीपल, पीपलामूल, रेणुका, सफेद इलायची, अकरकरा, सोंठ, कालीमिर्च, मुलेठी, असगन्ध, दालचीनी, शतावर, सफेद मूसली, उटंगन के बीज, तेजपात प्रत्येक 3-3 तोला, बबूल की छाल 5 तोला कचनार की छाल 5 तोला, छुहारा आधा सेर, सुपारी 1 पाव, पिस्ता 1 पाव, चिरौंजी आधा सेर, बादाम की मींगी आधा सेर, अंगूर 5 सेर, नाशपाती 211 सेर, सेव 211 सेर, अनार 211 सेर, संतरा 111 सेर, शहद 2 सेर, केशर 1 तोला, कस्तूरी 3 माशे, धाय का फूल आधा सेर, चीनी 4 सेर, जल 25 सेर लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों को जौकुट चूर्ण करें एवं केशर और कस्तूरी को आसव बन जाने के बाद रेक्टीफाइड स्पिरिट में छोटे टुकड़े करके मिलायें । पश्चात् जलसहित सब द्रव्यं घृतलिप्त पात्र में भर दें और 1 मास तक सन्धान करें। 1 मास बाद निकाल कर छानकर के सुरक्षित रख लें। बृ० आसवारिष्ट संग्रह
मात्रा और अनुपान
1 तोले से 2 तोला तक सुबह-शाम भोजन के बाद, समान भाग जल मिलाकर पिलावें ।
गुण और उपयोग
बादाम, पिस्ता, चिरौंजी, अनार, सेव, संतरा, अंगूर आदि उत्तमोत्तम द्रव्यों से निर्मित यह आसव अत्यन्त बाजीकरण, बलवर्द्धक और पुष्टिकारक है। यह मन्दाग्नि को नष्ट कर क्षुधा की वृद्धि करता है। रस-रक्त, मांस आदि सप्तधातुओं की वृद्धि करता है। शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न कर नवीन शुद्ध रक्त निर्माण करता एवं हृदय बलवर्धक, प्रसन्नताकारक और वीर्यवर्द्धक है। मस्तिष्क की निर्बलता को नष्ट कर स्मरणशक्ति को बढ़ाता है और फेफड़ों को ताकत देता है।
अभयारिष्ट
काढ़ा बनाने की औषधियाँ- बड़ी हर्रे का छिलका 5 सेर, मुनक्का 211 सेर, महुए के फूल 40 तोला, वायविडंग 40 तोला लें तथा कूटने योग्य चीजों का जौकुट चूर्ण करें।
क्वाथ के लिये जल
उपरोक्त दवाओं को एक मन 11 सेर 16 तोला पानी में डालकर पकायें चौथाई जल शेष रहने पर शीतल कर छान लें।
प्रक्षेप
इसमें 8 सेर गुड़ घोल दें। बाद में छोटा गोखरू, निशोय, धनियां, धाय का फूल, इन्द्रायण की जड़, चव्य, सोंठ, दन्तीमूल और मोचरस - प्रत्येक 8-8 तोला लेकर मोटा चूर्ण करें और इसमें डाल दें।
सन्धान
किसी चिकने और बड़े बर्तन में डालकर सन्धान कर दें एक मास बाद निकाल कर छान लें।
वक्तव्य
इसमें हर्रे का छिलका अत्यन्त कषाय द्रव्य होने से 5 सेर गुड़ से मधुरता ठीक नहीं होती और मधुरता की कमी से अरिष्ट उत्तम नहीं बनता। अतः गुड़ का परिमाण 5 सेर के स्थान पर 8 सेर किया गया है। इससे अच्छा बनता है, ऐसा हमारा अनुभव है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, प्रातः और सायं भोजन के बाद जल मिला कर दें।
गुण और उपयोग
रोग और रोगी का बल, रोगी की अग्नि (पाचन शक्ति) और कोष्ठ का विचार कर उचित मात्रा में इसका सेवन करने से बवासीर और आठ प्रकार के उदर रोग नष्ट होते हैं यह मल- मूत्र की रुकावट को दूर करता और अग्नि को भी बढ़ाता है।
अभयारिष्ट
साधारण रेचक और पाचक तथा बद्धकोष्ठ (कब्जियत) को दूर करने वाला है इसके अतिरिक्त सब प्रकार के अर्श (बवासीर), उदर रोग, मन्दाग्नि, मूशघात, यकृत, गुल्म और हद्रोग का नाश करता है।
यह जमालगोटे की तरह रेचक (दस्तावर) नहीं है। जमालगोटा से जो दस्त (रेचक) होते हैं, उसमें आँतों की क्रिया शिविल (निर्बल) हो जाती है, उससे विरेचन के बाद आँतों में पुनः मल-संचय होने लगता और उससे दूषित गैस उत्पन्न हो अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अभयारिष्ट द्वारा जो दस्त होते हैं, उसमें अतें कमजोर न होकर सबल बनी रहती हैं. जिससे दूषित मल संचय नहीं होता है।
इसका उपयोग विशेष कर अर्श (बवासीर) के रोग में किया जाता है। बवासीर बहुत ही परेशान करने वाली बीमारी है इससे मस्सों में दर्द बहुत जोर का होता है इस दर्द को शान्त करने के लिये अर्शकुठार, बोलबद्ध रस, कामदुधा रस, सूरण कटक आदि के सेवन से किसी एक दवा का सेवन करने के उपरान्त जब दर्द का जोर कम हो, तब अभयारिष्ट के सेवन से बहुत फायदा होता है, क्योंकि बवासीर में दस्त कब्ज हो जाना प्रधान लक्षण है।
दस्त कब्ज होने के कारण जोर लगाने (कीछने) से और भी दर्द होता है, उस कब्जिगत को यह बहुत शीघ्र दूर कर देता है साथ सूजन को भी दूर करता है।
बवासीर का सन्देह होते ही अथवा प्रारम्भिक अवस्था में (दर्द होने से पहले ही) यदि अभयारिष्ट का सेवन करा दिया जाय, तो यह रोग आगे न बढ़ कर नहीं रुक जाता है।
उदर रोग में मन्दाग्नि बहुत भयंकर और दुखदायी रोग है। यदि मन्दाग्नि के कारण मल- संचय होकर दस्त कब्ज (बद्धकोष्ठ) हो गया हो, तो इच्छाभेदी, अश्वकुंबकी आदि दवा का उपयोग करना चाहिये, परन्तु इनमें जमालगोटे का मिश्रण होने से कुछ हानि होने का डर रहता है। अतएव, अभयारिष्ट में बराबर कुमार्यासव मिला कर लेने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। यह मल और मूत्र को साफ करके अग्नि (जठराग्नि) को बढ़ाता, उदर के रोगों को नष्ट करता और पाचक रस की उत्पत्ति कर अप को पचाने की शक्ति पैदा करता है।
अमृतारिष्ट
क्वाथ द्रव्य
गिलोय 5 सेर के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें और दशमूल (बेल की छाल, अरणी, अरलू की छाल, गन्मारी की छाल, पाडल की छाल, शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी टेली, गोखरू) 5 सेर लेकर जीकुट चूर्ण कर लें।
क्याथ
इन्हें 2 मन 22 सेर 32 तोला पानी में डाल कर पकायें, 211 सेर 8 तोला पानी शेष रहने पर उतार कर छान लें।
प्रक्षेप द्रव्य
इस क्वाथ में 5 सेर गुड़ घोल दें, बाद में धायफूल 32 तोला, सफेद जीरा 64 तोला, पित्तपापड़ा 8 तोला, सप्तपर्णं की छाल, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, नागकेशर, कुटकी, अतीस, इन्द्रजी – प्रत्येक 4-4 तोला लेकर चूर्ण बना, क्वाथ में डाल दें।
सन्धान
इसे चिकने पात्र में डाल कर सन्धान कर दें, 1 मास बाद छान कर काम में लायें।
वक्तव्य
इस रोग में द्रवद्वैगुण्य परिभाषा से जल का परिमाण द्विगुण लिया है एवं मूल पाठ में धायफूल न होने से सन्धान क्रिया ठीक नहीं हो पाती है अतः हमने 32 तोला धायफूल बढ़ाए हैं। इस प्रकार बनाने से उत्तम बनता है ऐसा हमारा अनुभव है।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला बराबर जल मिला, भोजन के बाद दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
अमृतारिष्ट के सेवन करने से पुराना ऊपर आने से हुई निर्बलता, विषम ज्वर (सतत, सन्तत, एक दिन, दो दिन तीन दिन के बाद में आने वाला ज्वर), रस-रक्तादि धातुगत ज्वर, प्लीहा और यकृतजन्य ज्वर, पाण्डु कामला तथा बार-बार छूट कर होने वाले ज्वर दूर होते हैं।
अधिक दिन तक जाड़ा देकर आने वाले ज्वरों में प्लीहा और यकृत् की वृद्धि हो जाने से ज्वर का प्रकोप विशेष हो जाता है और मन्दाग्नि, भूख न लगना, शरीर में रक्त की कमी, दुर्बलता आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसी अवस्था में अमृतारिष्ट अमृत के समान गुण करता है। इसके साथ में सुदर्शन चूर्ण का भी उपयोग करना चाहिए, इससे रोगी बहुत शीघ्र नीरोग हो जाता है।
अमृतारिष्ट में गुर्व की प्रधानता है, अतः इसके गुण भी इसमें अधिक पाये जाते हैं, इसलिये मूत्राशय की कमजोरी के कारण यदि बार-बार पेशाब करने की शिकायत हो गयी हो, तो यह उसे भी दूर करता है सूजाक और उपदंश रोगों में भी यह सौम्य तथा रक्त शोधक गुण-युक्त होने के कारण दिया जाता है।
जीर्णज्वर (पुराना ज्वर) के कारण मन्दाग्नि हो जाती, जिससे रंस रक्तादि धातुएँ ठीक और उचित परिमाण (मात्रा) में नहीं बनती हैं अतएव शरीर में रक्त की कमी हो जाने के कारण देह पीली (पाण्डु रंग की) हो जाती है यकृत् प्लीहा की वृद्धि हो जाने से पित्त का खाव अच्छी तरह नहीं होता, अतएव पेट में दर्द, अन्न नहीं पचना, पेट में आवाज होना, वायु का संचार नहीं होना आदि उपद्रव हो जाते हैं, पतले दस्त भी आने लग जाते हैं।
ऐसी हालत में अमृतारिष्ट के सेवन से शीघ्र लाभ देखा गया है, क्योंकि इसका प्रभाव प्रथम आमाशय पर होता है यह पाचक पित्त को उत्तेजित कर पाचन-क्रिया को ठीक करता तथा भूख की वृद्धि करता है। साथ ही रंजक पित्त को भी जागृत कर रक्त कणों की वृद्धि करते हुए शरीर की कान्ति अच्छी बना देता और यकृत, प्लीहा की वृद्धि को रोक कर उसे नीरोग बना देता है।
प्रसूत ज्वर में इसका उपयोग किया जाता हैं यद्यपि प्रसूत ज्वर में दशमूलारिष्ट का उपयोग करने से अच्छा लाभ होता है, फिर भी पित्तप्रधान प्रसूतज्वर में जिसमें हाथ-पांव में जलन हो, पेट में वाह, प्यास ज्यादा लगे, कभी-कभी चक्कर आने लगे, पर की गर्मी बढ़ी हुई रहती हो, शीतल पदार्थ से विशेष प्रेम हो, ऐसी दशा में इसके उपयोग से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि यह पित्तशामक और पौष्टिक भी है। ज्वरग्नता तो इसका प्रधान गुण है। इसके साथ में सूतिकाविनोद रस या प्रतापलंकेश्वर रस आदि का भी यदि उपयोग किया जाय, तो यह विशेष गुणदायक हो जाता है सौम्य होने से रसरक्तादि धातुओं में किसी भी कारण से बढ़ी हुई उष्णता को शमन करता है एवं जीर्णज्वर को तो जड़ से ही मिटा देता है।
अर्जुनारिष्ट
क्याथ द्रव्य
अर्जुन छाल 6000 ग्राम के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें और मुनक्का 3000 ग्राम, मधुप पुष्प 1200 ग्राम और जल 61440 मि. लि. में डालकर पकायें, जल 15360 मि. लि. शेष रहने पर उतार कर छान लें।
प्रक्षेप द्रव्य
इस क्वाथ में चाय फूल 1200 ग्राम और गुड़ 6000 ग्राम डाल दें।
सन्धान
इसे चिकने पात्र में डालकर सन्धान कर दें एक माह बाद छानकर काम में लायें।
गुण और उपयोग
शरीर में वायु अधिक हो जाने के कारण हृदय धड़कता है(Palpitations) और शरीर में पसीना आने लगता है, मुँह सूख जाता है, नींद कम आती है, बेचैनी रहती है(Anxiety), शरीर में रक्त संचार ठीक से नहीं होता, मन घबराता है(Panic Attacks) और रोगी को मृत्यु भय सताने लगता है(Fear of Death) ऐसी स्थिति में वैद्यनाथ अर्जुनारिष्ट का व्यवहार बहुत ही लाभदायक सिद्ध होता है। रोगी शीघ्र अपने को आरोग्य समझता है। — भैषज्यरत्नावली
अरविन्दासव
कमल के फूल, खस, गम्भारी फल, नील कमल, मंजीठ, इलायची, खरैटी, जटामांसी, मोथा, अनन्तमूल, हरें, बहेड़ा, बच, आँवला, कचूर, कालीनिशोथ, नीली-मूल, परवल के पत्ते, पित्तपापड़ा, अर्जुन की छाल, मुलेठी, महुए के फूल, मुरामांसी- प्रत्येक को 4-4 तोला लेकर मोटा चूर्ण बना लें और मुनक्का 1 सेर तथा धाय के फूल 34 तोला लें।
सन्धान
चिकने मिट्टी के पात्र में 2511 सेर 8 तोला जल डाल कर उसमें 10 सेर उत्तम चीनी और शहद (अभाव में पुराना गुड़ 5 सेर डाल कर घोल दें। सन्धान-क्रिया चालू होने के पश्चात् उपरोक्त चूर्ण, मुनक्का, धायफूल मिला दें। फिर 1 मास तक (तैयार होने तक) रखा रहने दें। पश्चात् छानकर स्वच्छ काठ की टंकी, इमरतबान या बोतलों में भरकर डाट (ढक्कन लगाकर रख दें। भैर से किंचित् परिवर्तित
मात्रा और अनुपान
छोटे बच्चों को 2 से 4 माशे तक और बड़ों को 1 से 2 तोला तक बराबर जल के साथ देना चाहिए।
गुण और उपयोग
अरविन्दासव बच्चों के सब रोगों को दूर करता, बल और अग्नि को बढ़ाता एवं शरीर को पुष्ट करता है यह आयु बढ़ाने वाला तथा बालग्रहों को दूर करने वाला है।
अरविन्दासव बच्चों को कमल की तरह अच्छा, कान्तिमान और प्रसन्न बना देता है। बच्चों के सब रोगों में इसका उपयोग किया जाता है, विशेषकर यह सूखा रोग (बालशोष) में बहुत फायदा करता है। यह रोग माता के दूध की खराबी के कारण होता है इसमें पहले कफ की वृद्धि, ज्वर, खाँसी, पतले दस्त होना आदि उपद्रव होने के बाद बच्चा धीरे-धीरे सूखने लगता है। इसके चूतड़ की खाल लटक जाती है, शरीर की हड्डी उभर आती है और कान्ति नष्ट हो जाती है।
हड्डियां इतनी कमजोर हो जाती हैं कि बच्चा खड़ा नहीं हो सकता, चल-फिर भी नहीं सकता, बार-बार रोता ही रहता है तथा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। यह अवस्था नाजुक बच्चों के लिये बहुत कष्टकर होती है ऐसी हालत में अरविन्दासव के उपयोग से अच्छा लाभ होता है, किन्तु इसके साथ-साथ प्रवाल (चन्द्रपुटी) भस्म और स्वर्ण मालती बसन्त का मिश्रण देते रहना उत्तम है, क्योंकि यह हड्डी को कड़ा कर देता है और हृदय को ताकत पहुँचाता है। इससे रक्त की वृद्धि जल्दी हो जाती है, जिससे शरीर कान्तिमान हो जाता है, साथ ही उपरोक्त उपद्रव भी क्रमशः शान्त हो जाते हैं।
पित्त की विकृति और मूत्र में जलन, बूंद-बूंद पेशाब होना, पेशाब करते समय दर्द, जलन आदि उपद्रव होना, स्त्रियों के प्रदर रोग, श्वेत प्रदर आदि रोगों में भी इसका उपयोग किया जाता है।
वक्तव्य
इस योग में अन्य के मूल पाठानुसार चीनी 5 सेर और शहद 211 सेर है, किन्तु इतना ही डालकर बनाने में सब खट्टा बनता है अतः चीनी 10 सेर और शहद 5 सेर किया गया है। इससे यह उत्तम बनता है। कुछ लोग 'काश्मर्य' शब्द का अर्थ केशर भी करते हैं, किन्तु यवार्थ अर्थ गम्भारीफल ही होता है।
अशोकारिष्ट
अशोक की छाल 5 सेर को जौकुट कर अच्छे ताँबे या पीतल के कलईदार बर्तन में 1 मन 11 सेर 16 तोला जल में डाल कर मन्दाग्नि से क्वाथ बनायें जब चतुर्थांश जल 12111 सेर 4 तोला बाकी रहे, तब उतार कर कपड़े से छान लें ठण्डा हो जाने पर उसमें 10 सेर गुड़ मिलावें पश्चात् भांड या उत्तम काठ की टंकी में डालकर उसमें धाम के फूल 64 तोला, स्याह जीरा, नागरमोथा, सोंठ, दारूहल्दी, नीलोफर, हरड़, बहेड़ा, आमला, आम की मींगी, सफेद जीरा, वासक मूल और सफेद चन्दन प्रत्येक का चूर्ण 4-4 तोला मिलाकर यथाविधि सन्धान करके 1 माह के बाद तैयार होने पर) छान कर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला समभाग जल मिलाकर भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
स्त्रियों को होने वाले प्रमुख रोग रक्त एवं श्वेत प्रदर, पीड़ितार्तव, पाण्डु, गर्भाशय व योनि भ्रंश, डिम्बकोष प्रदाह, हिस्टीरिया, वन्ध्यापन तथा ज्वर, रक्तपित्त, अर्श, मन्दाग्नि, सूजन, अरुचि इत्यादि रोगों को नष्ट करता है।
अशोकारिष्ट में अशोक की छाल की ही प्रधानता है अशोक की कई जातियां होती हैं। इनमें एक जाति के पत्ते रामफल के समान, फूल नारंगी के रंग के होते हैं, जो बसन्त ऋतु में खिलते हैं, इसको लैटिन में "जौनेसिया अशोक" कहते हैं, और यही असली अशोक है। अशोकारिष्ट के लिये इसी अशोक की छाल लेनी चाहिए। यद्यपि शास्त्र में "अशोकस्य तुलामेकां चदुर्द्रोणे जले पचेत्" इतना ही लिखा है, वहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि किस जाति के अशोक की छाल लें। परन्तु अनुभव से ज्ञात हुआ है कि उपरोक्त अशोक छाल द्वारा निर्मित अशोकारिष्ट जितना गुणकारक होता है, उतना अन्य जाति के अशोक की छाल द्वारा निर्मित अशोकारिष्ट गुणकारी नहीं होता है। उपरोक्त अशोक बंगाल में बहुत मिलता है। अस्तु
अशोक मधुर, शीतल, अस्थि को जोड़नेवाला, सुगन्धित, कृमि नाशक, कसैला, देह की कान्ति बढ़ाने वाला, स्त्रियों के रोग दूर करने वाला, मलशोधक, पित्त, दाह, श्रम, उदररोग, शूल, विष, बवासीर, अपच और रक्त रोगनाशक है।
डॉक्टरों ने भी अशोक का रासायनिक विश्लेषण करके देखा है। इसके अन्दर का अलकोहोलिक एक्सट्रेक्ट गरम पानी के अन्दर घुलने वाला है इसमें टेनिन की मात्रा काफी पायी गयी है और एक इस प्रकार का प्राणिवर्ग से सम्बन्ध रखने वाला पदार्थ पाया गया, जिसमें लोहे की मात्रा काफी थी इसमें अलकेलाइड और एसेन्शियल आयल की मात्रा बिल्कुल नहीं पायी गयी अशोक के विषय में प्रायः प्रसिद्ध प्रसिद्ध डॉक्टरों का मत है कि अशोक की छाल बहुत सख्त आती है, क्योंकि उसमें टेनिन एसिड रहता है।
वास्तव में अशोकारिष्ट स्त्रियों का परम मित्र है, इसका कार्य गर्भाशय को बलवान बनाना होता है। गर्भाशय की शिथिलता से उत्पन्न होने वाले अत्यार्तव विकार में इसका उत्तम उपयोग होता है, गर्भाशय के भीतर के आवरण में विकृति, बीजवाहिनियों की विकृति, गर्भाशय के मुख पर योनि मार्ग में या गर्भाशय के भीतर या बाहर व्रण हो जाना आदि कारणों से अत्यार्तव रोग उत्पन्न होता है। इसमें अशोकारिष्ट के उपयोग से अच्छा लाभ होता है।
कितनी ही स्वियों को मासिक धर्म आने पर उदर पीड़ा की आदत पड़ जाती है, जिसे पीड़ितार्तल का कष्टार्तव कहते हैं— इस रोग में मुख्यतः बीजवाहिनी और बीजाशय की विकृति कारण होती है। कितनी ही रुग्णाओं को तीव्र रूप में पीड़ा होती है, कमर में भयंकर दर्द, सिर-दर्द, खनन आदि लक्षण होते हैं। इस विकार में अशोकारिष्ट उत्तम कार्य करता है।
प्रदर रोग
मद्यपान, अजीर्ण, गर्भस्त्राव, गर्भपात, अति मैथुन, कमजोरी में परिश्रम, चिन्ता, अधिक उपवास, गुप्तानों का आपात दिवाशयन आदि से स्वियों का पित्त दूषित होकर पतला और अम्लरसप्रधान हो जाता है वह खून को भी वैसा बना डालता है। फलतः शरीर में दर्द, कटिशूल, सिर दर्द कब्ज तथा बेचैनी आरम्भ हो जाती है। साथ ही योनिद्वार से चिकना, लस्सेदार, सफेदी लिए चावल के धोवन के समान, पीला नीला काला, रूक्ष, लाल, झागदार मांस के चोचन के समान रक्त गिरने लगता है। रोग पुराना हो जाने पर उसमें दुर्गन्ध निकलने लगती है और रक्तस्राव मज्जामिश्रित भी हो जाता है ऐसा हो जाता है कि चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम खून जारी रहता है, कोई अच्छा कपड़ा पहनना कठिन हो जाता है।
कभी- कभी खून के बड़े-बड़े जमे हुए, कलेजे के समान टुकड़े गिरने लगते हैं। इस अवस्था में खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना सब मुश्किल हो जाता है। यह हालत लगातार महीनों तक चलती है। कभी-कभी किसी उपचार या अधिक रक्ताभाव से कुछ दिन के लिए खून का वेग बन्द भी हो जाता है परन्तु फिर वही हालत हो जाती है इस प्रकार तमाम शरीर का रक्त गिर जाता और शरीर बिल्कुल रक्तहीन हो जाता है। पाचन शक्ति बिल्कुल खराब हो जाती है, 'अतः नया रक्त भी नहीं बन पाता है अशोकारिष्ट उपरोक्त उपद्रयों को दूर कर शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए अपूर्व गुणकारी दवा है।
इसी तरह श्वेत प्रदर में रक्त की जगह सफेद, गाढ़ा और लस्सेदार पानी गिरता है। इसकी उत्पत्ति के दो स्थान हैं-योनि की श्लैष्मिक कला तथा गर्भाशय की भीतरी दीवाल, यह रस इसी कला या त्वचा में बनता और निकलता रहता है। घोड़ा-बहुत रस तो यह त्वचा बनाती ही रहती है, जो योनि को तर रखने के लिए आवश्यक भी है। किन्तु अधिक सहवास के. कारण इस स्थान में विकृति पैदा हो जाने से यह रस अधिकता से बनने लगता है, और फिर योनिमार्ग से सदा सफेद, लस्सेदार पदार्थ गिरता रहता है। पहले तो गन्धरहित, फिर दुर्गन्धयुक्त स्राव होने लगता है, और पीड़ा भी धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। इस रोग में भी वे सभी उपद्रव होते हैं, जो रक्त प्रदर में होते हैं अशोकारिष्ट का सेवन इन उपद्रवों को दूर करने के लिए बहुत प्रसिद्ध दवा है।
पीड़ितार्तव में मन्द ज्वर होता है। मासिक धर्म बड़े कष्ट से और कम आता है, कमर, पीठ, पाव आदि सभी अंगों में बहुत दर्द होता है। पेशाब भी बड़े कष्ट से उतरता है। इस रोग में सब से अधिक पीड़ा बस्ति स्थान (पेड़) में होती है इससे मुक्त होने के लिए अशोकारिष्ट अवश्य सेवन करना चाहिए।
गर्भाशय भ्रंश या योनि भ्रंश में
मैथुन क्रिया का ज्ञान नहीं रहने के कारण या कामोन्मादवश मूर्खतापूर्ण ढंग से मैथुन करने पर गर्भाशय तथा योनि दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं। गर्भाशय तो भीतर ही टेढ़ा होकर नाना प्रकार की पीड़ा का कारण बनता है और योनि बाहर निकल आती है या बार-बार बाहर-भीतर आती-जाती रहती है। इसके साथ पेडू और कमर में दर्द होना, पेशाब करने में दर्द होना, श्वेत प्रदर का जोर होना तथा मासिक धर्म कम होना या बिल्कुल बन्द हो जाना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी स्थिति में अशोकारिष्ट का तो सेवन करावें ही साथ में चन्दनादि चूर्ण में त्रिवंग भस्म मिला कर सुबह-शाम दूध के साथ देने से शीघ्र लाभ होता है।
डिम्बकोष प्रदाह
यह रोग ऋतुकाल में पुरुष के साथ संगम करने से होता है, व्यभिचारिणी और वेश्याओं को यह रोग अधिक होता है इसमें पीठ और पेट में दर्द होना, वमन होना, रोग पुराना हो जाने पर योनि से पीव निकलना आदि लक्षण होते हैं। स्वियों के लिये यह रोग बहुत त्रासदायक है। इसमें प्रातः सायं चन्द्रप्रभावटी 1-1 गोली तथा भोजनोत्तर अशोकारिष्ट बराबर जल मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
हिस्टीरिया में
स्नायुसमूह की उग्रता से यह रोग पैदा होता है, रोग पैदा होने के पहले छाती में दर्द तथा शरीर और मन में ग्लानि उत्पन्न होती है, ऐसे देखने में तो यह रोग मिरगी जैसा ही प्रतीत होता है, परन्तु इसमें रोगिणी के मुंह से झाग नहीं आते कभी-कभी इस रोग से पेट के नीचे एक गोला-सा उठ कर ऊपर की ओर आ जाता है गर्भाशय म्नन्धी किसी भी रोग से यह रोग उत्पन्न हो सकता है। यह रोग बड़ा दुष्ट और नवयुवतियों को तंग करने वाला है अशोकारिष्ट के सेवन से उपरोक्त उपद्रव दूर हो जाते हैं।
पाण्डुरोग
स्वियों के रक्तप्रदर आदि कारणों से रक्त का क्षय होकर उनका शरीर पीताभ रंग का हो जाता है। इसमें शारीरिक शक्ति का क्रमशः ह्रास होने लगता है। आलस्य और निद्रा हरदम घेरे रहती है, बोड़ा भी परिश्रम करने से भ्रम (चक्कर आने लगता है भूख नहीं लगती। यदि कुछ खा भी लें, तो मन्दाग्नि के कारण हजम नहीं हो पाता, जिससे पेट भारी बना रहता है। कदाचित् तरुणावस्था में यह रोग हुआ, तो यौवन का विकास ही रुक जाता है और स्त्री अपनी जिन्दगी से निराश रहने लग जाती है। इस दुष्ट रोग का कारण बहुमैथुन या बाल-विवाह है। इस रोग में प्रातः सायं नवायस लौह और भोजनोपरान्त अशोकारिष्ट में समभाग लौहासव तथा बराबर जल मिलाकर देने से आशातीत लाभ होता है।
ऊर्ध्वगत रक्तपित्त के लिए अशोकारिष्ट अत्युत्तम औषध है रक्तार्श में भी विशेषतः वेदना या जलन न होने पर अशोकारिष्ट के सेवन से लाभ होता है।
अश्वगन्धारिष्ट
क्वाथ द्रव्य
असगंध 21 सेर, मुसली 80 तोला मंजीठ, हर्रे छाल, हल्दी, दारु हल्दी, मुलेठी, रास्ना, विदारी कन्द, अर्जुन छाल, नागरमोथा, निशोथ 40-40 तोला प्रत्येक, काली और सफेद दोनों सारिवा (अनन्तमूल और श्यामलता) सफेद और लाल चन्दन, बच चित्रकमूल - प्रत्येक 32-32 तोला लेकर सबको मोटा चूर्ण कर लें।
क्वाथ
इन सबको 5 मन 4 सेर 12 छटाँक 4 तोला पानी में डाल कर पकायें अष्टमांश (25 सेर 9 छटाँक 3 तोला) पानी शेष रहने पर छान लें।
प्रक्षेप द्रव्य
इसमें असली शहद (अभाव में पुराना गुड़) 15 सेर, धाय के फूल 64 तोला, सौंठ, मिर्च, पीपल मिलाकर 8 तोला, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात मिलाकर 16 तोला, फूलप्रियंगु 16 तोला और नागकेशर 8 तोला मिलाकर इनका चूर्ण कर डाल दें।
संधान
इन सब को चिकने पात्र में डाल कर सन्धान करके 1 मास तक रखा रहने दें। बाद में छान कर काठ की टंकी, इमरतवान या बोतलों में भरकर डाट (ढक्कन लगाकर रख दें।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला बराबर जल मिला कर दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से मूर्च्छा, स्त्रियों का हिस्टीरिया रोग, दिल की धड़कन(Palpitations), हौलदिल (बेचैनी, Anxiety), चित्त की घबड़ाहट, चित्तभ्रम, याददाश्त की कमी, बहुमूत्र, मन्दाग्नि, बवासीर, कब्जियत, सिर-दर्द, काम में चित्त न लगना, स्नायु दौर्बल्य, हर प्रकार की कमजोरी, बुढ़ापे की शिथिलता आदि रोग नष्ट होकर बल, वीर्य, कान्ति एवं शक्ति की वृद्धि होती है।
प्रसूता स्वियों की कमजोरी इससे बहुत शीघ्र दूर हो जाती है दिमाग की विकृति या कमजोरी दूर करने के लिये अब्रक भस्म प्रातः सायं मधु के साथ और भोजन के बाद यह दवा लेने से विशेष लाभ होता है।
दिमागी मेहनत करने वालों को यह आसव हमेशा लेना चाहिए। यह मानसिक थकावट को दूर करता और स्नायुओं में एक तरह की नवीन स्फूर्ति पैदा कर दिमाग को तरोताजा बना देता है। अतएव, थकावट नहीं मालूम होती है दिमाग को पुष्ट करने की यह एक ही दवा है।
वक्तव्य
इस योग में क्वाथ द्रव्यों की अधिकता के कारण द्रव द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार जल का परिमाण द्विगुण कर दिया है, यद्यपि मधु भी द्रव पदार्थ है, परन्तु इसका परिमाण पहले ही ठीक होने से द्विगुण नहीं किया गया है।
अहिफेनासव
अफीम 16 तोला, नागरमोथा, जायफल, इन्द्रजी, छोटी इलायची के बीज प्रत्येक 4-4 तोला लें।
सन्धान
चीनी मिट्टी या कांच के पात्र में 5 सेर महुए की देशी शराब डाल दें, इसमें पहले अफीम को घोल कर, बाद में शेष चारों वस्तुओं के चूर्ण डाल करके मुख बन्द कर 1 मास तक रखने के बाद छान लें।
नोट
इसके पात्र को धूप में रखने से 15 दिन में ही अच्छा सुन्धान हो जाता है और विशेष करता है। प्रायः इसी तरह से वैद्य लोग इसका निर्माण करते हैं।
मात्रा और अनुपान
2 से 10 बूंद, चीनी या बताशे अथवा पानी में डाल कर पीना चाहिए।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से भयंकर अतिसार और हैजा का नाश होता है इस आसव का उपयोग वात और कफ जन्य विकारों में अधिक किया जाता है। वात जन्य अतिसार में जब किसी दवा से लाभ न हो, तो इसका उपयोग करना चाहिए। इससे अवश्य लाभ होगा।
इसी तरह हैजा की भयंकर अवस्था में शरीर ठण्डा हो जाना, नाड़ी अपने स्थान से छूटती हुई दिखाई पड़ना, बेहोशी, सम्पूर्ण शरीर में ऐंठन, दाँत बंध जाना, दस्त बहुत पतला और दुर्गन्धयुक्त होना, अनपच दस्त होना, वमन बड़े जोर के साथ होना, पेशाब बन्द हो जाना, पड़े-पड़े ही दस्त हो जाना आदि उपद्रव होने पर अहिफेनासव चीनी या बताशे अथवा गर्म पानी में मिलाकर 15-15 मिनट पर बराबर देते रहें और वायु शमन के लिए तथा खून गर्मी लाने के लिए हाथ-पाँव की मालिश अजवायन की पोटली से करें इससे बहुत शीघ्र लाभ होता है।
इसके साथ ही हृदय में कुछ ताकत बनी रहने के लिए मकरध्वज का भी उपयोग तुलसी पत्र स्वरस और मधु के साथ करना चाहिए। इससे रक्त में गर्मी आकर रक्त का संचालन होने लगता है, साथ ही हृदय और नाड़ी की गति में भी सुधार होता है।
उशीरासव
खस, सुगंधावाला, कमल, गम्भारीफल, नीलोफर, फूल प्रियंगु, पद्माख, लोध, मंजीठ, जवासा, पाठा, चिरायता, बड़ की छाल, गूलर की छाल, कचूर, पित्तपापड़ा, सफेद कमल, पटोल पत्र, कचनार की छाल, जामुन की छाल, मोरस प्रत्येक का चूर्ण 4-4 तोला, मुनक्का 90 तोला और चाय के फूल 64 तोला लें।
सन्धान
इसका एक मटके में या काठ अथवा चीनी मिट्टी के पात्र में डाल कर उसमें 2511 सेर 8 तोला जल, देशी खांड 10 सेर, शहद (अभाव में पुराना गुड़) 211 सेर मिलाकर उसी मटके में डाल दें, और सन्धान कर 1 मास तक छोड़ दें, बाद में तैयार हो जाने पर छान कर रख लें।
वक्तव्य
भै०र० के मूलपाठानुसार चीनी का परिमाण कम रहने से आसव खट्टा बनता है, अतः चीनी का परिमाण दुगुना किया गया है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से नाक, कान, आँखें मल-मूत्र द्वार से होने वाला रक्तस्त्राव, खूनी बवासीर, स्वप्नदोष, पेशाब में धातु जाना, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात उष्णवात प्रमेह, बहुमूत्र, स्वियों के रोग, श्वेत और रक्तप्रदर, ऋतुकाल या प्रसव के बाद में अत्यन्त रक्तस्राव, गर्भाशय-दोष, पेट का दर्द, रजःकृच्छ्रता, पाण्डु, कुष्ठ, कृमि, क्षय आदि रोगों का नाश होता है इसका विशेष उपयोग- रक्तस्त्राव, अर्श, रक्तप्रदर, ऋतुकाल में अत्यन्त रक्त जाना, पेट में दर्द होना आदि रोगों में होता है।
शुक्रविकार में इसके साथ चन्द्रप्रभा वटी का उपयोग करने से बहुत लाभ होता है।
उपदंश, कुष्ठविकार आदि रोगों में पित्त की विशेषता के कारण अथवा अधिक तेज दवा के सेवन से शरीर में गर्मी ज्यादे बढ़ गयी हो या वीर्य पतला होकर पेशाब के रास्ते निकलता हो, तो इस आसव के साथ गोक्षुरादि गूगल को उपयोग करना चाहिए।
यह आसव सौम्य (ठंडा) होने की वजह से गर्भिणी स्वी को भी दे सकते हैं। अकाल प्रसव - असमय में गर्भपात होना अथवा इसका डर लगा रहना या बच्चा होने के बाद अधिक खून गिरना आदि उपद्रव में 1 तोला उशीरासव बराबर जल और शहद मिलाकर लेने से बहुत फायदा होता है और यह रक्त शोधक, गर्मी को शान्त करने वाला और वीर्यवर्द्धक है।
एलाद्यरिष्ट
छोटी इलायची 200 तोला वासकमूल-छाल 80 तोला मंजीठ, कुड़ा की छाल, दन्ती मूल, गिलोय, हल्दी, दारूहल्दी, रास्ना, खस, मुलेठी, शिरीष की छाल, खादेरकाष्ठ, अर्जुन की छाल, चिरायता, नीम की अन्तर- छाल, चित्रकमूल-छाल, कूठ, सौंफ- प्रत्येक 40-40 तोला लेकर सबको एकत्र मिला जौकुट चूर्ण कर लें, फिर इस चूर्ण को 205 सेर जल में डालकर पकायें जब अष्टमांश (25 सेर 10 छटॉक) जल शेष रहे तो उतार कर छान लें। पश्चात् इस क्वाथ में धाय के फूल 64 तोला, मधु 3 तोला (15 सेर), दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेशर, सौंठ, काली मिर्च, पीपल, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, जटामांसी, मुरामांसी, नागरमोथा, छरीला, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा प्रत्येक 4-4 तोला लेकर जौकुट चूर्ण कर लें इन सबको एक मिट्टी के पात्र में भर कर दृढ़ सन्धि बन्धन कर एक मास तक सन्धान करें। एक माह पश्चात् निकाल लें और छान कर सुरक्षित कर लें।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक भोजन के बाद दिन में दो बार समान भाग जल मिलाकर लें।
गुण और उपयोग
इस अरिष्ट का सेवन करने से विसर्प, मसूरिका (चेचक), रोमान्तिका, शीतपित्त, विस्फोट (फोडे), विषमज्वर, नाही व्रण (नासूर), दुष्टव्रण, दारुण कासे, श्वास, भगन्दर, उपवंश और प्रमेह पीड़िका रोग आदि समूल नष्ट होते हैं।
यह अरिष्ट शीत वीर्य, मूत्रल, दीपन, पाचन, रक्त प्रसादन, विषघ्न और बल्य है। इसके प्रयोग से मूत्रोत्पत्ति कुछ अधिक होती है तथा रक्त में संचित विष मूत्र के साथ बाहर निकल जाता है और यकृत् से पित्त-साव की वृद्धि होकर अन्तःस्थित आमविष और कीटाणुओं को नष्ट करता है।
विसर्प, मसूरिका, रोमान्तिका, शीतपित्त, प्रमेह पीड़िका आदि अनेक व्याधियों की उत्पत्ति रक्त में कीटाणु या विष-वृद्धि होने पर होती है साथ ही इन रोगों की वृद्धि भी विष प्रकोप से ही होती है यह अरिष्ट इन रोगों की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाले मूल विष को ही बाहर निकाल देता है और नवीन उत्पत्ति को बन्द करता है। परिणामतः समूल रोग नष्ट हो जाते हैं।
एलाचरिष्ट के उपयोग से ज्वरजनित और धातु शोष-जनित दाह का शमन होता है। मसूरिका रोग में इसके उपयोग से नेत्रों का संरक्षण होता है और बेचैनी नष्ट होती है मसूरिका की सभी अवस्थाओं में आबाल-वृद्ध के लिए समान रूप से हितकारी है इस अरिष्ट का मुख्य औषधों के साथ अनुपान रूप से भी प्रयोग किया जाता है जिनको उपदंश या सूजाक होते हैं, उनमें से कितने ही व्यक्तियों के रक्त में लीन विष कुछ अंश में रह जाता है, फिर उस विष के कारण उनकी सन्तानों के शरीर में भी कुछ-न-कुछ विष के उपद्रव होते रहते हैं।
इस प्रकार के उपदंश पीड़ित माता-पिता की सन्तानों और अत्यन्त निर्बल बच्चों को शीतला हो जाने पर विशेष सावधानी न रखी जाय तो रोग भयंकर रूप धारण कर लेता है, अतः उन रोगियों को शीतला, रोमान्तिका या विसर्प आदि रोग प्रारम्भ होते ही एलाचरिष्ट का नियमित सेवन करना चाहिए। इससे सभी प्रमुख उपद्रव नष्ट होकर रोगविष सरलता से नष्ट हो जाता है।
कनकारिष्ट ( रक्तशोधक )
क्वाथ द्रव्य
खैरसार 8 सेर के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें और 64 सेर पानी में पकायें 16 सेर पानी शेष रहने पर छान कर इसे मिट्टी या चीनी के पात्र में डाल दें।
प्रक्षेप द्रव्य
इसमें हरें, बहेड़ा, आँवला, सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी, निर्मलीबीज, दालचीनी, बाकुची, गिलोय और वायविडंग प्रत्येक 5-5 तोला लेकर चूर्ण बनायें चाय के फूल 40 तोला लें।
सन्धान
पहले खदिर- क्वाथ में 1211 सेर उत्तम मधु को घोल दें। बाद में सन्धान क्रिया होने पर प्रक्षेप द्रव्य डालकर यथाविधि सन्धान करें और एक माह बाद (तैयार होने पर) छान कर रख लें।
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर भोजन के बाद दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसे प्रातःकाल बिना कुछ खाये ही सेवन करने से पुराना कुष्ठ एक मास में शान्त हो जाता है। यह अरिष्ट रक्त शोधक है। अतएव इसका प्रयोग रक्त विकार में करने से विशेष लाभ होता है। प्रमेह पीड़िका, शरीर में छोटी-छोटी फुन्सियाँ हो जाना, खून की विकृति के कारण त्वचा रूक्ष और मलिन हो जाना, शोथ, खाँसी, श्वास, बवासीर, भगन्दर आदि रोगों में भी इसका उपयोग किया जाता है।
कनकासव
शाखा, जड़, पत्ते और फल सहित सूखे धतूरे को कूटकर 16 तोला ( गीला हो तो 32 तोला) लें, बासा की जड़ 16 तोला, मुलेठी, पीपल, छोटी कटेली, नागकेशर, सोंठ, भारङ्गी और तालीस पत्र — प्रत्येक 8-8 तोला लेकर मोटा चूर्ण कर लें। धाय के फूल 64 तोला, मुनक्का 80 तोला लें ।
सन्धान
उपरोक्त चीजों को पात्र में रखें। फिर 25।। सेर 8 तोला जल देशी खांड या चीनी 10 सेर, मधु (अभाव में पुराना गुड़ ) 211 सेर घोलकर सन्धान कर दें । सन्धान क्रिया चालू होने पर उपरोक्त चूर्णादि मिला दें। एक मास बाद तैयार होने पर छान कर रख लें। — भै. र. से किंचित् परिवर्तित
वक्तव्य
भै० र० मूल पाठानुसार चीनी का परिमाण कम रहने से खट्टा बनता है, अतः चीनी द्विगुण की गयी है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से श्वास, कास, यक्ष्मा, उरःक्षत, क्षय, पुराना ज्वर, रक्त-पित्त आदि शान्त हो जाते हैं। कास- श्वास की उग्रावस्था में इसका उपयोग अधिकतर किया जाता है, क्योंकि श्वासनलिका की श्लैष्मिक त्वचा को शिथिल कर के यह दमे की पीड़ा को दूर करता है। इसीलिए श्वासनलिका में संकोच - विकास प्रधान रोग में इसका उपयोग विशेषतया सफल होता है। श्वासनली की सूजन, दमा और फेफड़ों के रोगों में इसका बहुत उपयोग किया जाता है।
इससे कफ ढीला होकर गिरने लगता है। श्वासनली की संकुचित होने की शक्ति कम हो जाती है और दमे का वेग बन्द हो जाता है।
कर्पूरसाव
उत्तम देशी मद्य 5 सेर, उत्तम कर्पूर 32 तोला और छोटी इलायची के बीज, नागरमोथा, सोंठ, अजवायन, काली मिर्च - प्रत्येक 4-4 तोला लेकर चूर्ण बनाकर, एक बर्तन में डाल दें और मुख बन्द कर 1 मास तक छोड़ दें। बाद में छानकर रख लें। - भै. र.
मात्रा और अनुपान
5 से 20 बूँद पानी में मिलाकर दें ।
दूसरी विधि
(अर्क कर्पूर) — असली रेक्टीफाइड स्पिरिट 16 औंस में 4 औंस कपूर डाल दें। यदि इसमें एक औंस फूल पिपरमेन्ट भी डाल दें तो अच्छा होगा । कुछ समय में ही अर्क कर्पूर तैयार हो जायेगा ।
मात्रा
5 से 20 बूँद तक दें।
तीसरी विधि
(वैद्यनाथ धारा) - कपूर, फूलपिपरमेन्ट, सत अजवायन - ये चीजें समभाग लेकर शीशी मेंडा, मुँह बन्द कर दें। थोड़ी देर में अर्क तैयार हो जायेगा ।
मात्रा और अनुपान
5 से 10 बूँद, चीनी या बताशे में दें।
गुण और उपयोग
ये तीनों हैजा, अजीर्ण, बदहजमी, पेट के दर्द, जी मिचलाना आदि के लिये अक्सीर दवा है। कई बार का अनुभूत है।
नोट
अर्क कपूर बनाने का विधान उपरोक्त ही है और प्रायः सब उच्चस्तर के निर्माता इसी तरह बनाते भी हैं। परन्तु बाजार में सस्ता बिकने वाले अर्क कपूर में धूर्त व्यापारी पानी मिला देते हैं। अतः जितना लाभ होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता। इसकी पहचान यही है कि अर्क कपूर में दियासलाई लगाने पर तुरन्त जलने लगता है, नकली जलता नहीं है।
कालमेघासव
कालमेघ 61 सेर, गिलोय 1। सेर, सप्तपर्ज़ 1। सेर, कुटकी 11 सेर, करंज पंचांग 1 | सेर, कुटज छाल 11 सेर लेकर सबका जौकुट चूर्ण करें और 3 मन 8 सेर जल में डालकर क्वाथ बनावें । जब 32 सेर जल शेष रह जाये, तो उतारकर छान लें। फिर इसमें गुड़ 20 सेर तथा धाय फूल आधा सेर डालें और सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, लौह चूर्ण, लाल रोहितक (रोहेड़ा) की छाल, तेजपात, दालचीनी, बड़ी इलायची, शरपुंखामूल, एलुवा (मुसब्बर), हरड़, बहेड़ा - प्रत्येक द्रव्य 10-10 तोला, बबूल की छाल आधा सेर लेकर जौकुट चूर्ण करके मिलावें । पश्चात् एक घृतलिप्त पात्र में भर दें और एक माह तक सन्धान करें। एक माह बाद तैयार हो जाने पर निकाल कर, छान करके, सुरक्षित रख लें। - आनुभविक योग
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, सुबह-शाम भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर दें ।
गुण और उपयोग
इस आसव का सेवन करने से समस्त प्रकार के मलेरिया (शीतपूर्वक) ज्वर, इकतरा, तिजारी, चौथिया आदि ज्वर, विषम ज्वर, जीर्ण ज्वर, पुनरावर्तक ज्वर शीघ्र नष्ट होते हैं । जो विषम ज्वर और शीतपूर्वक ज्वर कुनैन आदि औषधियों के सेवन से भी नष्ट नहीं होते एवं जिनके कारण रोगी को चिरकाल तक त्रास होता रहता है, परिणामतः रोगी के यकृत् और प्लीहा दोनों बढ़ जाते हैं, रोगी अत्यन्त क्षीण एवं रक्तहीनता के कारण पीतवर्ण का हो जाता है, साथ ही पाण्डुरोग और कामला हो जाता है, जठराग्नि मन्द हो जाती है, कभी-कभी अतिसार भी हो जाता है, ऐसी दशा में इस आसव का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के ज्वर
नष्ट हो जाते हैं। यकृत् और प्लीहा व्यवस्थित होकर अपना कार्य ठीक से करने लगते हैं। इस आसव का पाण्डु, कामला आदि पर, विशेषतः बालकों के कामला रोग पर आश्चर्यजनक लाभ होता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त कर शरीर में नवीन रक्त और बल की वृद्धि करता है ।
रस- रक्तादि धातुओं में लीन ज्वरकारक दोषों को नष्ट कर ज्वर को जड़ से नष्ट करता है, इससे धातुओं के शोधन का भी बहुत उत्तम कार्य होता है, जिससे ज्वर के पुनराक्रमण की सम्भावना नहीं रहती है।
कुटजारिष्ट
क्वाथ द्रव्य
कुड़े की जड़ या छाल 5 सेर, मुनक्का 211 सेर, महुए के फूल, गंभारी के फूल - प्रत्येक 40-40 तोला, कूटने योग्य द्रव्यों को जौकुट चूर्ण करें, इनको एक मन 11 सेर 16 तोला जल में पकावें । 12 ।। सेर 4 तोला जल शेष रहने पर छानकर ठंडा कर लें। —भै.र.
प्रक्षेप द्रव्य
इनमें 5 सेर गुड़ घोल दें और 1 सेर धाय के फूल डाल दें।
सन्धान
इन सब को चिकने पात्र में डालकर सन्धान कर 1 मास तक रखा रहने दें। बाद में तैयार हो जाने पर छान कर काम में लावें ।
वक्तव्य
इसमें कुड़ा छाल कटु होने से 5 सेर गुड़ और मिलाने से ठीक बनता है ।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पुराने संग्रहणी, अतिसार, कृमि, आमांश, अग्निमांद्य, अरुचि, दुर्बलता, जीर्णज्वर, रक्त गिरना, खाँसी आदि रोग नष्ट होते हैं। कितनी ही पुरानी संग्रहणी, श्वेत आँव और ज्वर के साथ क्यों न हो, उसके निवारण के लिये यह अरिष्ट बहुत ही उपयोगी है।
पुरानी संग्रहणी में
मल थोड़ा और आँव के साथ आना, पेट में दर्द होना, ज्वर भी हो जाना, अन्न में अरुचि, दस्त के समय आँतों में मरोड़ होना आदि उपद्रव होते हैं। इसमें कुटजारिष्ट, कुटजावलेह के साथ देने से अच्छा फायदा होता है ।
संग्रहणी रोग आराम हो जाने पर भी कुछ रोज तक कुटजारिष्ट का सेवन थोड़ी-थोड़ी मात्रा में करते रहना चाहिये, क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि पुरानी संग्रहणी दूर हो जाने पर दवा और पथ्यादि का सेवन बन्द कर देने से पुनः यह रोग उत्पन्न हो जाता है। इस तरह बार-बार यह रोग अपना प्रभाव जमाकर रोगी को अधिक कष्ट देता है। अतएव इसके दौरे को रोकने के लिये कुटजारिष्ट का सेवन रोग छूटने पर भी कुछ रोज तक बराबर करना चाहिए ।
संग्रहणी रोग में पाचक पित्त की दुर्बलता के कारण जठराग्नि मन्द हो जाती है, फिर भूख नहीं लगना, कभी-कभी पेट में दर्द, अपचन, दस्त आदि उपद्रव होने लगते हैं, ऐसी हालत में कुटजारिष्ट के सेवन से पाचक पित्त उत्तेजित हो, जठराग्नि को प्रदीप्त कर देता है और पाचनक्रिया भी ठीक करता है।
कुटजारिष्ट कफ को भी ढीला करता है। विशेषकर छोटे-छोटे बच्चों के कफ को ढीला कर दस्त की राह निकाल देता है। अतएव बच्चों की खाँसी या कफ-वृद्धि-युक्त खाँसी में अथवा न्यूमोनिया या मोतीझरा आदि में कफ दोष को दूर करने के लिये बब्बूलारिष्ट या द्राक्षासव के साथ इसे मिलाकर, बराबर जल मिला, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन भर में 3-4 बार देने से कफ ढीला होकर निकल जाता है और खाँसी भी कम हो जाती है।
कुमार्यासव नं 1
अच्छा पका हुआ और रस भरा ग्वारपाठा (घीकुमारी) लाकर उसे धो, छोटे-छोटे टुकड़े कर समान भाग जल मिलाकर कलईदार ताँबा या पीतल की अथवा लोहे की बड़ी कड़ाही में डाल, आग पर चढ़ा, पाँच-दस उफान आवे इतना गरम कर नीचे उतार कर रख दें। ठण्डा होने पर हाथ से मसल कर कपड़े से छान लें।
ऐसा निकाला हुआ रस 1211 सेर 4 तोला, गुड़ 5 सेर, लौह चूर्ण 311 सेर, शहद (अभाव में पुराना गुड़) 211 सेर और सोंठ, मिर्च, पीपल, लौंग, दालचीनी, तेजपात, बड़ी इलायची, नागकेशर, चित्रक, पीपलामूल, वायविडंग, गजपीपल, चव्य, हाऊत्रेर धनियाँ, कुटकी, सुपारी, नागरमोथा, हरड़, बहेड़ा, आँवला, रास्ना, देवदारु, हल्दी, दारूहल्दी, मूर्वामूल, मुनक्का, दन्तीमूल, पुष्करमूल, बला, अतिबला, कौंच के बीज, गोखरू, सौंफ, हिंगपत्री (डिकामाली), अकरकरा, उटंगन बीज, श्वेत पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, लोध, स्वर्णमाक्षिक भस्म – प्रत्येक 3-3 तोला और धाय के फूल 32 तोला लेकर सबको चीनी मिट्टी के पेचदार ढक्कन की बरनी या कड़ाही के पीपे में डाल कर रख छोड़ें, फिर सन्धान कर 1 मास तक रहने के बाद छान कर रख लें। - शा. ध. सं.
वक्तव्य
सोंठ से लेकर लोध तक की काष्ठौषधियों को मोटा चूर्ण बनाकर डालें। सि. यो. सं. में सुपारी, मूर्वामूल, मुनक्का, कौंचबीज, गोखरूबीज, लोध-- ये चीजें नहीं है। कोयल (अपराजिता) के बीज, सरफोंका मूल, रोहेड़े (रोहितक) की छाल - ये चीजें हैं। शेष सब द्रव्य समान हैं।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर दोनों समय भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से गुल्म, परिणामशूल, यकृत - प्लीहा, नलाश्रित वायु, मेदोवायु, जुकाम, श्वास, दमा, खाँसी, अग्निमांद्य, कफ और मन्द ज्वर, पाण्डु, पुराना ज्वर, कमजोरी, बीसों प्रकार प्रमेह, उदावर्त, अपस्मार, स्मृतिनाश, मूत्रकृच्छ्र, शुक्रदोष, अश्मरी (पथरी), कृमिरोग, रक्तपित्त, मासिक धर्म का न होना या कम होना, शक्तिक्षय, गर्भाशय के दोष और आर्त्तव की अशुद्धि, अम्लपित्त, संग्रहणी, अपस्मार, वातविकार और बवासीर समस्त रोग नष्ट होते हैं।
कुमार्यासव में मुख्य वस्तु घीकुमारी का रस है, इसके अतिरिक्त लौहचूर्ण, हर्रे आदि भी दवाएँ हैं, अतएव, पाचक कोष्ठ को शोधन करने वाला, भूखे बढ़ाने वाला और पौष्टिक है । ऐसे बच्चे जो अन्न खाते हों उनके लिए यह दवा बहुत मुफीद है तथा 5-6 माह के बच्चों के लिए यदि बराबर पेट खराब रहता हो, जिगर या तिल्ली बढ़ी हुई हो, अनपच दस्त आदि होते हों, तो देने में कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि यह तिल्ली, जिगर, कफविकार, श्वास- खाँसी आदि बच्चों के रोगों में विशेष गुण करता है।
इसका उपयोग विशेष कर पेट के विकारों में बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब के लिए किया जाता है। प्रारम्भ में इसकी मात्रा थोड़ी ही देनी चाहिये। जैसे-जैसे बर्दास्त होता जाय, वैसे-वैसे मात्रा बढ़ाते जाना ही इसका अच्छा नियम है। एक-दो सप्ताह लगातार सेवन करने से इसका गुण मालूम होता है। शूल, गुल्मादि रोगों में यदि रोगी बलवान हो तो इसके साथ वज्रक्षार चूर्ण का भी उपयोग करें। इससे पेट में वायु भरने नहीं पाता और रोग में भी बहुत शीघ्र आराम हो जाता है तथा अग्नि (जठराग्निहाजमा ) भी तेज हो जाती, खाई हुई चीजें बहुत जल्द हजम होने लगतीं और रस- रक्तादि धातु बढ़ कर शरीर पुष्ट और बलवान हो जाता है।
स्त्रियों के दर्द, मेदोवृद्धि, रजोदर्शन के समय पेट में दर्द होना, दमा, खाँसी, अम्लपित्त, पेट में वायुगोला, अतिशय दुर्बलता, शक्तिहीन होना आदि के कारण गर्भ धारण न होना, अथवा गर्भ धारण होने में कोई अड़चन होना, इसके लिये कुमारी आसव का बराबर कुछ दिनों तक सेवन करना चाहिए।
कुमार्यासव यकृत् को बल देने वाला है, अतएव, यकृत् - वृद्धि होने पर जब पित्त का स्राव अच्छी तरह होने में बाधा होती है, तब इसके उपयोग से बहुत लाभ होता है। इसी तरह यकृद्दाल्युदर रोग में उसकी प्रारम्भिक अवस्था में कुमार्यासव के प्रयोग करने से पेट में जल संचय नहीं हो पाता है, क्योंकि इसमें लौह का अंश वर्तमान है, जो रक्ताणुओं की वृद्धि कर जलीय भाग को सुखाता रहता है, अतएव पेट में जल संचय नहीं होने देता। पुराने प्लीहा रोग में कुमार्यासव के प्रयोग से बहुत शीघ्र लाभ होता है। इस रोग में भी रक्ताणुओं की वृद्धि के लिए लौह-प्रधान कोई दवा - ताप्यादि लौह आदि का सेवन करना अच्छा रहता है।
कुमार्यासव नं० 2
ग्वालपाठे का रस 3 सेर 16 तोला लेकर किसी साफ कांच या चीनी मिट्टी के पात्र में भरकर रखें, पश्चात् उसमें पुराना गुड़ 32 तोला, शुद्ध मण्डूर या मण्डूर भस्म, शुद्ध टंकण, सज्जीक्षार, यवक्षार, सेंधा नमक, सामुद्र नमक, साम्भर नमक, विड्नमक, मनिहारी नमक, नवसादर - प्रत्येक द्रव्य 4-4 तोला लेकर बारीक चूर्ण कर मिलावें । पश्चात् पात्र को अच्छी प्रकार दृढ़ सन्धिबन्धन कर 8 दिन तक धूप में रखें। 8 दिन के पश्चात् छानकर सुरक्षित रख लें !
मात्रा और अनुपान
6 माशे से 1 तोला तक सुबह-शाम भोजन के पश्चात् शक्कर, बताशा अथवा जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
इस आसव का सेवन करने से उदर रोग, शूल, अजीर्ण, यकृत् वृद्धि, प्लीहा वृद्धि, गुल्म, अग्निमांद्य आदि रोग नष्ट होते हैं। यह भोजन का अच्छी तरह से पाचन कर क्षुधा की वृद्धि करता है। बालकों को होने वाले यकृद्विकार, प्लीहा, पाण्डु, कामला, हलीमक, कृमि, कब्ज, उदरशूल आदि विकारों पर अमृत तुल्य लाभकारी है।
कुमार्यासव नं0 3
विजया नाम की हरड़ 11 सेर लेकर इसका जौकुट चूर्ण कर 1211 सेर 4 तोला जल में पकावें, जब 3 सेर 16 तोला जल शेष रहे, तब उतार कर छान लें और साफ चिकने पात्र में भर दें, फिर उसमें ग्वारपाठे का रस 12111 सेर 4 तोला, गुड़ 5 सेर, शहद 3 सेर 16 तोला, धाय के फूल 12 छटाँक 4 तोला मिला दें। पश्चात् जायफल, लौंग, कंकोल, कबाबचीनी, जटामांसी ( बाल छड़), चव्य, चित्रकमूल-छाल, जावित्री, काकड़ासिंगी, बहेड़ा, पुष्करमूल - ये प्रत्येक 4-4 तोला, लौहभस्म, ताम्र भस्म – प्रत्येक 2 - 2 तोला लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का जौकुट चूर्ण करके एवं शेष चीजें वैसी ही मिला दें। फिर यथाविधि सन्धान करके रखें। 20 दिन पश्चात् छानकर सुरक्षित रख लें। -यो. र.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, सुबह-शाम भोजन के बाद अग्निबलानुसार बराबर जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इस आसव का सेवन करने से पाँचों प्रकार की खाँसी, श्वास, क्षय और आठों प्रकार के उदर रोग, 6 प्रकार के अर्श, वातव्याधि, अपस्मार, अग्निमान्द्य, कोष्ठ शूल, आठ प्रकार के गुल्म तथा नष्टपुष्प (स्त्रियों के मासिक धर्म न होना) इत्यादि रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त अग्निमांद्य, संग्रहणी, अजीर्ण, अतिसार और प्रवाहिका रोग में उत्तम लाभप्रद है। छोटे बच्चों को इसका सेवन कराने से अन्न या दूध का ठीक-ठाक परिपाक होता है। उदर में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता। एक मास के बच्चे को इसकी 1 बूँद नित्य 1-2 बार दें।
वक्तव्य
कुछ वैद्य विजया शब्द का अर्थ भांग करते हैं और भांग डालकर यह आसव बनाते भी हैं। भांगडाले हुए आसव में ग्रहणी, अतिसार, मन्दाग्नि को नष्ट करने के विशेष गुण हैं, जब कि विजया नामक हरड़ डालकर बनाये आसव में कोष्ठबद्धता (कब्ज), अजीर्ण, उदरशूल, यकृत् और प्लीहा के विकार, उदर रोग, आनाह आदि को नष्ट करने के विशेष गुण हैं। शेष गुण-धर्म दोनों में समान हैं।
कुमार्यासव नं0 4
ग्वारपाठे का रस 211 सेर, गुड़ 11 सेर, तेजपात, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, लौंग, सेंधानमक, हल्दी, दारूहल्दी, करंज, पीपल, मिर्च, धाय के फूल, अकरकरा, बच. जावित्री, वायविडंग - ये प्रत्येक 4-4 तोला, हरड़ 8 तोला लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों को कूटकर जौकुट चूर्ण करें। पश्चात्, सब द्रव्यों को एकत्र मिला, साफ चिकने मटके में भरकर यथाविधि सन्धान करके 15 दिन तक रखा रहने दें। पश्चात् छानकर सुरक्षित रख लें। — गदनिग्रह
वक्तव्य
अधिक परिमाण में बनाने पर एक मास तक सन्धान करके रखना चाहिए।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, सुबह-शाम, भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इस आसव का सेवन करने से समस्त प्रकार उदर रोग, गुल्म (वायुगोला), उदावर्त, अफरा, पार्श्वशूल, कफ दोष, मन्दाग्नि, खाँसी, श्वास, हिक्का ( हिचकी), क्षय, यकृत्वृद्धि जनित विकार, तिल्ली (प्लीहा) और शोथ (सूजन) आदि रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त जलोदर, कृमिरोग, पाण्डु, अशक्ति, शुक्रदोष, स्त्रियों के रजोविकार तथा गर्भवती स्त्रियों के विकारों पर भी यह औषधि उत्तम लाभदायक है। छोटे बच्चों के विकारों पर भी इसके प्रयोग
से लाभ होता है।
खदिरारिष्ट
क्वाथ-द्रव्य, खैरसार (खदिर की मोटी लकड़ियों के बीच का लाल पका हुआ भाग) और देवदारु- प्रत्येक 211-211 सेर, बावची 48 तोला, दारूहल्दी 1 सेर, हर्रे, बहेड़ा, आँवला तीनों मिलाकर 80 तोला – इन सबको जौकुट कर 204 सेर 64 तोला जल में पका, 2511 सेर 8 तोला जल बाकी रहे तब छान लें। --शा. ध. सं. भ. खं.
वक्तव्य
खैरसार, देवदारु, दारुहल्दी आदि अत्यन्त कठिन द्रव्यों के होने के कारण इस योग में द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार जल द्विगुण किया गया है।
प्रक्षेप द्रव्य
पीछे उसमें शहद (अभाव में पुराना गुड़ ) 10 सेर, चीनी 5 सेर तथा धाय के फूल 1 सेर, कंकोल, नागकेशर, जायफल, लौंग, बड़ी इलायची, दालचीनी, तेजपात - प्रत्येक 4-4 तोला तथा पीपल 16 तोला, इनका मोटा चूर्ण बना, डाल दें।
सन्धान
इन सब को चीनी मिट्टी के बर्तन में या सागौन के पीपे में भर कर सन्धान कर 1 मास रहने दें। 1 मास बाद तैयार हो जाने पर छान कर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर भोजन के बाद, सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से लाल और काले कोढ़ के चकते, कपालकुष्ठ, औदुम्बरादि महाकुष्ठ, खुजली, मण्डल - कुष्ठ, दाद आदि क्षुद्र कोढ़, रक्तविकारजन्य ग्रन्थि, रक्तविकार, वातरक्त, विसर्प, व्रण, सूजन नाहरूरोग, गण्डमाला, अर्बुद, श्वेतकुष्ठ कृमिरोग, यकृत्, गुल्म, कास, श्वास, बदहजमी, कफ, वायु, आमविकार, हृद्रोग, पाण्डुरोग और उदर रोग नष्ट होते हैं।
अनेक प्रकार के दूषित आहार-विहार के कारण रक्त दूषित हो, उसमें रोग उत्पन्न करने वाले कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। फिर यह कृमि कण्डू (खुजली), कुष्ठ विसर्पादि रोगों को उत्पन्न करते हैं। रक्त में विकार होने से चमड़ी, मांस, हड्डियाँ, शुक्रधातु आदि बिगड़ जाते तथा पाचन शक्ति भी कमजोर हो जाती है; ये रोग जल्दी अच्छे भी नहीं हो पाते हैं। ऐसे कठिन रोगों को अच्छा करने के लिये खदिरारिष्ट, गन्धक रसायन के साथ उपयोग किया जाता है। यह अत्यन्त पाचक, रक्तशोधक और विरेचक्र है ।
यह रक्त में उत्पन्न दूषित कृमियों को नष्ट कर आँतों को सबल बनाता तथा साफ करता है, रक्त को शुद्ध करता और त्वचा के रोगों को भी नष्ट करता है। यह अनेक कुष्ठों में तथा कण्डू, दाद आदि क्षुद्र कुष्ठों में होने वाले कृमियों को शीघ्र नष्ट कर रोग मुक्त कर देता है। अतएव इसकी गणना उत्तम कुष्टघ्न दवाओं में की जाती है।
खदिरारिष्ट का प्रभाव लसीका पर विशेष पड़ने से महाकुष्ठ में भी यह बहुत शीघ्र लाभ करता है, क्योंकि महाकुष्ठ में - लसीका से सर्वप्रथम कीटाणु उत्पन्न होते हैं और वहीं से सम्पूर्ण शरीर में फैल कर त्वचा - मांस आदि को दूषित करते हैं। महाकुष्ठ के कीटाणु और राजयक्ष्मा के कीटाणुओं में बहुत समता पायी जाती है । खदिरारिष्ट के सेवन से ये कीटाणु निर्बल और शिथिल हो जाते हैं। हृदय की अधिक धड़कन में खदिरारिष्ट बहुत लाभ करता है।
चन्दनासव
सफेद चन्दन, सुगंधबाला (खस), नागरमोथा, गम्भारी फल, नीलोफर, प्रियंगु, पद्माख, मंजीठ, लाल चन्दन, पाठा, चिरायता, बड़ की छाल, पीपल की छाल, कचनार की छाल, आम की छाल, कचूर, पित्तपापड़ा, मुलेठी, रास्ना, परवल के पत्ते, मोचरस – प्रत्येक 4-4 तोला लेकर मोटा चूर्ण कर लें और धाय के फूल 64 तोला तथा मुनक्का 1 सेर लें।
इन सबको 25 11 सेर 8 तोला पानी में डाल कर 5 सेर चीनी और 211 सेर गुड़ मिला कर घोल दें, बाद में उपरोक्त चूर्ण डाल कर पात्र का मुख बन्द कर दें। 1 मास बाद छान कर रख लें। - भै. र.
वक्तव्य
इस योग में चीनी का परिमाण कम होने से खट्टापन आ जाता है, अतः चीनी दुगुनी (10 सेर) डालने से ठीक बनता है ।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, भोजन के बाद सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पेशाब में धातु जाना, स्वप्न दोष, कमजोरी, पेशाब की जलन, श्वेतप्रदर, प्रमेह और उपदंश के विकार, अग्निमांद्य और हृद्रोग अच्छे हो जाते हैं।
यह आसव शीतवीर्य होने की वजह से उष्णता को नष्ट करता है और शुक्रस्थान की गर्मी को दूर कर बल तथा वीर्य की वृद्धि करता है। पेशाब पीला या काला होता हो तो उसे भी दूर कर साफ पेशाब लाता है।
शुक्र प्रमेह (सूजाक ) में चन्दनासव के साथ चन्दन के तैल का सेवन करने से काफी लाभ होता है । अथवा चन्दनासव 211 तोला, देवदार्वारिष्ट 1। तोला, सारिवाद्यासव 2 तोला तथा चन्दन तैल 20 बूँद मिला कर, 3 मात्रा बना कर, कुछ समय प्रतिदिन देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। उष्णवात (सूजाक ) की कसर को दूर करने के लिये यह मिश्रण बहुत गुणदायक है ।
यह शीतवीर्य होने से सूजाक, उपदंश एवं मूत्रविकारों में बहुत गुणदायक है। यह हृदय को बल देनेवाला, पौष्टिक तथा बलवर्द्धक एवं अग्निदीपक है।
सूजाक की प्रथमावस्था में जलन होती है, जिससे पेशाब करने के समय चिनक (दाह- दर्द) होता और पेशाब खुल कर नहीं होता है। कुछ रोज तक यही क्रम चालू रहने से मूत्रनली में घाव होकर पीब निकलने लगता है और यह स्राव बराबर जारी रहता है। रोग पुराना होने पर पीब में दुर्गन्ध आने लगती है, शरीर कान्तिहीन हो जाता, रक्तविकार होने से त्वचा रूक्ष हो जाती है तथा चकत्ते आदि भी निकल आते हैं। ऐसी अवस्था में चन्दनासव के उपयोग से दाह शान्त हो, पेशाब खुल कर आने लगता है। धीरे-धीरे स्राव भी रुक जाता है।
चव्यकारिष्ट
चव्य 211 सेर, चित्रक मूल 11 सेर, काला जीरा, पोहकरमूल, बच, हाऊबेर, कचूर, पटोल पत्र, हरड़, बहेड़ा, आँवला, अजवायन, कुड़े की छाल, इन्द्रायण-मूल, धनियाँ, रास्ना, दन्ती - मूल - प्रत्येक द्रव्य आधा-आधा सेर, वायविडंग, नागरमोथा, मंजीठ, देवदारु, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल - ये प्रत्येक 1-1 पाव लेकर इन सबको एकत्र जौकुट करके 5 मन 4 सेर 4 तोला जल में क्वाथ करें, 2511 सेर 8 तोला जल शेष रहने पर उतार कर छान लें और उनमें गुड़ 300 पल (15 सेर), धाय के फूल 20 पल (1 सेर), दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, नागकेशर - ये प्रत्येक 8-8 तोला, लौंग, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, शीतल चीनी- ये प्रत्येक 4-4 तोला लेकर जौकुट चूर्ण करके मिलावें, पश्चात् पात्र में भर कर 1 मास तक सन्धान करके रखें। एक माह पश्चात् निकाल, छान कर सुरक्षित रख लें। - यो. र.
वक्तव्य
जल का परिमाण, द्रवद्वैगुण्य परिमाण के अनुसार द्विगुण लिया गया है।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक सुबह-शाम भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर सेवन करें।
गुण और उपयोग
इस अरिष्ट के प्रयोग से समस्त प्रकार के गुल्म, 20 प्रकार के प्रमेह, जुकाम, क्षय, खांसी, अष्ठीला, वातरक्त, उदर विकार तथा अन्त्र- वृद्धि रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त यह कामला, यकृत् विकार, आध्मान ( अफरा ), अण्डवृद्धि(Varicocele, Hydrocele) और अग्निमांद्य को भी नष्ट करता है।
चित्तचन्दिरासव
नागरमोथा, काली मिर्च, चव्य, चित्रक-मूल, हल्दी, पीपल, वायविडंग, आंवला, उशीर, छारछरीला, सुपारी, लोघ्र, पत्रज, कुटकी, सफेद चन्दन, तगर, जटामांसी, दालचीनी, लौंग, गोदन्ती (गूंदी-फल), नागकेशर - ये प्रत्येक 3-3 तोला, धाय के फूल 32 तोला, मुनक्का 2 सेर 6 छटांक 2 तोला, पुराना गुड़ 12 सेर, जल 20 सेर, 12 छटांक 4 तोला लें। जल में गुड़ को घोलकर मुनक्का तथा धाय के फूल मिला दें। पश्चात् शेष द्रव्यों का जौकुट चूर्ण करें और सब सामान को घृतलिप्त पात्र में भरकर 1 मास तक सन्धान करें। एक माह पश्चात् निकाल लें और छानकर सुरक्षित रख लें। — सि. भे. म.मा.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, सुबह-शाम भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर दें ।
गुण और उपयोग
यह आसव सौम्यगुण युक्त, दीपन, पाचन, कब्जनाशक और श्रेष्ठ बलकारक है। इस आसव का उपयोग करने से समस्त प्रकार के कठिन कास श्वास, राजयक्ष्मा, मन्दाग्नि, प्रमेह, मूत्रविकार और मलावरोध आदि रोग नष्ट होते हैं। इसमें द्राक्षा ( मुनक्का ) प्रधान योग होने के कारण यह द्राक्षासव और द्राक्षारिष्ट के समान ही उत्तम गुणकारी एवं सुमधुर पेय है। राजस्थान के वैद्य समुदाय में इस योग का विशेष प्रचार है।
जम्बीरद्राव
चीनी मिट्टी के चिकने पात्र (बरनी) में नींबू का रस 5 सेर डाल दें। इसमें हींग 8 तोला, सेंधा नमक, वायविडंग, सोंठ, मिर्च, पीपल और अजवायन - प्रत्येक 4-4 तोला सोंचर नमक और सरसों - प्रत्येक 16-16 तोला लेकर चूर्ण बनाकर डाल दें। पात्र का मुख बन्द कर, 21 दिन तक रखा रहने दें। बाद में छान कर काम में लावें । - यो. चि.
मात्रा व् अनुपान
1 से 2 तोला, दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से यकृत्, गुल्म, प्लीहा, विद्रधि, अष्ठीला, वायुगोला, दस्त, दर्द, पार्श्वशूल, हृद्रोग, नाभिशूल, कब्ज, अफरा, गुदविकार (अर्श), उदर रोग और वात तथा कफ-सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं।
यह पाचक ( अन्न को पचाने वाला), दीपक (जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला), रुचिवर्द्धक, कृमिनाशक और अरुचि को नष्ट करने वाला है।
शरीर के अन्दर से दूषित विषों को निकालने के लिये जितने द्वार हैं, उन सब के द्वारा यह आसव एकत्रित दूषित दोषों को निकाल देता है। पेशाब और पसीना के द्वारा यह शरीर के अनेक तरह के मल को बाहर निकाल देता है। यकृत्, गुल्म और उदर रोग के लिये जम्बीरद्राव के समान गुणदायक अन्य कोई भी दवा नहीं है ।
जब खाली आमाशय में यह आसव जाता है, तब सबसे पहले जिन कृमियों से आमाशय में बादि पैदा होती है, उन कृमियों को नष्ट करना शुरू कर देता है। इन कृमियों से आमाशय में अनेक प्रकार के हानिकारक एसिड उत्पन्न होते रहते हैं। यह आसव इन कृमियों को नष्ट करके एसिड पैदा होना बन्द कर देता है ।
पेट के अन्दर कृमियों को नष्ट करके यह आसव रस- रक्तादि में मिल कर रक्त में रोग- प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाता है। इसके बाद, यह जल के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार यह पाचनक्रिया को शुद्ध करके रक्त के साथ मिलने के पश्चात् पानी और कार्बोलिक एसिड के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह कार्बोलिक एसिड रक्त में रहने वाले अम्ल- प्रतियोगित लक्षणों के साथ मिलता है फिर उसमें कार्बोलिक एसिड और दूसरे तत्वों का मिश्रण बनता है। ये सब कार्य नींबू रस की प्रधानता से ही होते हैं।
मेदोवृद्धि के लिये
इस आसव को बराबर जल मिलाकर 2 तोले की मात्रा में प्रातः सायं लेने से अद्भुत गुण देखने में आया है।
इसके अन्दर कृमिनाशक गुण भी है। आँतों के अन्दर अनेक प्रकार के जो कृमि पैदा हो जाते हैं और जिनके द्वारा टायफाइड, अतिसार, हैजा इत्यादि रोग उत्पन्न होने का डर रहता है,
इन रोगों की जड़ (कीटाणुओं) को यह आसव शीघ्र दूर कर देता है, क्योंकि इसमें नींबूरस के साथ हींग का भी सम्मिश्रण है। अतएव, कृमियों को नष्ट करने में बहुत उपयोगी है।
शरीर की सन्धियों (जोड़ों) में एक प्रकार के जन्तु उत्पन्न हो कर, सन्धिवात, आमवात आदि रोगों को उत्पन्न करते हैं। इन जन्तुओं को नष्ट करने के लिये यह आसव बहुत उपयोगी है।
जीरकारिष्ट
कंकोल 10 सेर सफेद जीरे को 2 मन 22 सेर 32 तोला पानी में पकावें । जब 2511 सेर 8 तोला पानी शेष रह जाय, तब उसमें गुड़ 15 सेर, धाय के फूल 64 तोला, सोंठ का चूर्ण 8 तोला, जायफल, मोथा, दालचीनी, तेजपात, नागकेशर, बड़ी इलायची, अजवायन, और लौंग का चूर्ण 4-4 तोला लेकर, मिट्टी के चिकने बर्तन अथवा चीनी मिट्टी के या उत्तम काठ के बने पात्र में उपरोक्त सब दवा डाल कर सन्धान करके, 1 मास तक रखा रहने दें। बाद में तैयार हो जाने पर, छान कर रख लें ।
वक्तव्य
इस योग में जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिमाण के अनुसार द्विगुण किया गया है। इससे उत्तम बनता है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, खाना खाने के बाद, सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
यह शीतल, रुचिकारक, चरपरा, मधुर, अग्नि को प्रदीप्त करने वाला, विष-दोष शामक तथा पेट के अफरे को दूर करने वाला है। यह थोड़ा उष्ण (गर्म) भी है और गर्भाशय की शुद्धि करता है। इसके अतिरिक्त सूतिका रोग, संग्रहणी, अतिसार और मन्दाग्नि के विकारों को दूर करता, भूख बढ़ाता और पाचन शक्ति को प्रबल करता है ।
तक्रारिष्ट
अजवायन, आमला, हर्रे, काली मिर्च - प्रत्येक 12-12 तोला, पाँचों नमक प्रत्येक 4 तोला, इनका चूर्ण बना, एक पात्र में डालकर उसमें तक्र 6 सेर 6 छटाँक 02 तोला डाल दें और पात्र का मुख बन्द कर, 1 माह बाद छान कर रख लें। -भै. र.
वक्तव्य
ग्रन्थ के मूल पाठ में तक्र का परिमाण नहीं है, अतः श्री नरेन्द्रनाथ मिश्र कृत रत्नोज्वला टीका के अनुसार 2 आढ़क (6 सेर 6 छटाँक 2 तोला) परिमाण दिया गया है।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला, प्रातः सायं जल मिला कर दें।
गुण और उपयोग
यह उत्तम दीपन-पाचन है तथा शोथ, गुल्म, अर्श, कृमि, प्रमेह, ग्रहणी, अतिसार और उदर रोगों को नष्ट करता है ।
इसका उपयोग ग्रहणी और अतिसार में— जब कि ये रोग पुराने हो गये हों, किसी दवा से लाभ नहीं होता हो, आँतें कमजोर हों, अपना कार्य करने में असमर्थ हों, ग्रहणी निर्बल हो गयी हो, अन्न की पाचन क्रिया ठीक से न हो, पतले दस्त या अनपच दस्त होते हों, भूख न लगती है, यदि कुछ खा भी लें तो ठीक से हजम न हो, पेट में दर्द, कमजोरी, रस- धातुओं की कमी, कभी-कभी शोथ, हाथ-पाँव सूज जाएँ आदि विकार होने पर इस अरिष्ट के सेवन से बहुत लाभ होता है ।
यह अग्नि को दीप्त कर मन्दाग्नि को नष्ट करता है तथा यकृत् क्रिया को उत्तेजित कर तथा पाचकरस का अधिक निर्माण कर पाचन शक्ति को बढ़ाता है, एवं तक्र के मौलिक गुण अम्ल और ग्राही, लघु, पाचन, दीपन आदि के कारण भी यह श्रेष्ठ दीपक, पाचक, रुचिकारक और मल को बाँधने वाला है।
त्रिफलारिष्ट
त्रिफला, चित्रक, पीपल, अजवायन, लौह चूर्ण और वायविडंग का चूर्ण 16-16 तोला, शहद 32 तोला और पुराना गुड़ 5 सेर तथा जल 16 सेर - सब को घृत लगे चिकने मिट्टी बर्तन में भर कर मुख बन्द करके जौ के ढेर में रख दें। फिर 1 माह बाद निकाल कर छान लें। -च. सं.
वक्तव्य
ग्रन्थ के मूलपाठ में जल का उल्लेख नहीं है, किन्तु बिना उचित मात्रा में जल मिलाये आसव-अरिष्ट बनना सम्भव नहीं । अतः एक श्वेण जल दिया गया है, क्योंकि त्रिफला इस योग का मुख्य द्रव्य है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से हृद्रोग, पाण्डु, शोथ, प्लीहा वृद्धि, चक्कर आना, अरुचि, प्रमेह, गुल्म, भगन्दर, वातोदर, पित्तोदर, बद्धोदर आदि, श्वास, कास, ग्रहणी रोग, कुष्ठ, कण्डू शाखागत वात, बद्धकोष्ठ, हिचकी, किलास और हलीमक आदि रोग नष्ट हो कर बल, वर्ण, आयु तथा ओज की वृद्धि होती है।
दशमूलारिष्ट
दशमूल (शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, बड़ी और छोटी-कटेली, गोखरू, बेल, गम्भारी, सोनापाठा, पाटला और अरणी ) - प्रत्येक 20-20 तोला, चित्रकमूल और पुष्करमूल 11-11 सेर, गिलोय और शोध 1-1 सेर, आँवला 64 तोला, जवासा 48 तोला, खैर का सार या छाल, विजयसार और हर्रे 32-32 तोला, कूठ, मंजीठ और देवदारु, वायविडंग, मुलेठी, भारंगी, कैथ का गूदा, बहेड़ा, पुनर्नवा, चव्य, जटामांसी, फूलप्रियंगु, सारिवा, काला जीरा, निशोथ, रेणुका, रास्ना, पीपल, सुपारी, कचूर, हल्दी, सोया, पद्माख, नागकेशर, नागरमोथा, इन्द्रजौ, काकड़ासिंगी, जीवक, ऋद्धि-वृषभक (अभाव में विदारीकन्द), मेदा, महामेदा, (अभाव में शतावरी), काकोली, क्षीर काकोली (अभाव में असगन्ध ) और ऋद्धि-वृद्धि (अभाव में बराही कन्द ) – इनमें से प्रत्येक चीज 8-8 तोला लेकर सबको जौकुट कर अठगुने (2 मन 24 सेर 64 तोला) जल में पकावें । चौथाई जल ( 26 सेर 16 तो ० ) शेष रहने पर छान लें। बाद में 60 पल (240 तोला ) मुनक्का को चौगुने (12 सेर) जल में पका कर तीन-चौथाई भाग (9 सेर) पानी शेष रहने पर उतार लें। इस मुनक्कायुक्त क्वाथ को तथा उपरोक्त छने क्वाथ को एकत्र कर उसमें शहद (अभाव में पुराना गुड़) 128 तोला और गुड़ 20 सेर, धाय के फूल 120 तोला, कंकोल, सुगन्ध बाला (खस), सफेद चन्दन, जायफल, लौंग, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, नागकेशर और पीपल - प्रत्येक 8 तोले का चूर्ण और कस्तूरी 3 माशा -- इन सबको क्वाथ में डाल कर मिट्टी या सागौन के बने बर्तन (टंकी) में यथाविधि सन्धान करें। एक महीना बाद तैयार होने पर छान कर काठ की टंकी, इमरतबान या बोतल में भर कर रख लें। - - भै. र.
वक्तव्य
आमला तथा कैथ दोनों अम्ल द्रव्य हैं। इनके डालने से अम्लता आकर अरिष्ट के बिगड़ने का भय है। अतः इनको बिना डाले ही बनाया जाना उत्तम है। कस्तूरी अरिष्ट छानने के बाद उत्तम सुरा ( रेक्टीफाइड स्पिरिट ) या स्पिरिट केम्फर के साथ घोंटकर मिलाना या बोतलों में अरिष्ट भरते समय अरिष्ट में मिलाकर बोतलों में भरना उत्तम है। कितने ही लोग बिना कस्तूरी डाले भी बनाते हैं।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, भोजन के बाद, सुबह-शाम देना चाहिए।
गुण और उपयोग
इसे यथोचित मात्रा में सेवन करने से धातुक्षय, खाँसी, श्वास, बवासीर, उदररोग, प्रमेह, अरुचि, पाण्डु, सब प्रकार की वात व्याधियाँ, शूल, श्वास, वमन, प्रदर, कुष्ठं, भगन्दर, मूत्रकृच्छ्र, अम्लपित्त, प्रसूतरोग, गर्भाशय की अशुद्धि, अग्निमांद्य, कामला, श्वेतप्रदर आदि रोग नष्ट होते हैं।
इसका उपयोग वात और कफजन्य रोगों में विशेष होता है। दशमूलारिष्ट में दशमूल का सम्मिश्रण अधिक प्रमाण में है। इसमें अनेक वनस्पतियाँ ऐसी मिली हुई हैं, जिनसे जीवनीय शक्ति की भी वृद्धि होती है ।
कस्तूरी आदि बहुमूल्य सुगंधित, रुचिकर और पौष्टिक अनेक द्रव्यों के संयोग से यह स्वादिष्ट, जायकेदार और विशेष गुणदायक है। शक्ति को कम करने वाली संग्रहणी, धातु-विकार और प्रसूतरोग में अनेक प्रकार के वातजन्य दर्द एवं ज्वरादि उपद्रवों को यह दूर करता है। धातुक्षीणता मिट कर शक्ति बढ़ती है, शरीर कान्तिमान बन जाता है, वीर्य की वृद्धि होती है।
क्षय के विकार में यह और " काडलिवर आयल" समभाग या कुछ कम-ज्यादा मिला कर देने से अच्छा लाभ होता है। इनमें कस्तूरी आदि सुगंधित और अनेक मीठी दवाइयों के सम्मिश्रण होने से बच्चे भी इसे अच्छी तरह पी जाते हैं और स्त्रियाँ तो बड़ी खुशी से इसे पीती हैं। इससे बहुत शीघ्र स्त्रियों का बल बढ़ता तथा वे स्वस्थ हो जाती हैं।
दशमूलारिष्ट प्रसूता स्त्रियों के लिय अमृत है, यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रसूता स्त्रियों को प्रसूत- गृह में या उससे निकलने के बाद जो अग्निमांद्य, खांसी, ज्वर आदि उपद्रव होते हैं, वे सब इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं। रक्तस्राव के कारण आयी हुई कमजोरी और निर्बलता इससे दूर हो जाती है।
इसके सेवन से बच्चे को भी दूध ज्यादा मिलता है। यदि बच्चा पैदा होने के बाद से ही कुछ रोज तक प्रसूता को इसका सेवन कराया जाय, प्रसूता को किसी तरह की तकलीफ ही नहीं हो सकती है।
दशमूलारिष्ट पौष्टिक भी है, अतएव जिन स्त्रियों का गर्भाशय गर्भ धारण करने में असमर्थ हो अथवा जिन्हें गर्भस्राव या गर्भपात की शिकायत हो, उन्हें यह अरिष्ट बहुत गुण करता है, क्योंकि इसमें जीवन शक्ति बढ़ाने एवं शरीर को पुष्ट करनेवाली अनेक दवाइयों का सम्मिश्रण होने से यह गर्भाशय की कमजोरी को दूर कर सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान करता है।
प्रसूता स्त्री को यदि दूध कम मात्रा में उतरता हो, तो 1 तोला शतावरी को जौकुट कर 20 तोला पानी में उबालें। जब 5 तोला शेष रहे, तब उसमें 1 तोला दशमूलारिष्ट मिला कर सुबह-शाम पिला देने से दूध बढ़ जाता है । परन्तु प्रसूता को पथ्य ही रहना चाहिए।
वातजन्य खाँसी में
खाँसी का एक प्रकार का दौरा होता है। यह दौरा जब शुरू होता है, तो रोगी खांसते- खाँसते बेचैन हो जाता, पेट की नसें दुखने लगतीं, मुँह की नसें फूल जातीं और आँखें सुख हो जाती हैं। यदि रोगी कमजोर रहा, तो बेहोश भी हो जाता है। दौरा लगातार 10-15 मिनट तक रहता है। कुछ कफ का खण्ड निकल जाने पर कुछ देर के लिये खाँसी शान्त हो जाती है । ऐसी हालत में दशमूलारिष्ट थोड़ी-थोड़ी मात्रा- जल मिलाकर दिन भर में 3-4 बार देते रहने से बहुत लाभ होता है, क्योंकि यह प्रकुपित वायु को शान्त कर कफ को ढीला करके बाहर निकालता है और श्वास नली को साफ करता है, जिससे खाँसी का वेग रुक जाता और
रोगी क्रमशः अच्छा हो जाता है।
दन्ती - अरिष्ट
दन्ती की जड़, चित्रक की जड़, दशमूल (बेल की छाल, अरणी, श्योनाक की छाल, गम्भारी की छाल, पाढल की छाल, शालिपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, गोखरू) – प्रत्येक 4-4 तोला और त्रिफला 12 तोला लेकर सब को जौकुट चूर्ण बना, 2511 सेर 8 तोला पानी में पकावें, चौथाई पानी रहने पर उतार लें । फिर उसमें 5 सेर गुड़ मिला, बर्तन में भर कर, सन्धान करके रख, 15 दिन बाद तैयार होने पर, छान कर रख लें। —चरक
वक्तव्य
इस योग में जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण दिया गया है। मूल पाठ में धायफूल नहीं है, किन्तु सन्धान के लिए उपयोगी होने के कारण 32 तोला देना चाहिये ।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, सुबह-शाम कुछ खाना खा कर लें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से बवासीर, ग्रहणी, पाण्डु, अरुचि आदि रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त यह मल और वायु का अनुलोमन करता तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है।
इसका उपयोग विशेषतया अर्श रोग में किया जाता है। बवासीर में भी यह बादी में जितना लाभ करता है, उतना खूनी में नहीं, क्योंकि इसमें रेचक और वात को अनुलोमन करनेवाली दवाओं का मिश्रण ज्यादा है। बादी अर्श में वायु अच्छी तरह नहीं खुलता, पेट में वायु भरा रहता है, जिसकी वजह से मल शुष्क हो जाता, अतः पाखाना कड़ा और रूक्ष होता है— वह भी बहुत कींछने पर । मस्सों में वायु भर जाने से, मस्से फूले हुए दिखने लगते और उन में सुई चुभने जैसी पीड़ा होती रहती है। पई के मारे रोगी बेचैन हो जाता, भूख नहीं लगती, बद्धकोष्ठता, रक्त की कमी, निर्बलता आदि उपद्रव होने लगते हैं
इसके उपयोग से अर्श में बहुत फायदा होता है । सब से डला गुणस्त खुल कर आने लगता और साथ ही वायु का संचार भी होने सही होने लगता है।
द्राक्षारिष्ट
मुनक्का 3 सेर 10 तोला को 64 सेर जल में क्वाथ करें, जब चौथाई भाग (16 सेर) भर दें। जल शेष रहे, तब उतार कर शीतल होने पर क्वाथ को छान कर एक घड़े (पात्र) फिर इसमें गुड़ 1211 सेर और धाय के फूल 40 तोला तथा दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर, फूल प्रियंगु, मिर्च, पीपल, वायविडंग - प्रत्येक 5-5 तोला लेकर जौकुट चूर्ण बना कर, डाल कर, (पात्र) में सन्धान कर दें। कुछ दिनों बाद ( तैयार होने पर), छान कर काम में लावें ।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर दिन में आवश्यकतानुसार दें।
गुण और उपयोग
यह भूख बढ़ाता, दस्त साफ लाता, कब्जियत को दूर करता, ताकत पैदा करता, नींद लाता, थकावट को दूर करता, दिल और दिमाग में ताजगी पैदा करता तथा शरीर के प्रत्येक अङ्ग को ताकत देता है ।
कफ, खाँसी, सर्दी, जुकाम, हरारत, कमजोरी, क्षय, बेहोशी, आदि रोगों में शर्तिया लाभ करता है। जिनके फेफड़े कमजोर हों, कफ, खाँसी हमेशा ही होती रहती हो, उन लोगों के लिए यह बहुत गुण करने वाला है।
इसके अतिरिक्त कुक्कुर खाँसी, उरःक्षत, अर्श, ग्रहणी, रक्तपित्त, रक्त प्रदर, नकसीर, अरुचि आदि रोगों में भी इसके उपयोग से बहुत लाभ होता है।
राजयक्ष्मा की खाँसी में
खाँसी का वेग विशेष बढ़ जाय, रोगी कमजोर और शिथिल हो गया हो, फेफड़े दूषित हो गये हों, ज्वर का ताप 100 से 104 तक पहुँच जाता हो, कफ की वृद्धि, अग्निमांद्य आदि उपद्रव होने पर द्राक्षारिष्ट के सेवन से बहुत शीघ्र लाभ होता है, क्योंकि इससे बढ़ा हुआ कफ कम होकर खाँसी कम हो जाती है और रोगी को कुछ बल भी मिल जाता है, साथ ही भूख भी लंगने लगती है और रोगी अपने को निरोग होता हुआ अनुभव करने लगता है। इस अरिष्ट के साथ स्वर्ण बसन्तमालती, च्यवनप्राशावलेह, सितोपलादि चूर्ण आदि दवाओं का भी उपयोग करने से विशेष लाभ होता है।
किसी भी कारण से शरीर में निर्बलता आ गयी हो अथवा शरीर भारी मालूम पड़ना, कोई भी काम करने की इच्छा न होना, मन में अनुत्साह, भूख नहीं लगना, अन्न में अरुचि, दस्त कब्ज आदि उपद्रव होने पर सेवन करने से बहुत लाभ होता है।
कभी-कभी स्त्रियों को रजोधर्म के समय अथवा बच्चा पैदा होने के बाद खून अधिक मात्रा में निकलने लगता है, जिससे शारीरिक कान्ति नष्ट हो जाती, स्त्री दुर्बल हो जाती, उठने-बैठने में असमर्थ, स्वभाव चिड़चिड़ा, कोई भी बात अच्छी न लगता, अपनी जिन्दगी से हताश हो जाना, खाने की इच्छा न होना, पेट में वायु भरा रहना, पेट भारी मालूम पड़ना, अन्न में अरुचि आदि उपद्रव हो जाते हैं, ऐसी दशा में प्रवाल चन्द्रपुटी और मधूकाद्यवलेह के साथ द्राक्षारिष्ट का सेवन करना बहुत लाभदायक है।
द्राक्षासव
मुनक्का 100 पल (400 तोला ) को 4 श्वेण (128 सेर) पानी में पकावें, जब एक श्वेण (32 सेर) जल शेष रहे, तो उसे उतार कर ठण्डा करके छान कर उसमें खोड (चीनी) 61 सेर, मधु 61 सेर, धाय के फूल 80 तोला (1 सेर), कंकोल, लौंग, जायफल कालीमिर्च, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, नागकेशर, पीपल, चित्रकमूल, चव्य, पीपलामूल सम्भालु-बीज (रेणुका ) - प्रत्येक द्रव्य 5-5 तोला लेकर जौकुट चूर्ण करके मिला लें और घृतलिप्त पात्र में भर कर 1 मास तक सन्धान करें। एक माह बाद छानकर सुरक्षित रख लें। - भा. भै. र.
वक्तव्य
इस योग में भारत भैषज्यरत्नावली की टीका के अनुसार जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है।
द्राक्षासव (दूसरा योग )
मुनक्का 5 सेर, खांड 20 सेर, बेर की जड़ 10 सेर, धाय के फूल 5 सेर तथा सुपारी, लौंग, जावित्री, जायफल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर, सोंठ, पीपल, मिर्च, रूमीमस्तंगी, अकरकरा और कूठ - प्रत्येक आधा-आधा सेर लेकर, कूटने योग्य चीजों को कूटकर मिट्टी के चिकने पात्र में या सागौन लकड़ी के पीपे में भर दें। इन सब औषधियों से चौगुना पानी डालकर उसका मुँह बन्द कर दें। 14 दिन पश्चात् उसमें से आसव को निकाल कर अर्क खींचनेवाले यन्त्र द्वारा इसका अर्क खींच लें। — यो. चि.
यदि इसमें केशर, कस्तूरी आदि डालनी हो, तो जहाँ से अर्क शीशी में टपकता है, वहीं पर एक पोटली में बाँधकर लटका दें। इस अर्क को तीन दिन रखा रहने दें, पीछे इसमें चौथाई चीनी मिलाकर बोतलों में छानकर भर दें, बाद में सेवन करें।
वक्तव्य
प्रायः निर्माता वैद्य इसको बिना चीनी मिलाये ही बोतलों में भरते हैं, क्योंकि इसमें मद्यांश (Alcohol) अधिक होने से यह आबकारी कानून के अनुसार लाइसेन्स लेकर बनाया जाता है। और इस पर आबकारी कर भी लगता है।
मात्रा और अनुपान
2 से 4 तोला, प्रातः - सायं भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से ग्रहणी, बवासीर, क्षय, दमा, खाँसी, काली खाँसी और गले के रोग, मस्तक रोग, नेत्र रोग, रक्तदोष, कुष्ठ, कृमि, पाण्डु, कामला, दुर्बलता, कमजोरी, आमज्वर आदि नष्ट हो जाते हैं । यह सौम्य, पौष्टिक तथा बलवीर्यवर्द्धक है।
देवदार्वारिष्ट
देवदारु 3 सेर 2 छटाँक, वासा- मूल 11 सेर, मंजीठ, इंद्रजौ, दन्तीमूल क्षार हल्दी, दारूहल्दी, रास्ना, वायविडंग, नागरमोथा, सिरस की छाल, खदिर काष्ठ, अर्जुन की छाल- प्रत्येक द्रव्य 10-10 छटाँक, अजवायन, कुड़ा की छाल, सफेद चन्दन, गिलोय, कुटकी, चित्रक - मूल - प्रत्येक आधा सेर लेकर जौकुट चूर्ण करके 6 मन 16 सेर जल पकावें, 32 सेर जल शेष रहने पर छान लें। पश्चात् धाय के फूल 1 सेर, शहद (अभाव में पुराना गुड़ ) 18 !!! सेर, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल -- ये मिलित 10 तोला, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर -- ये मिलित द्रव्य 20 तोला, प्रियंगु 20 तोला, नागकेशर 10 तोला लेकर इनका जौकुट चूर्ण करके उपरोक्त क्वाथ में मिलाकर घृतलिप्त पात्र में भर कर एक मास तक सन्ध करें। एक माह के बाद छान कर सुरक्षित रख लें। —भैर.
वक्तव्य
इस योग में जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है। मधु का परिमाण अधिक होने से द्विगुण नहीं किया है।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय में भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर लें।
गुण और उपयोग
इस अरिष्ट का उपयोग करने से सब प्रकार के कठिन प्रमेह, वात रोग, ग्रहणी, अर्श, मूत्रकृच्छ्र, दाद, कुष्ठ इन विकारों को यह नष्ट करता है। इसके अतिरिक्त उपदंश, मूत्रकृच्छ्र, प्रदर, गर्भाशय के दोष, कण्डू इत्यादि रोग नष्ट होते हैं। यह औषध उत्तम रक्तशोधक और मूत्र दोष नाशक है। यह जीर्ण उपदंश और सूजाक के उपद्रवों को नष्ट करता है और मल- शोधन तथा पाचन-क्रिया को व्यवस्थित करता है। स्त्रियों के प्रसव के बाद होने वाले उपद्रवों में अपूर्व गुणकारी है।
धात्र्यरिष्ट
अच्छे पके हुए 2000 आंवलों को कूटकर उसका रस निकाल जितना रस हो उसका आठवाँ भाग शहद, पीपल चूर्ण 8 तोला तथा चीनी 211 सेर मिलाकर सबको चिकने मटके (पात्र) में भरकर सन्धान कर के 15 दिन रखा रहने दें। पश्चात् तैयार होने पर निकाल कर छान कर रख लें।
मात्रा और अनुपान
1 से 21 तोला, बराबर जल मिलाकर और कुछ खिलाकर के सुबह-शाम दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पाण्डु, कामला, हृद्रोग, वातरक्त, विषमज्वर, खाँसी, हिचकी, अरुचि और श्वास रोग नष्ट होते हैं।
पाण्डु और कामला रोग में
जब शरीर में रक्तकणों की कमी होकर जल भाग की वृद्धि विशेष हो जाती है, तब शरीर पीताभ दिखने लगता है, भूख कम लगती और दस्त होने लगते हैं। ऐसी दशा में इसके सेवन से काफी लाभ होता है, क्योंकि इसमें आँवले का रस ही प्रधान है और आँवले में लौह का अंश होने से शरीर की पुष्टि तथा रक्तकणों को बढ़ाने में बहुत लाभदायक है। रक्तकणों की वृद्धि होने से जल भाग शुष्क होकर सूजन नष्ट हो जाती है और धीरे-धीरे पीलापन भी नष्ट होकर रोगी कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो जाता है।
धान्यपंचकारिष्ट
धनियां, खस, बेलगिरी, नागरमोथा, सोंठ, - ये प्रत्येक द्रव्य 1 सेर 9 छटाँक 3 तोला लेकर जौकुट चूर्ण कर 64 सेर जल में पकावें, 16 सेर जल शेष रहने पर उतार कर छान लें । पश्चात् इसमें गुड़ 61 सेर, धाय के फूल 10 छटाँक डाल कर घृतलिप्त पात्र में भर दें और 1 माह तक सन्धान करें। 1 माह पश्चात् छानकर सुरक्षित रख लें। - सि. यो. सं.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, भोजन के बाद दोनों समय समान भाग जल मिलाकर लें।
गुण और उपयोग
यह अरिष्ट उत्कृष्ट दीपन, पाचन और ग्राही है। इसका प्रयोग करने से अतिसार, वाह और संग्रहणी रोग नष्ट होते हैं। अर्क सौंफ 5 तोला मिला कर पिलाने से यह पित्तातिसार और रक्तातिसार में अच्छा लाभ करता है।
वक्तव्य
यह धान्यपंचक क्वाथ का योग है। हम इसे शार्ङ्गधरोक्त आसवारिष्ट परिभाषा - विधि के अनुसार " धान्यपंचकारिष्ट" के नाम से बनाते हैं, क्योंकि क्वाथ शीघ्र विकृत हो जाता है, किन्तु इसमें सन्धान के कारण मद्यांश उत्पन्न होकर क्वाथ के गुणों को चिरस्थायी बना देने से यह क्वाथ की अपेक्षा उत्तम एवं गुणकारी होता है।
नारिकेलासव
नारियल का पानी 25 11 सेर 8 तोला, ईख का रस 12111 सेर 4 तोला, सेमल का क्वाथ 128 तोला, दशमूल- क्वाथ 128 तोला और दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर का जौकुट चूर्ण तथा धाय के फूल - प्रत्येक 64-64 तोला, कस्तूरी 3 माशे और केशर 3 माशा, तगर, सफेद चन्दन और लौंग का चूर्ण 4-4 तोला - सबको एकत्र मिला कर घृत के चिकने पात्र (मटका) में भरकर सन्धान करके 1 मास तक छोड़ दें, बाद में छानकर रख 1
वक्तव्य
दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर - सबको समान भाग मिलाकर 64 तोला लें। द्रवपदार्थों को द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण किया गया है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर प्रातः - सायं दें।
नोट-केसर और कस्तूरी पहले न डालकर, आसव तैयार हो जाने के बाद रेक्टीफाइड स्पिरिट' में घोंटकर डालें।
गुण और उपयोग
यह आसव पौष्टिक, बल-वीर्य बढ़ाने वाला और बाजीकरण है। इसके सेवन कामशक्ति की वृद्धि होती है ।
धातुक्षीणता छोटी आयु में अप्राकृतिक ढंग से शुक्र का नाश करने या अधिक स्वप्न दोष अथवा और भी किसी कारण से वीर्य पतला हो गया हो, वीर्य-वाहिनी नाड़ियाँ शिथिल होकर वीर्य धारण करने में असमर्थ हो गयी हों, अथवा इन कारणों से स्त्रीप्रसङ्ग का विचार होते ही वीर्यस्राव हो जाय या नामर्दी हो गयी हो, तो ऐसी हालत में इस आसव का सेवन करने से अच्छा लाभ होता है। इससे वीर्य विकार दूर हो, वीर्य गाढ़ा बन जाता तथा शरीर पुष्ट और बलवान हो जाता है।
पत्रांगासव
पतंगकाष्ठ, खैरसार, वासक मूल, सेमल के फूल, खरेंटी, शुद्ध भिलावा, सारिवा दोनों ( अनन्तमूल और श्यामलता ), गुड़हल की कली, आम की गुठली की मींगी, दारु-हल्दी, चिरायता, पोस्त के डोडे, जीरा सफेद, लौहचूर्ण या भस्म, रसोत, बेलगिरि, भांगरा, दालचीनी, केसर, लौंग — प्रत्येक 4-4 तोला लेकर मोटा चूर्ण बनावें । पश्चात् 211 सेर 8 तोला पानी में मुनक्का 1 सेर, धाय के फूल 64 तोला, खाँड 5 सेर, शहद (अभाव में पुराना गुड़) 211 सेर और उपरोक्त दवाओं का चूर्ण अच्छी तरह घोलकर उसे चिकने पात्र में भरकर सन्धान कर दें तथा एक मास पश्चात् छानकर रख लें। - भै. र.
वक्तव्य
इस योग में चीनी का परिमाण कम होने से खट्टापन होता है, अतः चीनी दुगुनी (10 सेर) मिलाने से ठीक बनता है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर खाना खाने के बाद दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से रक्त श्वेत प्रदर, दर्द के साथ रज निकलना, ज्वर, पाण्डु, सूजन, अरुचि, अग्निमान्ध, गर्भाशय के अवयवों की शिथिलता, कमजोरी, दुष्टार्तव आदि रोग नष्ट होते हैं।
इस आसव का प्रभाव स्त्रियों के कटि (कमर ) प्रदेश अवयवों पर विशेष होता है। यह स्त्रियों के कटि प्रदेश के अवयवों पर तो काम करता ही है, साथ ही उन अवयवों में किसी तरह के विकार न हों, इसे भी यह रोकता है। अतएव प्रत्येक स्त्री को लगातार एक-दो महीने अथवा साल भर में इसकी 2-3 बोतल अवश्य पीना चाहिए। इससे स्त्रियों की तन्दुरुस्ती तथा सुन्दरता ठीक बनी रहती है। स्त्रियों की तन्दुरुस्ती या सुन्दरता कटि प्रदेश पर ही निर्भर है।
कटि प्रदेश जितना नीरोग और स्वस्थ रहेगा, तन्दुरुस्ती भी उतनी ही अच्छी बनी रहेगी। इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
यह आसव गर्भाशय को भी बलवान बनाता है। गर्भ नहीं रहना अथवा गर्भ रह कर असमय में भी स्राव या पात हो जाना, मरा हुआ बच्चा पैदा होना, सन्तान होते ही मर जाना, अथवा रोगी सन्तान होना, आदि-आदि उपद्रवों में भी इसका लगातार कुछ रोज तक बराबर सेवन करते रहने अच्छा फायदा होता है। साथ में चन्द्रप्रभाबटी का भी उपयोग करने से विशेष लाभ होता है।
पर्पटाद्यरिष्ट
5 सेर पित्तपापड़ा को जौकुट कर 1 मन 11 सेर 16 तोला जल में क्वाथ करें। 12 सेर 12 छटाँक 4 तोला जल शेष रहने पर छान लें। फिर इसमें पुराना गुड़ 10 सेर, धाय के फूल 12 छटाँक 4 तोला मिला दें तथा गिलोय, नागरमोथा, दारूहल्दी, छोटी कटेरी, धमासा, चव्य, चित्रक-मूल, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, वायविडंग - ये प्रत्येक द्रव्य 4-4 तोला लेकर जौकुट चूर्ण करके मिला दें और सब सामान को पात्र में भर कर एक माह तक सन्धान करें ।
एक माह पश्चात् तैयार हो जाने पर छान कर सुरक्षित रख लें।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से समस्त प्रकार के कठिन पाण्डु रोग, गुल्म, उदर रोग, अष्ठीला, कामला, हलीमक, प्लीहा-वृद्धि, यकृत्वृद्धि, शोथ और विषमज्वरों को शीघ्र नष्ट करता है। इनमें मुख्य औषधि पित्तपापड़ा है, जो कि उत्तम पित्तशामक, सौम्य और हृदय को बल देने वाली है।
पार्थाद्यारिष्ट (अर्जुनारिष्ट )
अर्जुन की छाल 5 सेर, मुनक्का 211 सेर, महुवे के फूल 1 सेर लेकर सबको 1 मन 11 सेर 16 तोला पानी में पकावें । चौथाई (12111 सेर 4 तोला) पानी शेष रहने पर छान लें। फिर उसमें 1 सेर धाय के फूल और 5 सेर गुड़ मिलाकर उसे मिट्टी के चिकने बर्तन (मटका) में भरकर सन्धान करके 1 मास रहने दें, बाद में छान कर रख लें। -भै. र.
वक्तव्य
इस योग में अर्जुन छाल का रस प्रधान होने से गुड़ 5 सेर के स्थान पर 8 सेर मिलाने से उत्तम है। वर्तमान वैद्यसमाज में यह अर्जुनारिष्ट नाम से अधिक प्रचलित है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, प्रातः - सायं भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर देवें ।
गुण और उपयोग
इसके उपयोग से हृदय की कमजोरी, दिल की धड़कन एवं फेफड़ों के विकार नष्ट होते हैं। यह हृदय को ताकत देता, हार्ट फेल नहीं होने देता तथा हृदय की निर्बलता को दूर कर बलवान बना देता है।
पिप्पल्यासव
पीपल, काली मिर्च, चव्य, हल्दी, चीतामूल, नागरमोथा, वायविडंग, सुपारी, लोध पाठा (जलजमनी), आंवला, एलुआ, खस, सफेद चन्दन, कूठ, लौंग, तगर, जटामांसी, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, प्रियंगु, नागकेशर - प्रत्येक 2-2 तोला – इनका मोटा चूर्ण कर लें। पश्चात् 25 ।। सेर 8 तोला जल में धाय के फूल आधा सेर, मुनक्का 3 सेर, गुड़ 15 सेर लेकर मिला दें एवं उपरोक्त दवाओं का चूर्ण भी उसमें मिला कर, चिकने मटके (पात्र) में भर कर, यथाविधि सन्धान कर, आसव तैयार कर लें। - भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, प्रातः - सायं भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से ग्रहणी, पाण्डु, अर्श, क्षय, गुल्म, उदर रोग, संग्रहणी आदि रोग नष्ट होते हैं। यह अग्निदीपक, पाचक और भूख बढ़ाने वाला है, आँतों की कमजोरी दूर कर बलवान बनाता है। श्वास और खाँसी में भी इसके सेवन से बड़ा उत्तम लाभ होता है। जीर्णज्वर में साथ ही मन्दाग्नि भी हो, तो इसका उपयोग दोनों में श्रेष्ठ गुणदायी है।
पुनर्नवारिष्ट
सफेद और लाल पुनर्नवा, बला, अतिबला, आकनादि पाठा, गिलोय, चित्रक की जड़, छोटी कटेली और वासा मूल - प्रत्येक 12-12 तोला लेकर सबको कूट कर 1 मन 11 सेर 16 तोला पानी में पकावें। चौथाई (12111 सेर 4 तोला) पानी शेष रहने पर छान लें। फिर उसमें 10 सेर गुड़ और 64 तोला शहद ( अभाव में पुराना गुड़) मिला, पात्र में डाल कर सन्धान करके 1 मास तक रखा रहने दें। बाद में तैयार जाने पर इसमें नागकेशर, दालचीनी, इलायची बड़ी, काली मिर्च, सुगन्धबाला (खस) और तेजपात का चूर्ण 2-2 तोला लेकर मिला दें। कुछ दिन के बाद छानकर उपयोग में लावें ।
वक्तव्य
इस योग में गुड़ का परिमाण अधिक होने से द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार जल द्विगुण लिया है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, दोनों समय भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पाण्डु, हृद्रोग, बढ़ा हुआ शोथ, प्लीहा, भ्रम, अरुचि, प्रमेह, गुल्म, भगन्दर, अर्श, उदर रोग, खाँसी, श्वास, संग्रहणी, कोढ़, खुजली, शाखागत वायु, मल बन्ध, हिचकी, किलास, कुष्ठ और हलीमक रोग नष्ट होते हैं।
इस अरिष्ट का प्रभाव वृक्क (मूत्रपिण्ड), यकृत- प्लीहा और हृदय पर विशेष रूप से होता है । अतएव प्लीहा की विकृति के कारण अथवा मूत्रपिण्ड की विकृति के कारण उत्पन्न हुए शोथ अथवा हृदय की निर्बलता आदि यह शीघ्र नष्ट करता है। यह हृदय को ताकत पहुंचाता और उसे अपने कार्य करने में समर्थ बनाता है।
शोथ (सूजन) की उग्रावस्था में
रस-रक्तादि धातु कमजोर हो जाते हैं। पाचक पित्त की शिथिलता के कारण मन्दाग्नि और शरीर में जल भाग की वृद्धि हो रक्तकणों का ह्रास हो जाता है। फिर शरीर कान्तिहीन, पीला तथा सफेद - मायल दीखने लगता है। शोथ के रोगी को पेशाब या दस्त साफ नहीं आता।
अतएव इसकी चिकित्सा करते समय ऐसी दवा का उपयोग करना चाहिये, जो मूत्र (पेशाब) साफ लावे तथा दस्त भी खुलकर हो। इससे शरीर में रुका हुआ दूषित विकार मल-मूत्र द्वारा निकल जाता है और सूजन भी घटने लगती है। इसके साथ में यदि सारिवाद्यासव भी थोड़ा मिलाकर दिया जाय, तो बहुत शीघ्र फायदा करता है। इससे रक्त की वृद्धि होती है तथा शुद्ध रक्त तैयार होता है।
पाण्डु रोग में
पाण्डु रोग जब पुराना हो जाता है और शरीर में इस रोग की जड़ अच्छी तरह जम जाती हैं, तब शरीर का रंग पाण्डु वर्ण का हो जाता, हाथ, मुँह, पाँव आदि सूज जाते हैं, ज्वर भी होने लगता तथा प्लीहा और यकृत् भी बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था में पुनर्नवारिष्ट नवायस लौह के साथ उपयोग करने से बहुत शीघ्र लाभ होते देखा गया है।
फलारिष्ट
बड़ी हर्रे और आंवला 64-64 तोला, इंद्रायन के फल, कैथ का गूदा, पाठा, चित्रकमूल — प्रत्येक 8-8 तोला लेकर सबको कूट कर 2511 सेर 8 तोला पानी में पकावें। जब 6 सेर 6 छटाँक 2 तोला पानी शेष रह जाय, तो छान कर उसमें 5 सेर गुड़ मिला कर यथाविधि मिट्टी के चिकने पात्र में भर, उसका सन्धान करके रख दें। 15 दिन पश्चात् छान कर रख लें। - चरक संहिता
वक्तव्य
इसमें सन्धान-क्रिया ठीक से हो इसके लिये धायफूल 8 तोला प्रक्षेप में डालें।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर भोजन के बाद दें।
गुण और उपयोग
यह अरिष्ट ग्रहणी, अर्श, हृद्रोग, पाण्डु, प्लीहा, कामला, विषम ज्वर, वायु तथा मल-मूत्र का अवरोध, अग्निमांद्य, खाँसी, गुल्म और उदावर्त का नाश करता तथा जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।
यह दीपन- पाचन, पुष्टिकारक और बलवर्द्धक है। यह शरीर में रक्त के कणों को बढ़ाता है और रक्त को शुद्ध करता तथा हृदय विकार — जैसे हृदय कमजोर हो जाना या ज्यादा धड़कना, घबराहट आदि विकारों को दूर करता है ।
पाचक पित्त को उत्तेजित करने वाला है । अतएव यह अग्निदीपक तथा भूख बढ़ाने वाला और उदावर्त नाशक है।
मलेरिया ज्वर अधिक दिन तक आने की वजह से शरीर में रक्त की कमी हो जाती और प्लीहा बढ़ जाती है। यही रोग जब पुराना हो जाता है, तब पाण्डु, कामला आदि रूप में प्रकट हो जाता है। ऐसी अवस्था में यह अरिष्ट, विषमज्वरांतक लौह अथवा सुदर्शन चूर्ण के साथ देने से बहुत लाभ करता है ।
बलारिष्ट
बला (खरेंटी) का पंचांग 5 सेर, असगन्ध 5 सेर- इनको जौकुट करके 102 सेर 6 छटाँक 2 तोला जल में क्वाथ करें, 25 सेर 9 छटाँक 3 तोला जल शेष रहने पर छान लें। पश्चात् इसमें पुराना गुड़ 3 तोला (15 सेर) डालकर घोल दें, फिर इसमें धाय के फूल 64 तोला, क्षीरकाकोली, एरण्डमूल - प्रत्येक 8-8 तोला, रास्ना, बड़ी इलायची, प्रसारणी, लौंग, उशीर, गोखरू - बीज — प्रत्येक 4-4 तोला लेकर जौकुट चूर्ण करके मिलावें और सब सामान को पात्र में भर दें, पश्चात् एक माह बाद तैयार हो जाने पर छानकर सुरक्षित रखें। - भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
यह औषध उत्तम वातनाशक, पुष्टिकारक, बलवर्द्धक और जठराग्नि प्रदीपर्क है। इसके सेवन से समस्त प्रकार के कठिन से कठिन वातव्याधि रोग नष्ट होते हैं और खाँसी, श्वास, राजयक्ष्मा, प्रमेह तथा बलक्षय में भी लाभकारी है। यह स्नायुमण्डल को भी पुष्ट करता है ।
बब्बूलारिष्ट
10 सेर बबूल की छाल को 2 मन 22 सेर 32 तोला पानी में पकावें, जब चौथाई (25 11 सेर 8 तोला) पानी शेष रह जाये, तो छान कर ठंडा करके उसमें 25 सेर गुड़, धाय के फूल 64 तोला, पीपल का चूर्ण 8 तोला तथा जायफल, लौंग, कंकोल, बड़ी इलायची, दालचीनी, तेजपात, नागकेशर और काली मिर्च - प्रत्येक का मोटा चूर्ण 4-4 तोला, सबको चिकने मटके (पात्र) में भर कर उसका संधान करके 1 माह तक रखा रहने दें। एक माह बाद
तैयार हो जाने पर छान कर रख लें। -भै. र.
वक्तव्य
इस योग में गुड़ का परिमाण अधिक होने के कारण जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिला कर, भोजन के बाद दोपहर और शाम को दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से क्षय, सोमरोग, उरःक्षय, दमा, खाँसी, रक्तपित्त, मूत्रविकार, रक्तविकार, अतिसार, कुष्ठ, प्रमेह आदि रोग नष्ट होते हैं।
यह अरिष्ट कफ को दूर करता है और श्वासनली को साफ करता तथा खाँसी के साथ आने वाले खून को रोकता है। अग्नि को दीप्त कर हाजमा ठीक करता है।
क्षय रोग में जब खाँसी और ज्वरादि उपद्रवों की अधिकता हो, खाँसी के साथ खून मिश्रित कफ निकलता हो, शरीर कमजोर हो, दुर्बलता, अग्निमान्ध आदि उपद्रव विशेष हों, तो ऐसी दशा में इसका उपयोग किया जाता है।
दमा या खाँसी की उग्रावस्था में बब्बूलारिष्ट और द्राक्षारिष्ट दोनों समभाग में एकत्र मिलाकर देने से बहुत शीघ्र लाभ करता है। विशेषकर सूखी खाँसी में, जिसमें खाँसते - खाँसते रोगी बेचैन हो जाता है। भूख नहीं लगती हो, कफ छाती में जमा हुआ हो, तो ऐसी हालत में इस दवा के साथ-साथ चन्द्रपुटी प्रवाल और सितोपलादि चूर्ण, वासावलेह आदि का भी उपयोग करते रहने से शीघ्र फायदा होता है।
वासारिष्ट
10 सेर वासा - पंचाङ्ग को कूट कर 1 मन 11 सेर 16 तोला पानी में पकावें, 12111 सेर 4 तोला पानी शेष रहने पर छान लें, फिर उसमें 5 सेर गुड़, धाय के फूल 32 तोला, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, नागकेशर, कंकोल, सोंठ, मिर्च, पीपल और सुगन्धवाला का मोटा चूर्ण - प्रत्येक 4-4 तोला लेकर सबको मिला, चिकने मटके (पात्र) में भर कर सन्धान कर दें। 1 माह बाद तैयार हो जाने पर उसे छान कर सुरक्षित रख लें। -भा. भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, खाना खाने के बाद दोनों समय बराबर जल मिला कर दें।
गुण और उपयोग
यह सब प्रकार की खाँसी को दूर करता तथा शरीर को पुष्ट कर बलवान बनाता है। यह काम - शक्ति को भी बढ़ाता तथा बन्ध्या स्त्री को सन्तानोत्पत्ति की शक्ति प्रदान करता है। खाँसी दूर करने के अतिरिक्त यह पौष्टिक, वीर्यवर्द्धक तथा हाजमा को ठीक करने वाला है।
इसका उपयोग शोथ रोग नष्ट करने के लिये भी किया जाता है। कफ-प्रधान शोथ में जल भाग की वृद्धि एवं रक्ताणुओं की भी कमी होने पर वहाँ सूजन हो जाती है। सूजन को अंगुली से दबाने पर गड्ढा हो जाता है, जो फिर धीरे-धीरे भरता रहता है । यही इसकी पहचान है । ऐसी सूजन को मिटाने तथा कफ को शान्त करने के लिए इसका उपयोग करने से बहुत शीघ्र लाभ होता है।
वासक में लौह का अंश होने से वह कफ दोष को नष्ट करता तथा रक्ताणुओं की शरीर में वृद्धि कर, जल भाग को सुखा कर शोथ (सूजन) कम कर देता है, जिससे फिर धीरे-धीरे शरीर बलवान, पुष्ट और सुन्दर स्वस्थ बन जाता है। इसका प्रभाव गर्भाशय पर भी होता है।
प्रदर, श्वेतप्रदर अथवा रजो - विकार या और भी किसी कारण से गर्भाशय कमजोर हो गया हो अथवा गर्भाशय की खाल मोटी हो गयी हो, शरीर की चर्बी ज्यादे बढ़ जाने के कारण गर्भाशय का मुँह ढक गया हो और इन कारणों से यदि सन्तान न होती हो, तो इस आसव का सेवन लगातार कुछ दिनों तक करावें । इसके साथ ही चन्द्रप्रभा बटी आदि का भी उपयोग कराते रहने से गर्भाशय का दोष दूर हो, स्त्री सुन्दर और स्वस्थ सन्तान पैदा करती है।
यदि स्त्री-पुरुष के रज- वीर्य की कमजोरी से सन्तानोत्पत्ति में बाधा हो, तो दोनों को इसका सेवन करना चाहिए। साथ ही, जब तक यह दवा चालू रखें, ब्रह्मचर्य से रहें ।
विडंगासव (विडंगारिष्ट )
वायविडंग, पीपलामूल, रास्ना, कुड़ा की छाल, इन्द्रजौ, पाठा, एलबालुक (एलुवा), आँवला - प्रत्येक 20-20 तोला लेकर जौकुट करके 2 मन 22 सेर 32 तोला जल में क्वाथ करें। 12 ।। सेर 4 तोला जल शेष रहने पर ठण्डा करके छान लें। पश्चात् उसमें शहद (अभाव में पुराना गुड़) 15 सेर, धाय के फूल 1 सेर, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात --- ये तीनों द्रव्य मिश्रित 8 तोला, प्रियंगु, कचनार की छाल, लोध - प्रत्येक 4-4 तोला, सोंठ, काली मिर्च, पीपल – ये तीनों मिश्रित 32 तोला लेकर जौकुट करके मिलावें । पश्चात् घृतलिप्त पात्र में भर कर 1 माह तक सन्धान करें, एक माह बाद छान कर सुरक्षित रख लें। — भै. र..
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक दोनों समय भोजन के बाद, समान भाग जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसके उपयोग से उदर कृमि, विद्रधि, गुल्म, उरूस्तम्भ, अश्मरी, प्रमेह, प्रत्यष्ठीला, भगन्दर, गण्डमाला, हनुस्तम्भ – इन रोगों को यह शीघ्र नष्ट करता है ।
भृङ्गराजासव
भृङ्गराज (भांगरा) स्वरस 32 सेर, गुड़ 1211 सेर, हरड़ आधा सेर, पीपल, जायफल, लौंग, दालचीनी, बड़ी इलायची, तेजपात, नागकेशर - प्रत्येक 10-10 तोला और धाय के फूल एक सेर लेकर जौकुट चूर्ण कर मिलावें तथा सब सामान को घृतलिप्त पात्र में भर दें । पश्चात् एक माह तक सन्धान करें, बाद में छानकर सुरक्षित रख लें। - ग. नि.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद दें।
वक्तव्य
ताजे हरे भांगरे के स्वरस के अभाव में, सूखा भांगरा 16 सेर लेकर 128 सेर जल में क्वाथ करें, 32 सेर जल शेष रहने पर छानकर काम में लें। मूलपाठ में 15 दिन मात्र सन्धान करने का विधान है, किन्तु अनुभव से ज्ञात हुआ है कि इतने अल्प समय में सन्धान ठीक से नहीं होता है, अतएव एक माह तक सन्धान करना ही ठीक है।
गुण और उपयोग
इस आसव के उपयोग से सभी प्रकार के धातु-क्षय और राजयक्ष्मा रोग नष्ट होते हैं। पांचों प्रकार की खाँसी और कृशता को नष्ट करता है। यह बलकारक और कामोद्दीपक है।
इसके सेवन से बन्ध्यत्व दूर हो स्त्री सन्तानवती होती है । धातुक्षय के रोगी को इसका प्रयोग कराने से, मूत्र के साथ निकलने वाली धातु को रोकता है। यह आसव सुस्ती, निर्बलता, प्रमेह, स्मरण शक्ति की कमी, नेत्र रोग, श्वास रोग, नजला के कारण होने वाले नेत्र विकार, असमय में बालों का सफेद होना इत्यादि विकारों को भी नष्ट करता तथा दूषित रक्त को शुद्ध करता है।
मध्वारिष्ट
शहद 53 = 1 तोला, पानी 53 = 1 तोला, वायविडंग 8 तोला, पीपल 16 तोला, बंशलोचन, नागकेशर, कालीमिर्च - प्रत्येक 4-4 तोला, दालचीनी, इलायची, तेजपात, कचूर, सुपारी, अतीस, नागरमोथा, रेणुका, एलबालुक, तेजबल, पीपलामूल, चित्रकमूल प्रत्येक 1-1 तोला लेकर कूटने योग्य चीजों को मोटा कूट लें। फिर शहद में जल और पीपल का चूर्ण मिला कर कुछ शहद और अगर से धूप दिये चिकने मटके (पात्र) में भर दें, उसी में उपरोक्त अन्य दवाओं के चूर्ण को डालकर सन्धान कर 1 माह तक रखा रहने दें। बाद में तैयार हो जाने पर छान कर रख लें। —च. चि.
वक्तव्य
इसमें सन्धानार्थ धायफूल 10 तोला प्रक्षेप रूप में डालने से ठीक बनता है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, खाना खाने के बाद, बराबर शीतल जल मिलाकर दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से मन्दाग्नि और विषमाग्नि-विकार दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह अरिष्ट हृद्रोग, पाण्डु, ग्रहणी, कुष्ठ, अर्श, ज्वर, शोथ और वातज तथा कफज जन्य रोगों को भी नष्ट करता है।
जठराग्नि की विकृति में, भूख नहीं लगना, खाई हुई चीजें ठीक से हजम न होना, खट्टी डकारें आना, कभी सुबह, कभी शाम और कभी रात को भूख लगना, कभी दो-दो दिन तक भूख नहीं लगना, पेट भारी मालूम पड़ना, दर्द भी होना, जी मिचलाना आदि लक्षण उपस्थित होते हैं।
ऐसी अरिष्ट लवण भास्कर चूर्ण या क्रव्याद रस अथवा हिंग्वाष्टक चूर्ण आदि के साथ देने से बहुत फायदा करता है, क्योंकि यह पाचक पित्त को प्रदीप्त कर जठराग्नि को बढ़ाता है तथा हाजमे को भी ठीक करता है ।
मन्दाग्नि से उत्पन्न होने वाले पाण्डु, ग्रहणी आदि रोगों में भी इससे बहुत फायदा होता है। पौष्टिक पदार्थों के अधिक सेवन करने से शरीर में (चर्बी) की वृद्धि हो जाती है। इससे चलने-फिरने, परिश्रम करने में दिक्कत होती है— ऐसे व्यक्तियों को मध्वारिष्ट सेवन से उत्तम लाभ होता है।
मस्त्वासव
मस्तु (दही का पानी) 1211 सेर 4 तोला लेकर उसमें 5 सेर गुड़ मिलावें तथा पीपल 64 तोला और हर्रे, बहेड़ा, आँवला 64-64 तोला, वायविडंग, कालीमिर्च, मुनक्का, गम्भारी के फल और फालसा के फल, इन्द्रजौ - प्रत्येक 16-16 तोला, शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली दोनों, गोखरू, वच, दन्तीमूल, चित्रकमूल और शुद्ध भिलावा – प्रत्येक 8-8 तोला, इनको जौकुट कर उपरोक्त वस्तु में मिला, मिट्टी के चिकने एवं बच और कूठ का लेप किये बर्तन में भरकर, उसको सन्धान कर, 1 माह तक छोड़ दें। बाद में तैयार होने पर छान कर रख लें।
वक्तव्य
इसमें सन्धानार्थ 16 तोला धायफूल प्रक्षेप में डालने से उत्तम बनता है ।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, सुबह- शाम, बराबर जल मिला कर देना चाहिए ।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से पाण्डुरोग, उदररोग, ग्रहणी विकार, अर्श (बवासीर), भगन्दर, प्लीहा, शोष, खाँसी, आमवात, बाधिर्य ( बहरापन), मोटापा आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। इसका उपयोग ग्रहणी और अर्श रोग में विशेष किया जाता है। यह रोचक, पाचक, दीपक और लेखन है । कृमिरोगनाशक और कोष्ठस्थ वात - शामक भी है।
मृगमदासव
मृतसंजीवनी सुरा (अथवा रेक्टीफाइड स्पिरिट ) 211 सेर, शहद 1। सेर, पानी 11 सेर, कस्तूरी 16 तोला, तथा काली मिर्च, लौंग, जायफल, पीपल, दालचीनी - प्रत्येक 8-8 तोला लेकर प्रथम कस्तूरी को सुरा में घोल लें, फिर सब चीजों को काँच के पात्र में भर कर, उसका मुख बन्द करके रख दें। 1 माह बाद निकाल कर, छान कर बोतलों में भरकर रख लें। -भै. र.
मात्रा और अनुपान
10 से 15 बूँद, 1 तोला जल अथवा चीनी या बताशे में मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से हैजा, हिचकी और सन्निपात ज्वरादि में कोष्ठ और बल का विचार कर उचित मात्रा में प्रयोग करने ये सब रोग दूर हो जाते हैं। कफ-प्रधान सन्निपात (निमोनिया) तथा बच्चों को होनेवाले ब्रोंकाइटिस, निमोनिया तथा कफ-प्रधान श्वास और खाँसी में इसके दिन-रात में आवश्यकतानुसार कई बार सेवन करने से बहुत उत्तम लाभ होता है । शीताङ्ग हुए मरणासन्न रोगियों को भी इसे सेवन कराने पर चेतना एवं शरीर में गर्मी उत्पन्न हो जाती है।
मुँह द्वारा न पी सकने की स्थिति में आधी शीशी (30 बूँद दवा) का शिरान्तर्गत सूचीवेध देना चाहिए। इसमें बहुत शीघ्र ही लाभ होता है।
विसूचिका (हैजा ) की अत्युग्रावस्था में
जब सम्पूर्ण शरीर शीतल हो गया हो, नाड़ी क्षीण, बेहोशी, वमन और दस्त अनायास हो रहे हों, प्यास ज्यादा हो, शरीर में ऐंठन हो, शरीर की कान्ति नष्ट हो गयी हो, चेहरा काला पड़ गया हो, ऐसी अवस्था में यह आसव अमृत के समान गुण करता है।
हिचकी
प्रकुपित वायु का ऊर्ध्वगति होना ही हिचकी कहलाती है। यह आठ प्रकार की होती है । अन्नजा (खाना खाने के बाद जो हिचकी होती है, उसको अन्नजा कहते हैं), यमला (एक ही बार में दो बार हिचकी होने को यमला कहते हैं), क्षुद्रा ( यह बहुत धीरे-धीरे होती), गम्भीरा (यह हिचकी नाभिस्थान से उठती है और इसमें सब नसें खिंचने लगती हैं), महती ( यह हिचकी जब होती है तो जोर के साथ आवाज होती है ), इनमें वायु की ही प्रधानता रहती है। ऐसी दशा में यह आसव थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन भर में 3-4 बार देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है।
सन्निपात ज्वर में
तीनों दोषों का प्रकोप रहता है। इसमें वायु प्रधान सन्निपात में-अक- बक बकना ( प्रलाप ), बेहोशी, शरीर में दर्द, हृदय की कमजोरी, नाड़ी क्षीण, हाथ-पाँव ठण्डे पड़ जाना, ज्वर गम्भीर रूप में रहना आदि अवस्था उत्पन्न होने पर हृदय को ताकत पहुँचाने के लिये अन्य दवाओं के साथ-साथ इसका भी प्रयोग स्वतन्त्र रूप से अथवा किसी दवा में मिलाकर किया जाता है। इससे रोगी ज्यादा जोर से प्रलाप नहीं करता तथा निद्रा भी आ जाती है।
अण्ट-सण्ट बकना भी बन्द हो जाता है। हृदय भी बलवान हो जाता है और नाड़ी की चाल भी ठीक स्थिति पर आ जाती है। यह पौष्टिक भी है। स्वस्थ आदमी अपने शरीर में ताकत बढ़ाने के लिए अंगूर, सेब, सन्तरा, बेदाना आदि फलों के रस साथ इसका व्यवहार करते हैं।
नियमित रूप से कुछ दिनों तक इसका व्यवहार करने से शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाता है।
महामञ्जिष्ठाद्यरिष्ट
मंजीठ, नागरमोथा, कुड़े की छाल, गिलोय, कूठ, सोंठ, भारंगी, छोटी कटेरी, बच, नीम की छाल, हल्दी, दारुहल्दी, बहेड़ा, हरड़, आँवला, पटोल पत्र, कुटकी, मूर्वा, वायविडंग, विजयसार, सखुवा की छाल (शाल), शतावर, त्रायमाणा (बनप्सा), गोरखमुण्डी, इन्द्रजौ, वासे की जड़, भांगरा, देवदारु, पाठा, खदिरकाष्ठ लालचन्दन, निशोथ, वरुण की छाल, करंज की छाल, अतीस, खस, इंद्रायण की जड़, धमासा, अनन्तमूल, पित्तपापड़ा - प्रत्येक 1-1 सेर लेकर 9 मन जल में पकावें, 21 मन जल शेष रहने पर ठण्डा करके छान लें, फिर उसमें गुड़ 35 सेर 12 तोला 6 माशे, धाय के फूल 3 ।। सेर मिलाकर घृतलिप्त पात्र में भर दें
और एक मास तक सन्धान करें। एक माह पश्चात् छानकर सुरक्षित रख लें। - सि. यो. सं. के आधार पर
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इस औषधि के उपयोग से कुष्ठ रोग, वातरक्त, अर्दित, मेदोवृद्धि, श्लीपद (फीलपांव) रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त रक्तदुष्टिजन्य त्वचारोग, खाज-खुजली, फोड़े-फुन्सी- आदि में अकेला या गन्धक रसायन अथवा शुद्ध गन्धक या रसमाणिक्य या अन्य किसी रक्तदुष्टिनाशक औषधि के अनुपान के साथ इसके प्रयोग से अच्छा लाभ होता है। यह श्रेष्ठ रक्तशोधक औषध है।
वक्तव्य
सिद्धयोग संग्रह में महामञ्जिष्ठादि कषाय के नाम से जो योग है, उसी को चिरस्थायी एवं गुणवृद्धियुक्त करने के लिये हम शार्ङ्गधरोक्त आसव-अरिष्ट को परिभाषानुसार बनाकर "महामञ्जिष्ठाद्यरिष्ट" के नाम से व्यवहार करते हैं।
मृतसंजीवनी सुरा
नवीन गुड़ 61 सेर, बबूल की छाल, बेर की छाल और सुपारी 1-1 सेर, लोध 20 तोले, अदरक 10 तोले लेकर कूटने योग्य चीजों को कूट लें तथा अदरक को पत्थर पर पीस लें। पश्चात, सबसे पहले 8 गुने पानी में गुड़ को घोलें। फिर उसमें क्रमशः अदरख, बबूल छाल, बेर की छाल तथा अन्य औषधियां मिला दें और सबको चिकने मटके (पात्र) में भरकर उसको ढक्कन लगा, यत्नपूर्वक सन्धान कर दें। 20 दिन पश्चात उसे निकाल कर मयूर यन्त्र अथवा मोचिका यन्त्र (भबका) में डालकर चूल्हे पर रख मन्दाग्नि से अर्क खींचते समय उसमें निम्नलिखित चीजों का चूर्ण भी डाल देना चाहिए ।
जायफल, सुपारी, एलबालुक, देवदारु, लौंग, पद्माख, खस, सफेद चन्दन, सोया, अजवायन, काली मिर्च, सफेद जीरा, स्याह जीरा, कचूर, जटामांसी, दालचीनी, इलायची, नागरमोथा, गठिवन, सोंठ, मेथी, मेंढासिंगी, चन्दन - प्रत्येक 211-211 तोला । इस प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति इस अर्क (सुरा) को नाडिका यन्त्र ( भबका) से खींचकर रख लें। - सि. भे. म.मा.
वक्तव्य
प्रायः वैद्य सुपारी और एलबालुक आदि प्रक्षेप द्रव्यों को भी जौकुट करके संधान करते समय ही मिला देते हैं, जिससे उसमें उनके गुण (कार्यकारी तत्व) अच्छी तरह आ जाते हैं । इसमें मद्यांश प्रतिशत (Alcoholic Percentage) अधिक होता है । अतः इसे आबकारी कानून के अनुसार लाइसेन्स लेकर बनाना होता है तथा जितना तैयार होती है उस पर आबकारी कर (Excise Duty) चुका कर ही बिक्री आदि के व्यवहार में लिया जा सकता है।
मात्रा और अनुपान
6 माशे से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसे यथोचित मात्रा के अनुसार सेवन करने से देह सृदृढ़ होती तथा बल वर्ण की वृद्धि होकर शरीर की कान्ति अच्छी होती जाती है । हैजा अथवा सन्निपात ज्वर में भी शरीर ठण्डा हो जाने पर इस दवा का उपयोग किया जाता है।
यह पौष्टिक, अग्निवर्द्धक और प्रकुपित वायुनाशक तथा स्फूर्ति और पराक्रम पैदा करने वाली है।
यह प्रसूता स्त्री की कमजोरी दूर कर बलवृद्धि करती है और स्वप्नदोष या विशेष वीर्यपात से होने वाली कमजोरी को दूर करती है । बल और वीर्य की वृद्धि कर कामोत्तेजना को बढ़ाती है। शीतकाल में सेवन से ठंडक कम अनुभव होती है, क्योंकि यह गर्मी पैदा करती है।
प्रसूता स्त्री को प्रसव के बाद नियमित आहार या उपचार के अभाव से वायु प्रकुपित हो अनेक उपद्रव उत्पन्न कर देता है। जैसे- ज्वर होना, शरीर भर में विशेषकर गांठों और कमर तथा हाथ-पैर आदि में दर्द होना, भूख न लगना, उठते-बैठते चक्कर - सा आना, अन्न में अरुचि, हाजमे की गड़बड़ी, पेट फूल जाना, कभी-कभी पतला दस्त हो जाना आदि उपद्रव होने पर यह औषधि देने से बहुत शीघ्र लाभ करती है।
निमोनिया, सन्निपात ज्वर अथवा हैजा में शरीर बहुत जल्द ठण्डा हो जाता है। इसका कारण यह है कि इन रोगों का प्रभाव सबसे पहले हृदय और रक्तवाहिनी शिराओं पर पड़ता है, जिससे हृदय की गति में अन्तर पड़ जाता अर्थात् गति मन्द हो जाती है। फिर नाड़ी भी मन्द मन्द चलने लगती है और खून का संचार ठीक न होने से उसमें गर्मी की जगह शीतलता आ जाती है। इस हालत में शरीर का शीतल हो जाना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था दवाओं के साथ थोड़ा-थोड़ा इस महौषधि का भी उपयोग करना बहुत लाभदायक होता है।
इससे रक्त में गर्मी आकर शरीर गर्म हो जाता तथा हृदय की गति भी ठीक पर आ जाती है. और नाड़ी भी ठीक-ठीक चलने लगती है। श्वास- दमा तथा खाँसी के बढ़े हुए वेग को तुरन्त शमन करती है।
यह पौष्टिक और बाजीकर होने के कारण शरीर की पुष्टि तथा वाजीकरण के लिए भी लोग इसका प्रयोग करते हैं।
मुस्तकारिष्ट
नागरमोथा 1211 सेर को जौकुट करके 128 सेर जल में पकावें, 32 सेर पानी शेष रहने पर छान लें, पश्चात् उसमें गुड़ 1811 सेर, धाय के फूल 1 सेर, अजवायन, सोंठ, कालीमिर्च, लौंग, मेथी, चित्रक-मूल की छाल, सफेद जीरा - प्रत्येक 10-10 तोला लेकर जौकुट कर मिलावें । फिर सबको घृतलिप्त पात्र में भरकर 1 मास तक सन्धान करें। एक मास पश्चात् तैयार हो जाने पर सुरक्षित रख लें। - भा. भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद, बराबर जल मिलाकर दें ।
गुण और उपयोग
इस अरिष्ट के उपयोग से जीर्ण और नवीन अतिसार तथा संग्रहणी रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त यह अजीर्ण, मन्दाग्नि, विसूचिका (हैजा ) और उदर रोगों को नष्ट करता है और दस्त के पतलेपन को गाढ़ा कर देता तथा प्रकुपित उदरवात को शमन कर जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।
मण्डूराद्यरिष्ट
शुद्ध मण्डूर-चूर्ण 3 सेर 10 तोला, शुद्ध लोह चूर्ण 3 सेर 10 तोला, पुराना गुड़ 3 सेर 10 तोला, बेर की छाल 3 सेर, दन्तीमूल, चित्रक मूल - प्रत्येक 10-10 तोला, पीपल और वायविडंग 20-20 तोला, हरड़, बहेड़ा, आंवला - प्रत्येक 1-1 सेर लेकर कूटने योग्य द्रव्यों का जौकुट चूर्ण करें, फिर 32 सेर पानी में मिलाकर घृतलिप्त - चिकने पात्र में भर कर सन्धि बन्द करके 15 दिन तक सन्धान करें। 15 दिन बाद छानकर सुरक्षित रख लें। - यो. र.
वक्तव्य
द्रव - द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार जल का परिमाण द्विगुण लिया गया है। इस योग में आसवारिष्ट के मूलोत्पादक द्रव्य गुड़ का परिमाण कम होने से सन्धान क्रिया समुचित नहीं हो पाती, अतः गुड़ भी द्विगुण देना चाहिये ।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक दोनों समय भोजन के बाद, समान भाग जल मिला कर दें।
गुण और उपयोग
इस आसव (अरिष्ट) के उपयोग से शरीर के ऊर्ध्व तथा अधोभाग में होने वाले विकार नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त पाण्डु, कामला, कृमि रोग कुष्ठ, कास, श्वास (दमा) तथा कफजनित रोग और शोथ (सूजन) को नष्ट करता है। यकृत् - प्लीहावृद्धि और रक्ताल्पता (एनीमिया) की यह सर्वश्रेष्ठ दवा है। हृदय रोग में उत्तम लाभकारी है।
रोहितकारिष्ट
रोहेड़े की छाल 5 सेर को जौकुट करके 2 मन 22 सेर 32 तोला पानी में पकावें । जब 2511 सेर 8 तोला पानी शेष रहे, तब छान लें। फिर इस काढ़े में 10 सेर गुड़ और धाय के फूल 64 तोला तथा पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, दालचीनी, तेजपात, बड़ी इलायची, हर्रे, बहेड़ा, आमला प्रत्येक 4-4 तोला लेकर मोटा चूर्ण बना, उपरोक्त काढ़े में मिला, मिट्टी के चिकने बर्तन (मटके) में रखकर सन्धान कर एक माह तक रखा रहने दें। फिर एक माह बाद तैयार हो जाने पर मिलाकर छान लें। -भा. भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, बराबर जल मिलाकर खाना खाने के बाद, दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से तिल्ली, यकृत्, वायुगोला, अग्निमान्द्य, कुष्ठ, हृद्रोग, पाण्डु, संग्रहणी, शोथ (सूजन) आदि रोग दूर हो जाते हैं।
यह रक्तशोधक और पाचक भी है। प्लीहा अथवा यकृत् बढ़ जाने से शरीर कमजोर हो जाना, भूख नहीं लगना, अग्निमान्ध हो जाना, पेट भरा रहना, अन्न में अरुचि, खाने की इच्छा न होना आदि उपद्रव होने पर यह अरिष्ट बहुत अच्छा काम करता है, क्योंकि यह पाचक है और पित्त को जागृत कर हाजमा (पाचन शक्ति) को ठीक करता है तथा बढ़ी हुई प्लीहा और यकृत् को भी घटाता है।
हृद्रोग और खूनी तथा बादी बवासीर में इसके उपयोग से लाभ होता है। अर्श (बवासीर) में दस्तु कब्ज होना ही रोग सूचक है। यदि दस्त साफ-साफ और समय पर होता रहे, तो फिर अर्श में वेदना आदि किसी तरह की तकलीफ नहीं होती है। रोहितकारिष्ट में यह विशेष गुण है दस्त साफ लाता है और भूख को भी जगाता है । अतएव अर्श रोग में इसके सेवन से लाभ होता है।
लवङगासव
लौंग, पीपल, अगर, कालीमिर्च और एलबालुक का चूर्ण 8-8 तोला लेकर सबको 1 मन 11 सेर 16 तोला पानी में पकावें। 12111. सेर 4 तोला पानी शेष रहने पर छान लें। क्वाथ जब ठण्डा हो जाय, तो 10 सेर गुड़ मिला कर, मटके (पात्र) में भर कर सन्धान कर, एक माह तक रहने दें और बाद में तैयार होने पर छान कर रख लें। -ग. नि.
वक्तव्य
इसमें सन्धानार्थ 32 तोला धायफूल और डालना चाहिए।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर, दोनों समय दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से अर्श संग्रहणी, पाण्डु, हृद्रोग, प्लीहा, गुल्म, उदर रोग, कुष्ठ, सूजन, अरुचि, कामला, क्षय, कृमि, ग्रन्थिरोग, अर्बुद, व्यङ्ग, ज्वर आदि रोग नष्ट होते हैं। यह बल, वर्ण और अग्निवर्धक भी है।
लोध्रासव
लोध, कचूर, पोहकरमूल, बड़ी इलायची, मूर्वा, वायविडंग, हर्रे, बहेड़ा, आंवला, अजवायन, चव्य, फूलप्रियंगु, सुपारी, इन्द्रायण की जड़, चिरायता, कुटकी, भारङगी, तगर, चित्रक, पीपलामूल, कूठ, अतीस, पाठा, इन्द्रजौ, नागकेशर, इन्द्रायण, नखी, तेजपात, काली मिर्च (वाग्भट में दालचीनी लेने का आदेश है) और मोथा - प्रत्येक 1-1 तोला लेकर सबको अधकुटा (जौकुट) करके 12111 सेर 4 तोला पानी में पकावें और 53=1 छटांक 1 तोला पानी शेष रहने पर छान लें। फिर इसमें 1 सेर 9 छटांक 3 तोला शहद (अभाव में पुराना गुड़) मिला कर सबको घृत से चिकने किये हुए मटके (पात्र) में रख सन्धान कर दें। 1 माह बाद तैयार हो जाने पर छान कर रख लें। - श. सं. यो. र.
वक्तव्य
इसमें सन्धानार्थ 12।। तोला धायफूल डालकर बनाने से उत्तम बनता है । किसी-किसी पुस्तक में यही योग मध्वासव नाम से है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, खाना खाने के बाद, सुबह-शाम समान भाग जल मिलाकर सेवन करें।
गुण और उपयोग
पेशाब की जलन, बार-बार या अधिक मात्रा में बूँद-बूँद पेशाब होना, मूत्राशय का दर्द, पेशाब की नली की सूजन, धातुस्राव होना - विशेष कर स्वप्नावस्था में, कफ, खाँसी, चक्कर आना, संग्रहणी, अरुचि, पाण्डु रोग आदि इसके सेवन से नष्ट होते हैं।
यह आसव पाचक, रक्त को शुद्ध करने वाला तथा कब्जियत ( बद्धकोष्ठता ) नाशक है। इसके सेवन से स्त्रियों के रजोविकार नष्ट होते हैं और गर्भाशय को बल मिलता है। अतएव, स्त्रियों के लिये यह बहुत उपयोगी दवा है ।
इस आसव का उपयोग प्रमेह, शुक्रमेह तथा रक्तप्रदरादि रोगों में विशेषतया किया जाता है, क्योंकि इसका असर वृक्क (मूत्रपिण्ड), गर्भाशय और यकृत् पर विशेष होता है । रक्तप्रदर में अरविन्दासव और सारस्वतारिष्ट अथवा उशीरासव या अशोकारिष्ट के साथ देने से बहुत शीघ्र लाभ होते देखा गया है।
लौहासव
लोहे का बुरादा, सोंठ, मिर्च, पीपल, आंवला, हर्रे, बहेड़ा, अजवायन, वायविडंग, नागरमोथा, चित्रकमूल- प्रत्येक 16-16 तोला, धाय के फूल 1 सेर, शहद (अभाव में पुराना गुड़) 3 छटांक 1 तोला, गुड़, 5 सेर और जल 2511 सेर 8 तोला लेकर उसमें गुड़ और शहद मिला दें तथा कूटने योग्य चीजों को मोटा कूटकर सबको घृत से चिकने किये हुए पात्र में भर कर, सन्धान करके 1 माह तक रहने दें, पश्चात् तैयार हो जाने पर छानकर रख लें।
नोट
लौहासव में लौहचूर्ण के स्थान में लोहभस्म डाला जाय, तो विशेष उत्तम बनता है।
लौहभस्म को प्रथम हर्रे के क्वाथ में भिंगो दें। फिर तीन दिन पश्चात् उसमें आँवला और बहेड़े का चूर्ण और मिला दें। इसके चार दिन बाद इस मिश्रण को आसव के पात्र में डालना चाहिये । इस क्रिया से लौहभस्म आसव में विलीन हो जाती है।
वक्तव्य
इस योग में शहद और गुड़ का परिमाण कम होने से खट्टापन आ जाता है। दुगुने परिमाण में डालने से उत्तम बनता है।
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, भोजन के बाद, दोनों समय समान भाग जल मिला कर, सेवन करें।
गुण और उपयोग
पाण्डु, गुल्म, सूजन, अरुचि, संग्रहणी, जीर्णज्वर, अग्निमांद्य, दमा, कास, क्षय, उदर, अर्श, कुष्ठ, कण्डू, तिल्ली, हृद्रोग और यकृत् - प्लीहा की विकृति को नष्ट करता है। जीर्णज्वर अथवा अधिक दिन तक मलेरिया ज्वर (विषमज्वर) आने से यकृत् या प्लीहा की वृद्धि होने पर इस आसव का प्रयोग किया जाता है।
इसमें ज्वर की गर्मी अथवा ज्वर बराबर बना रहना या दूसरे-तीसरे दिन ज्वर हो जाना, कुछ देर तक रहकर ज्वर का वेग कम हो जाना, बुखार जाड़ा लगकर चढ़ना, अग्निमांद्य, भूख की कमी, रस- रक्तादि धातुओं के क्षीण हो जाने के कारण शरीर पाण्डु (पीले) वर्ण का हो जाना, मुँह और हाथ-पैरों में कुछ- कुछ सफेदी और सूजन दिखाई देना तथा दस्त कब्ज आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। ऐसी हालत में यह आसव बहुत शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है।
पाण्डुरोग
जब रक्ताणुओं (रक्तकणों) की कमी के कारण शरीर पीला हो जाता है, तब मन्दाग्नि, बद्धकोष्ठता (कब्जियत), कमजोरी, किसी काम में मन न लगना, अनुत्साहित बना रहना आदि उपद्रव हो जाते हैं। ऐसी दशा में लौहासव के उपयोग से मन्दाग्नि आदि दोष दूर हो जाते हैं। धीरे-धीरे जल-भाग कम होने लगता और सूजन भी कम हो जाती है।
श्रीखंडासव
सफेद चन्दन, काली मिर्च, जटामांसी, हल्दी, दारुहल्दी, चित्रक-मूल, मोथा, खस, तगर, मुनक्का, लाल चन्दन, नागकेशर, पाठा, आमला, पीपल, चव्य, लौंग, एलबालुक, लोध- प्रत्येक 2-2 तोला लेकर सबको जौकुट चूर्ण बना लें। फिर 2511 सेर 8 तोला पानी में मुनक्का 60 पल (3 सेर), गुड़ 15 सेर और धाय के फूल 48 तोला मिलाकर उपरोक्त चूर्ण सहित सबको एक मटके (पात्र) में भर कर उसका सन्धान कर दें। एक मास बाद तैयार हो जाने पर निकाल कर, छान कर रख लें। — भै. र.
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला प्रातः सायं बराबर जल मिलाकर दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से मद्यजनित रोग यथा - पानात्यय, पानविभ्रम, पानाजीर्ण आदि रोग दूर होते हैं। पैत्तिक (पित्तजन्य रोगों में इसका विशेष उपयोग किया जाता है। रक्तपित्त, प्यास की अधिकता, बाह्यदाह और अन्तर्दाह, रक्तदोष, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, शुक्रदोष आदि विकारों में भी यह उत्तम लाभदायक है।
सारस्वतारिष्ट
ब्राह्मी 1 सेर, शतावर, विदारीकन्द, बड़ी हर्रे, खस, अदरख और सौंफ - प्रत्येक 20- 20 तोला, सबको जौकुट कर 2511 सेर 8 तोला जल में पकावें । जब चौथाई (6 से 6 छटाँक 2 तोला) जल बाकी रहे, तब कपड़े से छानकर उसमें शहद (अभाव में पुराना गुड़ ) 40 तोला और चीनी (खाण्ड ) 1। सेर, धाय के फूल 20 तोला, रेणुका, निशोथ, छोटी पीपल, लौंग, बच, कूठ, असगन्ध, बहेड़ा, गिलोय (गुर्च), छोटी इलायची, वायविडंग, दालचीनी और स्वर्णपत्र - प्रत्येक 1-1 तोला, इनका चूर्ण कर, सब सामान को चीनी मिट्टी की पेचदार ढक्कनवाली बरनी (बर्तन) में भर कर एक मास रहने दें। एक मास बाद तैयार हो कपड़े से छान कर रख लें। - भै. र.
वक्तव्य
स्वर्णपत्र के स्थान पर सुवर्ण लवण मिलाकर भी बना सकते हैं। सुवर्ण लवण छानने के बाद मिलाना चाहिए। इस योग में जल का परिमाण द्रवद्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार लिया गया है। बहुत से वैद्य बिना स्वर्णपत्र डाले भी बनाते हैं । उसमें स्वर्ण के गुणों को छोड़कर शेष सभी गुण रहते हैं। सर्वसाधारण के लिये यह उपयोगी है।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, सुबह-शाम खाना खाने के बाद समान भाग जल के साथ दें।
गुण और उपयोग
इसके सेवन से आयु, वीर्य, धृति, मेधा (बुद्धि), बल, स्मरणशक्ति और कान्ति की वृद्धि होती है। यह रसायन — हृद्य अर्थात् हृदय के रोगों को दूर करने वाला या हृदय को बल प्रदान करने वाला है।
बालक, युवा (जवान), वृद्ध, स्त्री, पुरुषों के लिए हितकारी है। यह ओजवर्द्धक है। इसके सेवन से आवाज मधुर जाती है। रजोदोष और शुक्रदोष नष्ट करने के लिए इस आसव का उपयोग किया जाता है।
अधिक पढ़ने अथवा और भी किसी कारण से स्मरणशक्ति का ह्रास हो गया हो, तो उसे भी ठीक करता है।
यह आसव बलवर्धक, हृदय को पुष्ट करने वाला, चित्त को प्रसन्न करने वाला तथा दिमाग को तर रखने वाला है। इसका प्रभाव वातवाहिनी नाड़ियों पर विशेष होता है, यह पित्तशामक भी है।
कभी-कभी स्त्रियों को ऐसा मालूम होता है कि शरीर घूम रहा उनकी नजर के सामने सब चीजें घूमती हुई दिखाई देती हैं। इसमें चक्कर आना, आँख बन्द करने से अच्छा मालूम पड़ना, आँख खोलने में परिश्रम और चक्कर का वेग विशेष मालूम होना, घबराहट, चित्त में अशान्ति, तन्द्रा निद्रा न आना, किसी की बात अच्छी न लगना, कभी-कभी बेहोश भी हो जाना आदि उपद्रव होते हैं। ऐसी अवस्था में सारस्वतारिष्ट के उपयोग से बहुत शीघ्र लाभ होते देखा गया है, क्योंकि उपरोक्त विकार मासिक धर्म की खराबी से उत्पन्न होता है।
जिस स्त्री को मासिक धर्म ठीक-ठीक नहीं होता अथवा एकदम नहीं होता या नियत समय पर और उचित मात्रा में नहीं होता, उसे पित्त प्रकोप के कारण उपरोक्त उपद्रव उत्पन्न होते हैं, जिससे वातवाहिनी नाड़ियाँ भी उत्तेजित हो जाती हैं। इन सबका सारस्वतारिष्ट तुरन्त शमन कर देता है।
छोटे-छोटे बच्चों को लगातार दूध के साथ कुछ दिन तक नियमित रूप से सेवन कराने से उनकी बुद्धि तीव्र हो जाती, स्मरण शक्ति बढ़ती, बोली अच्छी और स्पष्ट निकलने लगती तथा आँख की रोशनी तेज जाती है। अर्थात् गले से ऊपर जितने अंग हैं, उन अंगों को इससे काफी सहायता मिलती है। इसीलिए उन्माद और अपस्मार आदि मानसिक विकारों को दूर करने के लिए सबसे पहले इसी का प्रयोग किया जाता है।
जिस स्त्री को यौवनवय आने पर भी रजोधर्म न होता हो, शरीर दुबला हो, अंग-प्रत्यंग पुष्ट न हों, शरीर में रक्त की कमी हो, उसे सारस्वतारिष्ट के सेवन से बहुत शीघ्र लाभ होता हैं। यह गर्भाशय और बीजाशय दोनों को बलवान बनाता है।
सारिवाद्यासव
सारिवा (अनन्तमूल), मोथा, लोध, बरगद की छाल, पीपल वृक्ष की छाल, कचूर, अनंतमूल सफेद, पद्माख, सुगन्धबाला, पाठा, आमला, गिलोय, खस, दोनों चन्दन, अजवायन, कुटकी - प्रत्येक 4-4 तोला, छोटी और बड़ी इलायची, कूठ, सनाय, हर्रे,- प्रत्येक 16-16 तोला लेकर सबको जौकुट बना लें। फिर एक मटके में 2511 सेर 8 तोला पानी डाल कर उसमें यह चूर्ण और 15 सेर गुड़, 40 तोला धाय के फूल तथा 60 पल (3 सेर) मुनक्का डाल कर सन्धान कर दें, और एक माह पश्चात् तैयार होने पर निकाल कर छान कर रख लें। - भै. र. मूल संस्कृत श्लोक के पाठानुसार
मात्रा और अनुपान
1 से 2 तोला, भोजन के बाद, सबेरे और शाम को समान भाग जल मिला कर दें।
गुण और उपयोग
यह आसव 20 प्रकार के प्रमेह, पीड़िका, उपदंश और इसके उपद्रव, वातरक्त, भगन्दर, मूत्रकृच्छ्र, नाड़ीव्रण, पीब बहने वाले फोड़े-फुन्सियों आदि रोगों को नष्ट करता है। यह आसव रक्तशोधक, रक्तप्रसादक, मूत्रशोधक और पेशाब साफ लाने वाला है।
अधिकतर प्रमेह रोग बहुत दिनों तक ध्यान में नहीं आता है। जब इस रोग की तरफ ध्यान जाता है, उस समय यह मधुमेह के रूप में बदल जाता है अथवा पीड़िका उत्पन्न हो गयी होत है। अतएव ऐसे भयंकर रोग के ऊपर विशेष ध्यान रखना चाहिए। प्राकृतिक नियमों में थोड़ भी अन्तर पड़ जाने से तुरन्त किसी सद्वैद्य (अच्छे वैद्य) से इसके विषय में परामर्श कर उचित दवा लेनी चाहिए।
प्रमेह की प्रारम्भिक अवस्था में यदि सारिवाद्यासव का सेवन कुछ दिनों तक नियमपूर्वक किया जाय और पथ्यपूर्वक रहा जाय, तो निःसन्देह रोग आगे से बढ़ कर यहीं समाप्त हो जाता है। फिर मधुमेह या प्रमेह पीड़िका आदि उपद्रव पैदा ही नहीं हो सकते। प्रमेह पीड़िक रोग हो जाने पर भी लगातार कुछ दिनों तक सेवन करने से यह दोष मिट जाता है ।
पित्तजन्य प्रमेहों पर इसका उपयोग किया जाता है। इसको प्रभाव वातवाहिनी नाड़ियों प तथा मूत्र - पिण्ड, स्त्री जननेन्द्रिय, गर्भाशय, बीजाशय आदि पर अधिक होता है।
मस्तिष्क के विकारों में भी इसका अच्छा असर होता है । कोई-कोई वैद्य उन्माद रोग सर्पगन्धा चूर्ण के साथ इस आसव का प्रयोग करने की राय देते हैं और इससे लाभ हो होता है ।
मूत्राश्मरी, मूत्रकृच्छ्र अथवा रुक-रुक कर पेशाब होना, पेशाब में जलन होना, लाल रंग का पेशाब होना, पेशाब करते समय पेडू अथवा मूत्रनली में दर्द होना या सूजाक रोग के कारण मूत्र में जल अथवा दर्द होना या पीब आना आदि विकारों में इस आसव के उपयोग से बहुत लाभ होता है।
सूजाक या उपदंश, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के लिए विशेष कष्टदायक है। एक बार जिस स्त्री को यह रोग हो गया हो फिर उसकी जड़ उखड़ना कठिन हो जाता है। इसमें स्त्रियों को ज्यादे तकलीफ होती है ।
जननेन्द्रिय में खुजली होती, काम की प्रवृत्ति विशेष बनी रहती, मवाद आता और साथ ही सूजन भी आ जाती है। ऐसी स्थिति में, सारिवाद्यासव का उपयोग लगातार करने से बहुत लाभ होता है। साथ ही त्रिफला जल से योनि को धोते रहने और यह क्रिया दिन भर में तीन-चार बार करते रहने तथा इस आसव का नियमित रूप से सेवन करने और पथ्यपूर्वक रहने से बहुत शीघ्र लाभ होते देखा गया है।
वक्तव्य
प्रायः वैद्य और निर्माता, इसी योग को सारिवाद्यारिष्ट के नाम से भी बनाते हैं, अतएव सारिवाद्यासव की अपेक्षा सारिवाद्यारिष्ट के नाम से ही यह अधिक प्रचलित है।
सुन्दरीकल्प
अशोक छाल 25 सेर, लोध्र-छाल 1211 सेर को लेकर इनको जौकुट चूर्ण करके 256 सेर जल में क्वाथ करें, 64 सेर जल शेष रहने पर उतार कर छान लें, फिर उसमें चीनी 25 सेर, गुड़ 12 सेर डालकर, अच्छी तरह घोल दें तथा धाय के फूल 4 सेर, मुनक्का 5 सेर, सफेद जीरा, नागरमोथा, सोंठ, दारूहल्दी, कमल फूल, हरड़, बहेड़ा, आंवला, आम की गुठली की मींगी, केशर (अभाव में नाग केशर), वासा - मूल, सफेद चन्दन, रसौत, पतंगकाष्ठ, खदिर-काष्ठ, बेलगिरी, सेमल के फूल या मोचरस, खरेंटी के पंचांग, शुद्ध भिलावा, अनन्तमूल, गुड़हल के फूल, दालचीनी, बड़ी इलायची, लौंग - प्रत्येक 20-20 तोला लेकर जौकुट चूर्ण करके मिलाकर, सब सामान को घृतलिप्त - पात्र में भर दें और आसवारिष्ट के समान एक माह तक सन्धान करके, पश्चात् तैयार हो जाने पर, छान कर सुरक्षित रख लें।
मात्रा और अनुपान
1 तोला से 2 तोला तक, दोनों समय भोजन के बाद समान भाग जल मिलाकर सेवन करें।
गुण और उपयोग
स्त्रीरोगनाशक, अनेक उत्तमोत्तम औषधियों के मिश्रण से निर्मित इस महौषधि के सेवन से स्त्रियों को होने वाले समस्त प्रकार के रोग शीघ्र नष्ट होते हैं--- तथा रक्तप्रदर, श्वेत प्रदर, कष्टार्तव, पाण्डु, गर्भाशय तथा योनिभ्रंश, डिम्बग्रन्थि-प्रदाह, हिस्टीरिया, बन्ध्यापन, ज्वर, रक्तपित्त, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अर्श, मन्दाग्नि, गर्भाशय शोथ, योनि-शोथ, अरुचि, हाथ-पैर के तलवों की जलन, आँखों की जलन, कास, पेट का दर्द, सिर भारी रहना, रक्ताल्पता, तृष्णा आदि विकार नष्ट होकर नवयौवन प्राप्त होता है तथा यह कल्प शरीर को बलवान, हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ बनाता है।
वक्तव्य
यह योग आचार्य यादवजी कृत सिद्धयोग संग्रह के स्त्री रोगाधिकार में अशोकारिष्ट के नाम से है। स्त्रियों के रोगों में यह अत्युत्तम गुणकारी सिद्ध हुआ है। सुन्दरियों के होने वाले सभी रोगों को नष्ट कर उनके स्वास्थ्य का कल्प कर देता है। अतः हम इसको 'सुन्दरी कल्प' के नाम से व्यवहार करते हैं ।