Ayurvedik Ras Rasayan Medicine, How To Use and Benefits of Almost All Ayurvedic Medicines

Ayurved4LIfe
0

Ayurvedik Ras Rasayana Benfits

 


रस रसायन-प्रकरण

इस प्रकरण में पारा, गन्धक और सिंगरफ आदि रस- उपरसों, धातु-उपधातुओं की भस्मों, विष-उपविषों, प्राणिज द्रव्यों काष्ठौषधियों एवं वनस्पतियों आदि के योग से बनी हुई दवाओं की निर्माण विधि तथा उनके गुण-धर्मों का वर्णन किया जायेगा। परन्तु वर्णन करने से पूर्व कुछ बातें ऐसी हैं, जिनके विषय में जानकारी प्राप्त करा देना अच्छा है।

रस पारा का नाम है अतः पारद और पारद के खनिज सिंगरफ तथा गन्धक आदि के संयोग से जितनी दवाइयाँ बनती हैं, वे चाहे चूर्ण रूप में हों या गोली रूप में, सब रस संज्ञक हैं। अर्थात् उनकी गणना रस रसायन के अन्दर होती है।

जिन दवाओं में पारा गन्धक के साथ अन्य धातुओं (भस्मों) या काष्ठादि औषधियों का सम्मिश्रण करना हो, उनमें सर्वप्रथम पारा और गन्धक डालकर खूब घोंट कर कज्जली बनायें। कञ्जली की घोंटाई जितनी अधिक होगी, दवा उतनी ही अधिक गुणकारी होगी। कञ्जली जब सुर्मा की तरह महीन तथा चन्द्रिकारहित और चिकनी हो जाय तब उसमें दूसरी दवा मिलाकर पुनः घोटें

पारा, गन्धक-विष (बच्छनाग), हिंगुल (सिंगरफ), टंकण (सुहागा), फिटकरी, कुचला, अफीम, भांग, धतूरा बीज, जयपाल, मैनशिल, हरताल आदि दवाइयाँ उपरोक्त विधि से शुद्ध करके ही दवा में डालनी चाहिए ये अशुद्ध डालने से लाभ की जगह नुकसान करती हैं।

जहाँ अन्य समस्त औषधियाँ नियोजन सिद्ध होती हैं, वहाँ रस रसायन अपने अनन्य प्रभाव से बहुत उत्तम लाभ करके सबको आश्चर्य में डाल देते हैं। इनके सेवन से वृद्धावस्था तक का निरोध होता है रोगों का नाश हो, शरीर में परिशुद्ध रस रक्तादि का संचार होता तथा शरीर स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट हो जाता है पारद के योगवाही एवं अल्पमात्रोपयोगी होने के कारण उसके साथ मिश्रित किये गये द्रव्यों के गुणों को वह अपनी विलक्षण शक्ति के प्रभाव से अत्यन्त बढ़ा देता है। अतएव आयुर्वेदीय रस रसायनों का चिकित्सा जगत में अतीव महत्वपूर्ण स्थान है जहाँ इंजेक्शन जैसी आशुफलकारी औषधियाँ एवं सल्फाड्रग्ज जैसी तीव्र औषधियाँ भी असफल हो जाती हैं और असाध्य समझ कर त्यागे हुए कितने ही कठिन रोगों से पीड़ित रोगियों को भी आयुर्वेदीय रस रसायनों के सेवन से पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते देखा जाता है।

रसों के समान गुणकारी हानिरहित अन्य दवा मिलना कठिन है परन्तु वे सब गुण तभी प्राप्त हो सकते हैं, जब रस रसायन शास्त्रोक्त रीति से तैयार किये गये हो अन्यथा लाभ के स्थान में हानि भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त रसों में जो धातु, उपधातु, रत्न, उपरत्न, रस, उपरस, विष, उपविष आदि व्यवहत होते हैं, उन्हें भी विधिवत् शोधन मारण करके ही प्रयोग में लेना चाहिए। यदि कहीं किसी औषध-विधान में शोधन करने की स्पष्ट आज्ञा नहीं दी गयी हो, तो भी इन द्रव्यों को शोधन करने के बाद ही दवा में डालना चाहिए, यह सामान्य नियम है।



अगस्ति सूतराज रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल 11 तोला, शुद्ध धतूरे के बीज 2 तोला तथा शुद्ध अफीम 2 तोला प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना फिर अन्य दवाओं का महीन चूर्ण कर सबको मिलाकर भांगरे के रस में घोटें लगातार तीन रोज तक घोंटने के बाद एक-एक रत्ती की गोली बनाकर रख लें। 


 मात्रा और अनुपान

1-1 गोली प्रातः, दोपहर और सायंकाल घृत और काली मिर्च के चूर्ण के साथ सेवन करने से प्रवाहिका रोग नष्ट होता है तथा जीरे और जायफल के चूर्ण के साथ देने से सभी प्रकार के अतिसार और त्रिकुटा चूर्ण तथा मधु के साथ देने से हर प्रकार के वमन कफ और वात के विकार, अग्निमान्द्य तथा निद्रानाश दूर होता है।


गुण और उपयोग

संग्रहणी, अतिसार, वमन, पेट का दर्द, आमांश, कफ-वात विकार, अग्निमांद्य, अनिद्रा, आमाशय व पक्वाशय की विकृति से उत्पन्न होने वाले जलनाव को कम करता तथा सूजन, दाह आदि रोगों को नष्ट करता है।


आमातिसार में इसका प्रयोग करने से उतना लाभ नहीं करता जितना कफ-वात प्रधान पक्वातिसार में करता है। विशेष कर जबकि बार-बार दस्त लगते हो, फेनयुक्त वस्त होते हों, पेट में दर्द होता हो, यह दर्द बीच-बीच में बंद होकर पुनः उठता हो, जिससे रोगी को अधिक कष्ट होता हो, ऐसी हालत में अगस्ति सूतराज रस त्रिकटु चूर्ण और मधु के साथ देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है, क्योंकि इसमें अफीम पड़ी हुई है। अतः यह पीड़ा नाशक होने की वजह से पेट के दर्द को शान्त कर देता है और ग्राही होने से दस्त को भी बन्द (कम) कर देता है।


वात प्रधान ग्रहणी में और लक्षणों के साथ पेट में आक्षेप (खिंचाव ) शूल होता है यह शूल अक्सर आँतों में उत्पन्न होता है अन्न ठीक से नहीं पचता खट्टी डकार आना, गुदा में कैची से काटने जैसी पीड़ा होना, अन्न पचने के बाद पेट फूल जाना, दस्त पतला, कभी गाढ़ा भी होना इत्यादि लक्षण उपस्थित होने पर इस रसायन के सेवन से लाभ होता है।


कोई-कोई वैद्य इस रोग में औषध प्रयोग करने से पूर्व बस्ति (अनुवासन बस्ति) देने के लिए कहते हैं, परन्तु वैद्य को अपनी सुविधानुसार कार्य करना चाहिए। ग्रहणी, अतिसार या संग्रहणी जब पुराने हो जाते हैं, तो रोगी की आँत, कोष्ठ एवं गुदा की अवलियाँ कमजोर हो जाती हैं जिससे वे मल को रोक नहीं सकतीं ऐसी दशा में कभी-कभी अनजान में ही दस्त हो जाता है या जब दस्त का वेग होता हो, तब बहुत तेज वेग मालूम पड़ता है। दस्त पतला और दर्द के साथ होता है दस्त हो जाने पर भी अंत एवं कोष्ठ में दर्द होता ही रहता है, जिससे रोगी को बार-बार दस्त के लिये जोर लगाना पड़ता है। रोगी छींकने लगता है तो काँच बाहर निकल आती है। दर्द का वेग इतना जोर का रहता है कि रोगी यदि विशेष कमजोर हुआ दो वह बेहोश भी हो जाता है ऐसी हालत में अगस्ति सूतराज रस बहुत अच्छा काम करता है।


मूत्र (पेशाब) के साथ कभी-कभी छोटे-छोटे पत्थर के कण अथवा शर्करा जाने लगती है, मूत्राशय विकृत हो जाता है, फिर वेदना होने लगती है कभी-कभी यह वेदना इतना उग्र रूप धारण कर लेती है कि रोगी परेशान हो जाता है पेशाब भी खुलकर (साफ) नहीं आता। अतः बस्ति प्रदेश में भी दर्द होने लगता है ऐसी हालत में इस तरह की औषधि योजना करनी चाहिए जिससे पत्थर के कण या शर्करा गलकर सुविधानुसार निकल जाये और पेशाब खुलकर ..आने लगे। अतः सर्वप्रथम दर्द कम करने के लिए अगस्ति सूतराज रस का उपयोग करना चाहिए, परन्तु ध्यान रखें कि यह औषध नाही है इसलिए इसका किसी मूत्रल (पेशाब आने वाली) दवा जैसे यवक्षार या गोक्षुरादि चूर्ण आदि के साथ प्रयोग करें अन्यथा यह पेशाब कम कर देगा।


पित्तस्राव की कमी के कारण यकृत् में रहने वाला पित्त गाढ़ा होकर सूख जाता है और छोटे-छोटे कण रूप में हो पथरी का रूप धारण कर लेता है ये कण देखने में बाजरे के सदृश और अधिक संख्या में होते हैं। इसमें से यदि कोई कण वायु के द्वारा नलिका में होकर ग्रहणी में जाने लगता है, तब पेट में दर्द उत्पन्न होता है। 


चूंकि वायु के कारण ही यह उपद्रव होता है, अतः यह दर्द भी वात प्रधान ही होता है किन्तु चिकित्सा करते समय पित्त बढ़ाने वाली दवा दे जिससे पित्त बढ़कर उस पित्त का स्राव होना शुरू हो जाय ऐसी हालत में ताम्र भस्म, करेले के पत्ते के रस में मिलाकर दिया जाता है अथवा कुटकी चूर्ण के साथ देते हैं या स्वर्णप्रधान सूतशेखर रस भी देते हैं परन्तु यदि दर्द ज्यादा हो और उस दर्द के मारे रोगी बहुत परेशान हो तो सर्वप्रथम इसी उपद्रव को कम करने का प्रयत्न करें। इस दर्द को दूर करने के लिये अगस्ति सूतराज रस बहुत अच्छी दवा है, क्योंकि इसमें अफीम की मात्रा विशेष होने से उसका असर सर्वप्रथम वातवाहिनी नाड़ी पर होता है और इसीलिए यह वेदना शामक भी कहा गया है। अतः इस दवा से दर्द बहुत शीघ्र आराम हो जाता है।  औ. गु. ध. शा.



अग्निकुमार रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक अग्नि, पर फुलाया हुआ सुहागा 1-1 तोला, शुद्ध बच्छनाग 3 तोला, कौड़ी भस्म और शंख भस्म 2-2 तोला और काली मिर्च 8 तोला लें। प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बना उसमें भस्में और अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला, जम्बीरी नींबू के रस में तीन दिन मर्दन कर 11 रत्ती की गोलियाँ बना सुखा कर रख लें। भै. र.


वक्तव्य

कुछ आचार्यों के मतानुसार कौड़ी भस्म और शंख भस्म को नेत्र भाग का अर्थ तीन भाग करके 3-3 तोला भी लेते हैं।


मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली जल के साथ दें। वर्षा ऋतु में होने वाले दस्तों में तथा अग्निमांद्य में छाछ (मट्ठे) के साथ दें पान का रस या शहद के साथ भी यह अच्छा गुण करता है। पुराने अतिसार में चावल के धोवन के साथ देना चाहिए।


गुण और उपयोग

पाचक अग्नि के मन्द होने से उत्पन्न अजीर्ण, मन्दाग्नि, संग्रहणी, कब्ज आदि रोगों में अग्निकुमार रस के सेवन से अच्छा लाभ होता है। आँतों में मल इकट्ठा होना, पेट में दर्द तथा पेट भारी रहना, पतली टट्टी होना आदि शिकायतें इसके सेवन से बहुत जल्दी मिट जाती हैं। अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये तथा अजीर्ण को पिटाने के लिये यह रस अच्छा काम करता है।


इसका उपयोग कफप्रधान और वातप्रधान या कफ वातप्रधान अजीर्ण रोग में किया जाता. है और इसमें यह अच्छा गुण भी करता है। इसमें काली मिर्च की मात्रा सबसे अधिक होने के कारण यह उष्णवीर्य है अतः पित्तजन्य अजीर्ण में इसका प्रयोग जहाँ तक हो, नहीं करना चाहिए। पित्तजन्य अजीर्ण में प्रयोग करने से उल्टा ही फल होता है। अर्थात् पित्त की शान्ति न होकर वृद्धि हो जाती है जिससे पेट तथा हाथ-पाँव, आँख आदि में विशेष रूप से जलन होने लगती है, मन बेचैन हो जाना तथा जी मिचलाने लगना आदि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं। 


अजीर्ण में

पेट और देह भारी मालूम पड़े, वमन होने की इच्छा हो, गाल और नेत्र सूज जाएँ, जैसा पदार्थ (खट्टा-मीठा) खाया हो वैसी ही डकारें आवें, तो ऐसी अवस्था में सर्वप्रथम रोगी को उपवास करा आमपाचन करने के बाद, अग्निकुमार रस देने से शीघ्र लाभ होता है। जिस अजीर्ण रोग में वायु की प्रधानता रहती है, उसमें बद्धकोष्ठ होने के कारण दस्त हो जाता है। ऐसी हालत में अग्निकुमार रस छाछ (मट्ठा) या दही के पानी के साथ देने से विशेष लाभ करता है।


कफ प्रधान हैजा में बार-बार वमन होना, जी मिचलाना, पेट में दर्द होना, पेट भारी मालूम पड़ना आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और अजीर्ण से उत्पन्न हैजा में कफ या पित्त के प्रकुपित होने पर वमन होता है यह वमन पिच्छिल (चिकना) तथा बदबूदार होता है। पित्त से उत्पन्न हैजा में खट्टा और गर्म वमन होता है। कफ प्रधान हैजा में अग्निकुमार रस अर्क सौंफ के साथ देने से लाभ होता है। पित्त प्रधान हैजा में शंख, कौड़ी या शुक्ति की भस्म अनार के रस के साथ दें और ऊपर से ठंडा पानी में अर्क कपूर 4-5 बूंद डालकर पिला दिया करें।


एक दूसरा कीटाणुजन्य (संक्रामक) हैजा भी होता है। इसमें कीटाणुनाशक औषधियाँ यथा - संजीवनी बटी विसूचिकानाशक बटी लशुनादि बटी आदि का उपयोग करना चाहिये।

किसी-किसी की प्रकृति ऐसी होती है कि बराबर प्रतिश्याय ( जुकाम) बना ही रहता है जिससे मन्दाग्नि भी बनी रहती है। मन्दाग्नि होने के कारण अन्नादि का पाचन ठीक से नहीं हो पाता है, फिर पेट फूल जाना, खट्टी डकारें आना, बदन भारी मालूम पड़ना, थोड़ा-थोड़ा शिर में दर्द भी होना – ये सब उपद्रव होते हैं। ऐसी अवस्था में अग्निकुमार रस के उपयोग से मन्दाग्नि दूर हो जाती और प्रतिश्याय भी नष्ट हो जाता है, क्योंकि यह उष्णवीर्य होने के कारण पाचकाग्नि को प्रदीप्त कर पाचन क्रिया को सुधार देता इसी गुण के कारण प्रतिश्याय को भी मिटा देता है।


कास(खांसी) रोग में

श्वासवाहिनी नली में कफ के संचय हो जाने से श्वासोच्छ्वास में कठिनाई होती है, फिर खाँसी होने लगती है। इसमें कफाधिक्य के कारण अन्न के प्रति अरुचि, मंदाग्नि, पेट फूलना, अपचन के कारण जी मिचलाना, खट्टी और चटपटी चीजें खाने की विशेष इच्छा होना, दही आदि खाने की बिल्कुल इच्छा न होना आदि लक्षण उपस्थित होने पर अग्निकुमार रस दूध- गर्म जल से देना अच्छा है, क्योंकि यह कफघ्न है, अतः श्वासवाहिनी नली से कफ को निकालकर साफ कर देता है, जिससे श्वास लेने में तकलीफ नहीं होती। साथ ही कफ-वृद्धि के कारण जो अफरा आदि उपद्रव उत्पन्न हुए रहते हैं, उन्हें भी दूर कर रोगी को स्वस्थ कर देता है।


गुल्म रोग में

कफजन्य गुल्म या वातजन्य गुल्म रोग में— अधोवायु की प्रवृत्ति नहीं हो, मुख सूखने लगे, हृदय, पसली, कन्धा और सिर में दर्द हो उपद्रव होने पर तथा कफ प्रधान होने के कारण दिन में निद्रा ज्यादा हो, खाने की इच्छा नहीं हो आदि उपद्रवों को शान्त करने के लिये अग्निकुमार रस का सेवन करना अच्छा है, क्योंकि यह वातकफघ्न है। अतः वात और कफ के विकारों को दूर करता है किन्तु फिर भी यह गुल्म नहीं पचा सकता है। इसके लिये अन्य दवा भी करनी चाहिए।


छर्दि (वमन) रोग में

कफ का संचय विशेष होने पर मन्दाग्नि हो जाती है, जिससे पाचन क्रिया में गड़बड़ी होने के कारण खाना अच्छी तरह से हजम नहीं हो पाता है। आमाशय में आम (कच्चे अत्र ) का संचय होने से जी मिचलाने लगता है। वमन भी होने लगता है। वमन में कफ का ही भाग ( झाग ) विशेष रूप से निकलता है। पेट बराबर भारी बना रहता है, पेट कुछ-कुछ फूला हुआ भी रहता है ऐसी हालत में अग्निकुमार रस का प्रयोग अर्क अजवायन के साथ करने से बहुत फायदा करता है। क्योंकि यह पित्त को उत्तेजित कर मन्दाग्नि को दूर करता है और कफ विकार को भी नष्ट करता है। फिर पाचन क्रिया दुरुस्त हो अन्न का परिपाक भी ठीक से होने लगता है।



अग्निसून रस

कपर्दक भस्म 1 तोला, शंख भस्म 2 तोला, शुद्ध गन्धक और पारद समान भाग मिलाकर की हुई कञ्जली 1 तोला, काली मिर्च का चूर्ण 3 तोला- इन सबको खरल में एका मिलाकर नींबू के रस में घोंटकर गोली बनाने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोली बनाकर सुखाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली प्रातः सायं घृत और चीनी के साथ अथवा पीपल चूर्ण और शहद के साथ अथवा तक्र के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रस के सेवन करने से भयंकर ग्रहणी रोग, शोष, ज्वर, अरुचि, शूल, गुल्म, पाण्डुरोग, उदररोग, अर्श और मन्दाग्नि आदि उदररोग नष्ट होते हैं धृत और चीनी के साथ देने से दुबले-पतले मनुष्यों को मोटा ताजा बना देता है यह रस दीपक, पाचक और शूलनाशक होने के कारण उपरोक्त विकारों में बहुत उत्तम लाभ करता है।



अग्नितुण्डी बटी (रस)

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध विष, अजवायन, त्रिफला, सज्जीखार, यवक्षार, चित्रकमूल की छाल, सेंधा नमक, जीरा सफेद भुना हुआ, सौवर्चल नमक, समुद्र लवण, वायविडंग, शुद्ध सुहागा, प्रत्येक समान भाग और सब दवाओं के समान भाग शुद्ध कुचला लें। प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बना, पीछे अन्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिला, जम्बीरी नींबू के रस में मर्दन कर 1-1 रती की गोलियाँ बनाकर सुखा कर रख लें। मै. र.


वक्तव्य

इस योग में त्रिफला शब्द से हरड़, बहेड़ा, आमला प्रत्येक एक-एक भाग डालें सज्जी को चौगुना पानी में गलाकर चार तह के कपड़े से छानकर उसका क्षार बनाकर उसे डालें । सौवर्चल नमक को कुछ लोग काला नमक तथा कुछ लोग मनिहारी नमक मानते हैं। दोनों में से कोई भी डाल सकते हैं शुद्ध कुचला का कपड़छन चूर्ण मिलाना चाहिए।


मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली गर्म जल के साथ दें।


गुण और उपयोग

यह दीपन, पाचक और वातनाशक है इसमें कुचला का अंश विशेष है अतः अधिक दिन तक लगातार इसका सेवन नहीं करना चाहिये स्नायुमण्डल, वातवाहिनी और मूत्रपिण्ड पर इसका खास असर होता है। मन्दाग्नि, आध्मान, अजीर्ण, स्वप्नदोष और शूल पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है।


यह हृदय को बल देती और बल की वृद्धि भी करती है नवीन वात रोगों में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसके सेवन से कृमि रोग नष्ट होता तथा रोग छूटने के बाद रही हुई कमजोरी को भी दूर करती है।


छोटे बच्चों के और रक्त का दबाव बढ़े हुए रोगों में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह दवा सभी इन्द्रियों को उत्तेजित करती है। अतः किसी भी रोग में उत्तेजनार्थं इसका प्रयोग कर सकते हैं। वृद्धावस्था ( बुढ़ापा आ जाने से मनुष्य के शरीर और इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है; इसी तरह और भी कई तरह की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये सब इसके सेवन से नष्ट हो जाती हैं।


रसाजीर्ण में

अन्न खाने की इच्छा नहीं होती। पेट भारी मालूम पड़ता तथा कठोर हो जाता है, शरीर में आलस्य बना रहता है, किसी कार्य में मन नहीं लगता, डकारें बराबर आती रहती हैं, आँखों की ज्योति भी कुछ कम हो जाती है, जीम का स्वाद नष्ट हो जाता है, खाना खा लेने पर तुरन्त वमन हो जाता है। वमन में मधुर रसयुक्त पानी तथा तत्काल खाई हुई चीज निकलती है। कफ की ज्यादे वृद्धि हो जाने के कारण आमाशय में पाचक पित्त की उत्पत्ति कम होती है। ऐसी दवा में अग्नितुण्डी बटी देने से बहुत फायदा होता है, क्योंकि यह दीपन-पाचन है। अतः पाचकाग्नि प्रदीप्त हो अन्नादि का पाचन ठीक से होने लगता है और शेष कफादि भी इसके सेवन से शांत हो जाते हैं।


मन्दाग्नि में

यकृत् में कमजोरी आ जाने के कारण पित्तस्त्राव में कमी आ जाती है, जिससे पाचक पित्त में विकार उत्पन्न हो जाता है, जठराग्नि मन्द पड़ जाती है फिर अन अच्छी तरह नहीं पचने से कोष्ठों में शिथिलता आ जाती है। अन्न अपक्व रह जाने के कारण पेट में दर्द तथा पतले दस्त होने लगते हैं और दस्त में अपचित अन्न निकलता है ऐसी हालत में अग्नितुण्डी बटी नींबू रस के साथ देने से बहुत लाभ करती है।



यकृत् वृद्धि

विशेषतः वात-कफ प्रधान पाण्डु या यकृत् विकार में कफ प्रधान होने के कारण आँख, ओष्ठ, मुँह, नाखून आदि सफेद हो जाते हैं गाल कुछ फूले हुए से दिखाई पड़ने लगते हैं। यकृत के चारों तरफ का किनारा कठोर हो जाना, पेट भारी होना, आमाशय शिविल हो जाना, पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द होना, बाजरे के आटे में जल मिले हुए के समान दस्त होना, मन्दाग्नि हो जाना, विचार-शक्ति कमी और मन में अधिक बेचैनी होना आदि लक्षण उपस्थित होने पर अग्नितुण्डी बटी 1 गोली, वज्रक्षार चूर्ण 1 माशा में मिलाकर गर्म जल से दें। भोजनोपरान्त कुमार्य्यासव 1 तोला बराबर जल के साथ देने से सब विकार नष्ट हो जाते हैं। 


बृहदन्त्र (बड़ी आंत ) में 

वायु का संचार ठीक न होने से तथा पित्त (पाचक पित्त ) में गर्मी हो जाने के कारण पाचन-क्रिया में विघटन होने से आंतों में शिथिलता आ जाती है, जिससे भक्षित (खाया हुआ अन्न) जहाँ के तहाँ ही रुका हुआ और अपचित अवस्था में पड़ा रहता है, जिससे पेट में भारीपन बना रहना, कोष्ठ में मीठा-मीठा दर्द रहना, मन में अप्रसन्नता, पेट फूल जाना, उर्ध्ववायु (डकार) हो अधोवायु की अच्छी तरह प्रवृत्ति न होना, जी मिचलाना, हरदम वमन करने की इच्छा रहना आदि लक्षण उपस्थित होने पर "अग्नितुण्डी बटी" अजवायन अर्क के साथ देने से बहुत शीघ्र फायदा करती है। क्योंकि इसमें कुचला का अंश विशेष है अतः यह प्रधानतया वायुशामक है। इसका प्रधान कार्य विकृत हुए वायु को शमन कर उसके उपद्रवों को शान्त करता है इसलिये यह इस रोग में विशेष फायदा करती है। 


अन्त्र पुच्छप्रदाह (अपेण्डिसाइटिस) की प्रारम्भिक अवस्था में (Appendix)

अर्थात् पेट की दाहिनी पसली के आसपास पत्थर के समान कठोरता मालूम पड़ती है। और जहाँ यह कठोरता मालूम पड़ती है, वहाँ पर कुछ ऊँचा भी उठा हुआ मालूम होने लगता है। कभी-कभी इसमें इतने जोर के दर्द उठते हैं कि रोगी बेचैन हो जाता है वमन भी होने लगता है और थोड़ा-थोड़ा ज्वर भी मालूम होने लगता है। ऐसी दशा में अग्नितुण्डी वटी के प्रयोग से बहुत फायदा होता है।


कफ प्रधान उदर रोग में

हाथ-पैर, मुख आदि में सफेदी आ जाती है पेट कठोर और आगे को कुछ बढ़ा हुआ मालूम पड़ने लगता है। पैर और हाथों में अधिक सूजन हो जाती है, पेट में थोड़ा जल संचय भी होने लगता है, हृदय की शक्ति कमजोर हो जाती तथा शरीर के सब अवयवों में शिथिलता आ जाने के कारण वे अपने-अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं, जिससे शरीर में आलस्य बना रहता है, कोई भी काम करने की इच्छा या उत्साह नहीं होता और मन में बराबर असन्तोष तथा भ्रम बना हुआ रहता है। ऐसी स्थिति में अग्नितुण्डी वटी के सेवन से उत्तम लाभ होता है।


वातवाहिनी नाड़ियों का ह्रास हो जाने से हाथ-पैर आदि अङ्गों में आक्षेप होने लगता है, जिससे रोगी कोई भी वस्तु हाथ से उठाने में असमर्थ हो जाता तथा उन स्थानों में रक्त का संचार भी रुक जाता है। अतः हाथ-पैर में झिनझिनी भरने लगती है तथा हाथ भारी और उसकी नसें सिकुड़ी हुई मालूम पड़ने लगती हैं। ऐसी दशा में अग्नितुण्डी बटी महारास्नादि क्वाथ या महारास्नादि अर्क के साथ 1-1 गोली सेवन करने से फायदा होता है। औ. गु. ध. शा.



अग्निसन्दीपन रस

पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, काली मिर्च, पाँच नमक, यवक्षार, सज्जीक्षार, सुहागे की खील, सफेद जीरा, काला जीरा, अजवायन, बच सौंफ, भुनी हींग, चीते की छाल, जायफल, कूठ, जावित्री, दालचीनी, तेजपात, इलायची छोटी, इमली का क्षार, अपामार्ग (चिरचिरे) का क्षार, शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, बंग भस्म, अग्रक भस्म, लौंग और हरड़ का चूर्ण प्रत्येक 11 तोला, अम्लवेत 2 तोला और शंख भस्म 4 तोला लें। प्रथन पारा और गन्धक की कज्जली बनायें, फिर उसमें अन्य चीजों को कूट कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिला पंचकोल, चित्रक, अपामार्ग और खट्टे लोनियों के रस की 3- 3 भावना तथा जम्बीरी नींबू रस की 21 भावना देकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना सुखा कर रख लें। भै. र.

वक्तव्य

सेन्धा नमक, विनमक, रुचक (मनिहारी) नमक, साम्भर नमक, सामुद्र नमक – ये पाँचों नमक कहलाते हैं। प्रत्येक को 11 तोला डालें।

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली प्रातः सायं भोजन के बाद गर्म जल के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन से पाचकाग्नि की शिथिलता दूर हो पुनः उसमें चेतना आ जाती है। अधिक भोजन या गरिष्ठ भोजन करने से अजीर्ण हो गया हो, तो अग्निसंदीपन की 2-3 गोली खा लेने से भोजन जल्दी पच जाता है इसके सेवन से अम्लपित्त में मुँह में खट्टा या कडुवा पानी आना बन्द हो जाता और अन्न का परिपाक भली-भाँति होने लगता है, पेट के दर्द को कम करने के लिए अग्निसन्दीपन की गोली गर्म जल के साथ खा लेने से दर्द बन्द हो जाता है। यह मन्दाग्नि, अजीर्ण, अम्लपित्त, शूल और गोला आदि का शीघ्र नाश करता है। 


अम्लपित्त रोग में विशेषतया उर्ध्वगत अम्लपित्त में

जब पित्त विकृत होकर हरा, पीला अथवा अत्यन्त खट्टा या मांस धोवन की तरह अत्यन्त पतला तथा कषाय रस युक्त वमन के द्वारा निकलने लगे, खाना हजम न हो, मन्दाग्नि हो जाय और खाना खाते ही पेट फूल जाय ऐसी दशा में अग्निसन्दीपन रस का सेवन दिन भर में 3 बार गर्म जल से करायें। अम्लपित्त पुराना होने पर पेट में दर्द बराबर होने लगता है। इस समय जी मिचलाता रहता और खाना खाने या पानी पीने के बाद ही वमन हो जाया करती है, जिससे रोगी धीरे-धीरे बहुत कमजोर होने लगता और उठने-बैठने में भी असमर्थ हो जाता है। ऐसी अवस्था में अग्निसन्दीपन रस अर्क सौंफ के साथ या अर्क अजवायन के साथ देने से लाभ करता है, क्योंकि इसमें अभ्रक भस्म पड़ी हुई है, जो अम्लपित्त रोग के लिए एक ही महौषधि है साथ ही बंग और लौह भस्म भी शरीर में शक्ति उत्पन्न करने वाली है।

गुल्म रोग में

जब गुल्म में वेदना अधिक होती हो, खाना हजम न होता हो, अजीर्ण हो, पेट फूला - सा मालूम पड़ता हो, पेट में बराबर दर्द बना रहता हो, तो अग्निसन्दीपन रस का सेवन गर्म जल से कराना चाहिए। यदि शंखभस्म, स्नूहीक्षार तथा गोमूत्र के साथ इसका सेवन कराया जाय तो यह गुल्म को भी गला देता है। इसी तरह शूल और मन्दाग्नि आदि रोग में भी इसका प्रयोग किया जाता है और उसमें यह आशातीत लाभ भी करता है।



अजीर्णकण्टक रस

सुहागे की खील, पीपल, शुद्ध बच्छनाग और हिंगुल 11 तोला, काली मिर्च 2 तोला सब चीजों को एकत्र कर कूटने वाली दवा को कूट कर कपड़छन कर लें, फिर इसमें सिंगरफ और सुहागे की खील मिला जम्बीरी नींबू के रस में खरल कर मटर के बराबर (एक-एक रत्ती की) गोलियाँ बना सुखा कर रख लें। - भा. प्र.


मात्रा और अनुपान

1-1 गोली प्रातः सायं भोजन के बाद कागजी नींबू के रस के साथ अथवा ताजा जल के साथ सेवन करें।


गुण और उपयोग

अधिक भोजन या गरिष्ठ, बासी आदि भोजन करने से उत्पन्न अजीर्ण, मन्दाग्नि, कब्जियत आदि इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं। यह मन्दाग्नि को नष्ट कर जठराग्नि को प्रदीप्त करता है इसकी दो-तीन मात्रा खाने से ही भूख खूब खुलकर लगती है और भोजन भी ठीक-ठीक पचने लग जाता है। किसी तरह का भी अजीर्ण हो, उसे नष्ट करने के लिये इसका प्रयोग- अवश्य करें।



अजीणारि रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक 4-4 तोला, बड़ी हरड़ 8 तोला, सोंठ, पीपल, मिर्च, सेन्धा नमक 12-12 तोला, शुद्ध भाँग 16 तोला लें प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना फिर उसमें अन्य औषधियों को कूट, कपड़छन चूर्ण कर मिला, धूप में सात भावना नींबू के रस की देकर घोंट कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बनाकर धूप में सुखाकर रख लें। - सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1-2 गोली भोजन के बाद गरम जल से दें।

गुण और उपयोग

यह जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है तथा अजीर्ण को पचा कर दस्त साफ लाता है। इसके सेवन से मन्दाग्नि, अजीर्ण, कब्जियत, पेट फूलना आदि रोग दूर हो जाते हैं। मात्रा से यदि अधिक भोजन कर लिया हो, तो उसे भी यह पचा देता है सब प्रकार के अजीर्ण के लिये यह उत्तम और गुणकारी दवा है।



अर्धाङ्गवातार रस

शुद्ध पारद 20 तोला ताम्र भस्म 4 तोला दोनों को खरल में डालकर जम्बीरी नींबू के रस में एक दिन घोटें पश्चात् सूख जाने पर शुद्ध गन्धक 20 तोला मिला कज्जली करके नागरपान के रस में घोंटकर गोला या टिकिया बनाकर सुखाकर बड़ी मूषा में रखकर मुँह बन्द करके (ढक्कन लगा कपड़मिट्टी से सन्धि-रोध करके) सुखाकर लघुपुट देकर पकायें स्वांग- शीतल होने पर भूषा का ढक्कन हटाकर रस को निकाल कर खरल में पीसकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 रती तक त्रिकटु चूर्ण 4 रत्ती और मधु में मिलाकर दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन अनिवात में श्रेष्ठ लाभदायक महौषधि है। कफ तथा पित्त प्रकृति वाले, मेदस्वी तथा मन्दाग्नि वाले अर्द्धाङ्गवात के रोगियों को इसके प्रयोग से विशेष लाभ होता है, क्योंकि इसमें पारद का ताम्र भस्म के साथ संयोग होने के कारण यह रस तीक्ष्ण प्रभावशाली होकर कफ, मेदवृद्धि, मन्दाग्नि, पित्तदोष इनको मिटाकर अर्द्धाङ्गवात का शमन करता है। इस रस की तीक्ष्णता एवं उष्णता के कारण वातवाहिनियों एवं रक्तवाहिनियों में जमे हुए कफ और मेद को गलाकर अथवा जलाकर नष्ट करके उनकी क्रिया को सुव्यवस्थित करता है।




अर्द्धनारीनटेश्वर रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक प्रत्येक 11 तोला, शुद्ध विष 2 तोला, शुद्ध जमालगोटा 2 तोला और काली मिर्च का चूर्ण 4 तोला लें। पहले पारा गन्धक की कज्जली बनावें फिर शेष औषधियों को भी मिलाकर त्रिफला के काढ़े से मर्दन करें तथा 5 भावनाएँ उसी (त्रिफले के काढ़े) की देकर छाया में शुष्क करके रख लें। र. सा. सं.


वक्तव्य

यह योग रसेन्द्र सारसंग्रह और रस चण्डांशु में है। मूलपाठ दोनों में समान है। रसे० सा० सं० के टीकाकार आचार्य घनानन्द जी पन्त के मतानुसार मरिच का परिमाण पारा और गन्धक दोनों से चौगुना लेना चाहिये तथा रस चण्डांशु के टीकाकार वैद्य दत्ता बल्लाल बोरकर के मतानुसार सिर्फ पारद से चौगुना लेना चाहिये। रस योग सागरकार ने पारद से चौगुना लिखा है, अतः यही हमने भी ठीक माना है।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 रत्ती तक जम्बीरी नींबू के रस में घिसकर जिस भाग में ज्वर हो अथवा जिस भाग का ज्वर उतारना हो उस भाग में नस्य दें।

गुण और उपयोग

यह सन्निपात, तन्द्रा, निद्रा न आना, सिर दर्द, कास, श्वास, मूर्च्छा, कफ की प्रबलता आदि में नस्य देने से शीघ्र लाभ होता है।

'रत्नाकर औषध योग' में लिखा है कि बकरी के एक थन से दूध निकाल कर उस दूध से इसका नस्य दिया जाय, तो जिस भाग के स्तन का दूध होगा शरीर के उसी आधे अंग का ज्वर उतर जायेगा। यदि समस्त शरीर से ज्वर उतारना हो तो इसे अदरक रस के साथ नस्य दें।


'रसेन्द्रसार संग्रह' में लिखा है कि केवल इस रस को एक ओर की नाक छिद्र में नस्य दें, तो शरीर के उस (आधे) भाग का ज्वर दूर हो जाता है। आधा ज्वर उतर जाने पर नासिका के दूसरे छिद्र में नस्य दें, तो शेष (आधा) भी ज्वर उतर जाता है। इसका प्रयोग विषमज्वर में ही अधिकतर करना चाहिए। सन्निपात में यदि प्रयोग करना हो, तो मात्रा दूनी कर देने से लाभ होता है। परन्तु, नस्य अदरक के स्वरस में मिलाकर दें।


रसों की शक्ति अचिन्त्य है। इनकी शक्ति की विवेचना नहीं की जा सकती है। कुछ रस ऐसे भी हैं जो अपनी अलौकिक शक्ति द्वारा एक विचित्र प्रभाव दिखा कर बड़े-बड़े विद्वानों को मोह में डाल देते हैं।

इस रस में इतनी अलौकिक शक्ति है कि शरीर में बढ़ी हुई ज्वर की गर्मी को खींच कर वह स्वाभाविक स्थिति पर ला देता है। इसका प्रभाव खास कर उन केन्द्रों में होता है, जहाँ शरीर की प्राकृतिक गर्मी को बढ़ाकर सम्पूर्ण शरीर में फैला दिया जाता है, अतः यह नस्यमात्र से ही ज्वर की गर्मी को दूर कर देता है।

स्वामी हरिशरणानन्द जी लिखते हैं कि, "कुछ रसों में ऐसी भी शक्ति है जो मस्तिष्क के उत्तापोत्पादक केन्द्र के विचलन को ठीक कर देती है। इससे शरीर के उत्ताप की मात्रा नार्मल हो जाती है। हो सकता है कि इसका यही प्रभाव उक्त केन्द्र पर होता हो।" इस कार्य में यह सुप्रसिद्ध योग है। इसके इस विलक्षण प्रभाव के प्रत्यक्ष चमत्कार की कई घटनाएं वृद्ध वैद्यों से सुनी गई हैं।




अमरसुन्दरी वटी

सोंठ, पीपल, काली मिर्च, आँवला, हर्रे, बहेड़ा, रेणुका, पीपला-मूल, चित्रक-मूल-छाल, लौहभस्म, दालचीनी, तेजपात, नागकेशर, इलायची छोटी, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बच्छनाग, वायविडंग, अकरकरा, नागरमोथा - प्रत्येक दवा 1-1 तोला और गुड़ दूना (40 तोला) मिलाकर चने के बराबर गोलियाँ बनावें । — यो. चि. नोट
गुड़ की चाशनी बनाकर कूटी हुई दवाओं का चूर्ण चाशनी में मिलाकर गोली बनाने में सुविधा रहती है अन्यथा गोली पिघल जाती तथा गुड़ कहीं ज्यादा कहीं कम हो जाता है। जिससे गोली अच्छी नहीं बन पाती। अतः चाशनी बनाकर ही गोली बनावें ।

मात्रा और अनुपान

1 से 3 गोली तक गरम जल से दें।

गुण और उपयोग

यह अस्सी प्रकार के वात के रोगों की प्रसिद्ध दवा है। उन्माद, मृगी, श्वास, खाँसी, बवासीर और सन्निपात में इस दवा के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है। पेट में वायु भर जाने से पेट फूल जाता हो, उस समय इसकी 2-3 गोली गरम जल के साथ देने से तत्काल लाभ होता है। मोतीझरा में यह अच्छा लाभ करती है, प्रसूत एवं सन्निपात में दशमूल क्वाथ के साथ देने पर विशेष लाभ करती है।

वात रोगों में

इसका उपयोग विशेषतः किया जाता है। प्रधानतया आक्षेपयुक्त वात रोग यथा— पक्षाघात, अर्दित (लकवा), अपतन्त्रक आदि में यह बहुत शीघ्र फायदा पहुँचाती है। क्योंकि शरीर में इसका असर वातवाहिनी नाड़ियों पर सर्वप्रथम होता है और उपरोक्त रोग होने पर वातवाहिनी नाड़ी क्षुभित हो संकुचित हो जाती है। जिससे रक्त का संचार अच्छी तरह नहीं हो पाता और जहाँ रक्त का संचार नहीं होता है, वहाँ अनेक तरह के विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इन उपद्रवों को नष्ट करने तथा वातवाहिनी नाड़ी को सुधारने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। राजस्थान के वैद्य इसका बहुत प्रयोग करते हैं।



अमरसुन्दरी बटी (कस्तूरीयुक्त )

सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हरड़, बहेड़ा, आँवला, सम्भालू के बीज, पीपलामूल, चित्रक- मूल- छाल, लौह भस्म, दालचीनी, इलायची छोटी, तेजपात, नागकेशर, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध विष, वायविडंग, अकरकरा, नागरमोथा – प्रत्येक 11 तोला और कस्तूरी 3 माशा लें। प्रथम पारा गंधक की कज्जली बनावें । पश्चात् कस्तूरी को छोड़ शेष द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण कर मिला, जल के साथ मर्दन करें। अच्छी घुटाई हो जाने पर अन्त में कस्तूरी मिलाकर दृढ़ मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोली बना छाया में सुखाकर सुरक्षित रख लें। — योग चि. म. से किञ्चित्परिवर्तित

मात्रा और अनुपान 

पूर्ण आयु वालों को 1 से साथ अथवा रोगानुसार अनुपान के

गुण और उपयोग

गोली तक दिन में दो-तीन बार शुद्ध या सुखोष्ण जल के साथ दें।
यह औषध पूर्वोक्त साधारण अमरसुन्दरी से अधिक गुणदायक और शीघ्र प्रभावकारी है। समस्त प्रकार के कठिन वात रोग, विशेषतया वातज उन्माद, अपस्मार (मृगी), सन्निपातज्वर, प्रलाप, पेट में वायु भर जाना आदि रोगों में शीघ्र लाभ पहुँचाती है। मोतीझरा ( टायफायड ), कास, दुस्तर श्वास रोग में इसके प्रयोग से बहुत उत्कृष्ट लाभ होता है। शेष गुण-धर्म अमर सुन्दरी बटी, साधारण के समान है। 
कफज रोगों में तथा कफप्रधान सन्निपात में अदरक रस, तुलसीपत्र रस और मधु के साथ देने से विशेष लाभ होता है। प्रस्तुतवात तथा सन्निपात में दशमूलक्वाथ के साथ देने से विशेष लाभ होता है।



अपूर्वमालिनी बसन्त

वैक्रान्त भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्रभस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, रौप्य भस्म, बंग भस्म, प्रवाल भस्म, रससिन्दूर, लौह भस्म, शुद्ध टंकण, शंखभस्म - ये सब द्रव्य समान भाग लेकर खरल में एकत्र पीसकर खस के क्वाथ, शतावरी का रस या क्वाथ, हल्दी का रस या क्वाथ इन तीनों की सात-सात भावना देकर उपरोक्त द्रव्यों की तरह ही कस्तूरी और कपूर भी समान भाग मिलाकर घोंटकर 1-1 रत्ती की टिकिया बनाकर छाया में सुखाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 टिकिया से 2 टिकिया तक प्रातः सायं गिलोय सत्त्व 2 रत्ती, मिश्री 2 रत्ती, तीनों को के साथ घोंटकर दें अथवा 2 रत्ती छोटी पीपल के चूर्ण और मधु के साथ मधु
खरल में घोंटकर दें।

गुण और उपयोग

यह रस जीर्णज्वर और धातुगतज्वर तथा मन्द मन्द ज्वर रहना, खाँसी, क्षय, श्वास, रक्त की कमी, पाण्डु, कामला, हलीमक, रक्तपित्त, प्रमेह, ज्वर के बाद की दुर्बलता आदि विकारों को मिटाने में अतीव उपयोगी है। अनुलोम अथवा प्रतिलोम दोनों प्रकार के क्षय को नष्ट करता है। रस-रक्तादि समस्त धातुओं की वृद्धि कर शरीर को हृष्ट-पुष्ट, बल वर्ण और कान्तियुक्त बना देता है। 
प्रमेह रोग में गिलोय सत्त्व और मिश्री तथा मधु के साथ देने से अथवा हल्दी के और मधु से देने से विशेष लाभ होता है।


अमीर रस

सेंधानमक 5 छटाँक को खूब महीन पीसें इसमें से 3 छटाँक नमक लेकर एक तवे पर 4 इंच गोलाकार में डालें। उस नमक पर सच्चे गोटे (चाँदी) का तार आधा तोला रखकर फिर रसकपूर 1 तोला, रूमी सिंगरफ 1 तोला, दाल चिकना 1 तोला – ये तीनों चीजें छोटे-छोटे टुकड़े करके डाल दें। फिर उसके ऊपर गोटे का तार आधा तोला डालकर चिनी मिट्टी के बड़े प्याले से ढक दें और पूर्व शेष दो छटाँक सेंधा नमक में कतीरा गोंद आधी छटाँक मिलाकर पानी से पीस कर सन्धि बन्द कर दें। इस तवे को चूल्हे पर चढ़ाकर तीन पहर तक आँच दें। प्याले के ऊपर वाले भाग को भीगे हुए कपड़े रखकर ठण्डा रखें। फिर शीतल होने पर प्याले को उलट कर दवा को सुरक्षित रखें। इसमें कुछ कण पारे के होते हैं। उनको अलग करके शेष दवा को शीशी में रख लेना चाहिए। - आरोग्य प्रकाश

वक्तव्य

इस योग को बनाते समय सफेद संखिया 1 तोला भी मिलने से विशेष उत्तम गुणकारी होता है।

मात्रा और अनुपान

1 या 2 रत्ती, मुनक्का में भरकर या कैपशूल में रखकर रोगी को निगलवा दें, दाँत से न चबायें।

गुण और उपयोग

रस कपूर, दाल चिकना और सिंगरफ— इन तीन प्रधान चीजों के कारण अमीर रस आतशक और उसके उपद्रवों के लिये 'रामबाण' औषध है। यह तीव्र रक्तशोधक है, अतः यह आतशक के कीटाणुओं को नष्ट करता है। रक्तवाहिनी तथा वातवाहिनी के विक्षोभ को दूर करने के कारण यह अर्द्धाङ्ग और सन्धिगत वात को भी दूर करता है। वात और कफ प्रकृति के लोगों के सूजाक में भी इससे लाभ होता है। गर्मी (आतशक ) की सभी दशाओं और उसके कारण होने वाले उपद्रवों के लिये यह बहुत ही अच्छी दवा है।

सूजाक व आतशक के कारण होने वाले गठिया या अन्य वात विकारों में मञ्जिष्ठादि क्वाथ के साथ अमीर रस का प्रयोग करना चाहिए। दवा सुबह-शाम दो बार सेवन करें। नये रोगों में 10 दिन तथा पुराने रोगों में 21 दिन सेवन कराने से प्रायः लाभ हो जाता है। दाँतों से दवा न लगने पावे। अतः मुनक्का में रख कर इसे निगल जाना चाहिए। 

पथ्य में दूध, चने की रोटी, मिश्री और हलुवा मात्र खाने को दें। नमक, मिर्च, तैल, खटाई से सख्त परहेज करावें। दवा सेवन के पश्चात् भी लगभग उतने ही दिन तक और परहेज करावें।


अमृतावस

हिंगुलोत्थ पारा और शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, सुहागे की खील, कैचूर, धनियाँ, सुगन्धवाला, नागरमोथा, पाठा, जीरा सफेद और अतीस प्रत्येक 1-1 तोला लें प्रथम पारा- गन्धक की कज्जली बनायें और उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर बकरी के दूध से पीस कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना लेवें। भै. र.

वक्तव्य

मूल पाठ में बटी का प्रमाण 4 रती है, किन्तु आजकल के नाजुक प्रकृति के लोगों के लिये 2 रत्ती की मात्रा उचित है।

मात्रा और अनुपान

1 गोली से 3 गोली दिन भर में धनियाँ और जीरे के चूर्ण के साथ या शु० भाँग के चूर्ण अथवा शाल बीज चूर्ण के साथ मिला मधु के साथ अथवा बकरी के दूध के साथ, शीतल जल अथवा भात के माँड के साथ इनमें से किसी एक चीज के साथ दें। 
गुण और उपयोग
यह अतिसार (पतले दस्त होना), संग्रहणी, बवासीर, अम्लपित्त और मन्दाग्नि आदि रोगों में बहुत लाभ करता है। यह गुल्म, कास आदि रोगों में भी फायदेमन्द है।

अतिसार में

कफज और वातज अतिसार में यह विशेष उपयोगी है बार-बार पतले दस्त हों और दस्त होने के समय अपान वायु का शब्द विशेष हो, मन्दाग्नि हो, पेट में भारीपन तथा आँत में दर्द भी होता हो, ऐसी हालत में इसका सेवन करना बहुत फायदेमन्द है।

बवासीर

ज्यादे खून निकल जाने के कारण शरीर में रक्ताणुओं की कमी होकर पाण्डु के लक्षण दिखाई देते हैं। शरीर में थोड़ा भी रक्त का संचय होने पर उसका क्षय (नाश) हो जाना, पेट में आवाज होना, मन्दाग्नि रहना, भूख कम लगना, खून ज्यादे निकलने से शरीर रक्तहीन मालूम पड़ना, धीरे-धीरे कमजोर भी होते जाना, ऐसी हालत में इसकी 1 गोली सुबह-शाम शीतल जल के साथ देने से लाभ होता है। इसी तरह गुल्म रोग में भी यह वेदना (दर्द) शामक गुण करता है।


अमृतकलानिधि रस

शुद्ध विष 2 तोला, कपर्दक भस्म 5 तोला, काली मिर्च का चूर्णं 9 तोला- तीनों को खरल में डालकर जल से मर्दन करें। गोली बनने योग्य हो जाने पर 11 रत्ती की गोली बना कर सुखा कर रख लें। -यो. र.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली तक आवश्यकतानुसार दिन में दो-तीन बार अदरक के रस और मधु के साथ अथवा गरम जल के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रस पित्त और कफदोषजन्य ज्वर, मन्दाग्नि, अजीर्ण, उदरशूल, आमदोष आदि विकारों को नष्ट करता है। अजीर्ण के साथ ज्वर भी हो, जी मिचलाता हो, कै (वमन) होने की संभावना प्रतीत होती हो, तो गरम पानी में थोड़ा-सा नमक मिला कर और आधे नींबू का रस निचोड़कर उसके साथ इस रस की एक या दो गोली खिला देने से शीघ्र ही विकार का शमन होकर रोगी को शान्ति अनुभव होती है। 

शुद्ध विष का सम्मिश्रण होने के नाते विसूचिका के सेन्द्रिय विष को नष्ट करने में भी यह अतीव उपयोगी है विसूचिका में इसे प्याज के रस के अनुपात के साथ देना उत्तम है ज्वर और प्रतिश्याय में भी तुलसी के रस और मधु के साथ देने से उत्तम लाभ होता है।


अश्विनीकुमार रस

सोंठ, पीपल, काली मिर्च, आँवला, हरें, बहेड़ा, अफीम, शुद्ध विष, पीपलामूल, लवंग, शुद्ध जमालगोटा, शुद्ध हरताल, सुहागे की खील, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक- प्रत्येक 1-1 तोला लें प्रथम पारा और गन्धक की कज्जली बना हरताल, बच्छनाग, जमालगोटा और सुहागा क्रमशः इन सबको मिलाने के बाद अन्य औषधियों को कूट, कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिलाकर पहले गाय के आधा सेर दूध के साथ खरल करें, फिर आधा आधा सेर भांगरे के रस और गो-मूत्र के साथ खरल कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। - अनुपान तरंगिणी

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

रोगानुसार अनुपान

पित्त प्रमेह में हल्दी स्वरस के साथ और मूत्रकृच्छ्र नष्ट करने के लिये पञ्चतृणमूल क्वाथ के साथ दें। 
नपुंसकता दूर करने के लिये मधु के साथ और ज्वरनाशन के लिये- सोंठ को पत्थर पर घिसकर उसके साथ दें। 
सर्वसाधारण प्रमेह में तुलसी पत्र के रस के साथ और मुख की दुर्गन्धि नष्ट करने के लिये तज के साथ दें। 
उष्णवात में— कवाबचीनी का चूर्ण 1 माशा के साथ ठंडे पानी से सेवन करें। 
शीतज्वर में कपास की जड़ के स्वरस के साथ दें। 
ऐकाहिक (एकतरा) ज्वर में तुलसी पत्र स्वरस में सोंठ घिसकर मधु के साथ देना चाहिए। 
तृतीयक ज्वर में काली मिर्च और जीरे का चूर्ण 1 माशा मिलाकर तुलसी पत्र स्वरस के साथ दें। 
प्रतिश्याय (जुकाम) में पान - स्वरस और मधु के साथ दें शिर दर्द में नींबू रस के साथ सेवन करें। 
प्लीहा वृद्धि तथा उदर रोग में इन्द्रायण के रस के साथ दें। 
जीर्ण ज्वर में गुडूची रस के साथ और कास रोग में शर्बत गुलबनप्सा के साथ सेवन करें। 
बुद्धि बढ़ाने के लिये ब्राह्मी रस के साथ दें। 
आमातिसार और रक्तातिसार में जायफल घिसकर उसके साथ और बल बढ़ाने के लिये बादाम के शर्बत के साथ दें 
सूतिका रोग में हल्दी स्वरस और घी के साथ देना चाहिए।

गुण और उपयोग

पेट की वायु बिगड़ने से होने वाले उदर रोग में और जाड़ा देकर आने वाले बुखार में तथा वायु के अन्य विकार में और पैत्तिक प्रमेह तथा मूत्रकृच्छ्र में भी इसका प्रयोग किया जाता है।

छोटी आँत (पक्वाशय) और बड़ी आंत (मलाशय) में 

दोषों का संचय हो जाने से अनेक तरह के उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं पक्वाशय में दोष जब प्रकुपित होते हैं, तो उससे (पक्वाशय) में शिथिलता आ जाती है जिससे वह अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। परिणाम यह होता है कि खाये हुए अन्नादिक पदार्थ बिना पचे ही वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं और उसमें से दूषित विषाक्त कीटाणु की उत्पत्ति होने लगती है उन कीटाणुओं के विष रक्तवाहिनी नाड़ियों द्वारा सम्पूर्ण शरीर में फैल कर शरीर के अनेक अवयवों को दूषित कर कई प्रकार के विकार उत्पन्न कर देते हैं। 
जिससे कोष्ठशूल, बहुमूत्र, पतला दस्त होना आदि उपद्रव हो जाते हैं, ऐसी अवस्था में अश्विनीकुमार रस के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि यह अन्त्रस्थ दोषों को सुधार कर पक्वाशय को उत्तेजित करता और विषाक्त कीटाणुओं को भी नष्ट कर देता है।


कोष्ठबद्धता | Constipation

दस्त की कब्जियत की हालत में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए, परन्तु मल संचय हो जाने से शरीर में जलीयांश की वृद्धि हो जाती है, जिससे प्रतिश्याय (जुकाम), प्रमेहादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसी अवस्था में अश्विनीकुमार रस के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि इसमें जयपाल पड़ा हुआ है। अतः यह मल संचय को दूर कर शरीर में बढ़े हुए जलीयांश भाग को भी दूर कर देता है।

पैत्तिक प्रमेह में 

भी इसका प्रयोग होता है। पित्त प्रमेह में पित्त प्रकुपित हो जाने के कारण पित्त का स्राव विशेष रूप में होने लगता है। यह साथ काला, नीला, हरा आदि रूपों में होता है तदनुसार ही प्रमेह रोग भी उत्पन्न होते हैं ऐसी अवस्था में पेशाब बहुत कम मात्रा में, किन्तु कई बार होता है पेशाब करने पर भी पेशाब होने की आशंका बनी रहती है। प्यास ज्यादा लगती है, विशेषकर शीतल जल या शीतल पदार्थ खाने-पीने की इच्छा होती है, हाथ और पाँव की हथेली और पगतली (तलवा) में विशेष रूप से जलन होती है ऐसी अवस्था में अश्विनीकुमार रस देने से विशेष लाभ होता है।

पैत्तिक मूत्रकृच्छ्र में 

भी बार-बार पेशाब करने पर फिर पेशाब करने की आदत बनी रहती है। इसमें पेशाब करने के समय बहुत तकलीफ होती है। मूत्र नली में जलन तथा बहुत कोशिश करने (जोर लगाने कीछने) के बाद थोड़ा-सा पेशाब वह भी जलन के साथ होता है। ऐसी अवस्था में अश्विनीकुमार रस का सेवन करना लाभदायक है। 

कोष्ठ में

दूषित मल-संचय हो जाने के कारण कभी-कभी बुखार हो जाता है। यद्यपि इस बुखार की गर्मी ज्यादे बढ़ी हुई नहीं मालूम पड़ती, किन्तु रोगी के शरीर में आलस्य, कोई भी काम करने की इच्छा न होना, भूख कम लगना, दिन-प्रतिदिन कमजोरी बढ़ते जाना, अन्दरूनी मन्द मन्द ज्वर बना रहना इत्यादि लक्षण उत्पन्न होने पर अश्विनीकुमार रस का सेवन करना बहुत हितकर है। इससे मल संचय दूर हो जाता है और पाचन क्रिया भी ठीक हो जाती तथा बुखार भी नष्ट होता है। -श्री. गु. भु. शा.


अश्वकंचुकी रस

शुद्ध पारा और गन्धक, सुहागे की खील, शुद्ध विष, सोंठ, पीपरी, मिर्च, आँवला, हरें, बहेड़ा, शुद्ध हरताल - प्रत्येक एक-एक भाग, शुद्ध जमालगोटा तीन भाग लेकर प्रथम पारा और गन्धक की कज्जली बना, अन्य औषधियों का कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिला, भाँगरे के रस में 21 भावना देकर खरल में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बनायें इन्हें छाया में सुखाकर रख लें। — सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली, जल के साथ दें अथवा रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

रोगानुसार अनुपान

अश्वकंचुकी रस यथाचित अनुपान के साथ प्रयोग करने और उचित पथ्य पालन करने से अनेक रोगों का नाश करता है।

वातशूल-क्षय खाँसी और श्वास में अश्वकंचुकी रस की 1 गोली मूली के रस या अदरख के रस के साथ छोटी पीपल चूर्णं तथा शहद इन तीनों को एकत्र मिलाकर इनके साथ दें। 

वलीपलित रोग में बालों का असमय सफ़ेद होना और असमय पर पकना बलापलित रोग होता है ऐसे में शहद के साथ देने से लाभ होता है।
सहिजन (शोभांजन) की जड़ के रस और गाय के घी के साथ सेवन करने से शूल और ज्वर का तथा छाछ (मट्ठा) के साथ सेवन करने से अजीर्ण रोग का और कमल के रस के साथ सेवन करने से शीत ज्वर का नाश होता है। 
पुनर्नवा के रस के साथ सेवन करने से पाण्डु रोग का नाश होता है।
शक्कर (चीनी) और जीरे के चूर्ण के साथ सेवन करने से पित्तज्वर का शमन होता है ।
देवदारु, बच और कूठ के काढ़े से अस्थिगत वायु रोग का जायफल के चूर्ण के साथ बवासीर का तथा त्रिकटु के साथ सेवन करने से वात शूल का नाश होता है ।
गो दुग्ध के साथ सेवन करने से पुरुषत्व उत्पन्न होता है पुत्रजीवक (जीयापोत) के रस के साथ सेवन करने से बन्ध्यापन रोग दूर होता है।
सर्पदंश में नींबू के रस में पीस कर लेप करने से सर्प का विष नष्ट होता है। 
अजवायन और बच का चूर्ण 1 माशा में गोली अश्वकंचुकी मिला कर खाने से कटिशूल (कमर का दर्द) दूर हो जाता है। 
इसकी 1 गोली को श्वास-कास रोग में शहद और बाँसा स्वरस के साथ दें ज्वर में तुलसी रस के साथ सब दिन आने वाले ज्वर में ग्वारपाठा के रस के साथ देना चाहिए। 
त्रिफले के रस के साथ देने से उर्ध्वश्वास का नाश होता है। 
सिरदर्द, प्रतिश्याय तथा आधाशीशी में जायफल चूर्ण 1 माशे में मिलाकर गरम जल के साथ, सूतिका रोग में तुलसी रस तथा शहद के साथ देना चाहिए। 
अतिसार में अश्वकंचुकी रस दही या गोमूत्र के साथ देना चाहिए। 
ग्रहणी में मट्ठा अथवा जायफल चूर्ण 1 माशा के साथ दें अग्निमांद्य में कसौंदी के रस और सुहागे के फूला (खील) के साथ देना बुद्धि वृद्धि के लिये ब्राह्मी रस के साथ दें शरीर की कान्ति बढ़ाने के लिये पान के रस के साथ देना चाहिए। 
थूहर के दूध या निर्गुण्डी रस के साथ सेवन करने से गुल्म का नाश होता है।
सन्निपात में अजवायन चूर्ण के साथ अदरक रस मिलाकर दें। 
बात-व्याधि के लिये भांगरे की जड़ का स्वरस अजमोद और भाँग के चूर्ण के साथ अथवा त्रिफला चूर्ण और असगन्ध चूर्ण 1 माशा में मिला शहद के साथ देना चाहिए।

धनुर्वात में
विष्णुक्रान्ता की जड़ का चूर्ण 1 माशे के साथ अश्वकंचुकी 1 गोली शहद में मिलाकर दें। प्रमेह के लिये पेठे के रस के साथ दें। धातुक्षीणता में गोखरू चूर्ण 3 माशे में 1 गोली मिला गो दुग्ध के साथ दें।

शुक्र (धातु) बढ़ाने के लिये शतावरी चूर्ण में मिला धारोष्ण दूध के साथ दें। एरण्डतैल के साथ अश्वकंचुकी 1 गोली देने से विरेचन होता है आमले का चूर्ण और मिश्री के साथ खाने से बढ़ा हुआ पित्त शान्त हो जाता है।

उदर रोग में त्रिफला चूर्ण और एरण्ड तेल के साथ देना चाहिए। 
भांगरे की जड़ के रस या प्याज के रस के साथ सेवन करने से शोथ(सूजन) और करंज की जड़ की छाल के साथ सेवन करने से कृमि रोग नष्ट होता है। 
उष्णवात में जीरे का चूर्ण 2 माशा के साथ शहद मिलाकर सेवन करने से लाभ होता है। - अनुपान तरंगिणी

गुण और उपयोग

अश्वकंचुकी रस ही अश्वचोली, घोड़ाचोली आदि नामों से प्रसिद्ध है इसमें हरताल, जमालगोटा आदि औषधियाँ (ये उम्र एवं उष्णवीर्य हैं) पढ़ने के कारण यह उष्णवीर्य है। इसी उष्णता को शान्त करने के लिए इसमें भावना देने का विशेष विधान है अर्थात् भांगरे के रस की भावना जितने दिनों तक दी जायेगी, यह दवा उतनी ही सौम्य होगी तथा इसके रस की विशेष भावना देने से यकृत् रोग के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है और जमालगोटा एवं हरताल आदि की उम्रता शमन हो जाती है। 

श्वास रोग में

दूषित जलवायु के कारण प्रकुपित कफ श्वास रोग उत्पन्न कर देता है। यह श्वास वर्षा- ऋतु के प्रारम्भ या अन्त में उत्पन्न होता है। इसमें कफ प्रधान सब लक्षण होते हैं और यह श्वास प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में अपना प्रभाव दिखलाता है। इसमें सफेद रक्त का कफ अधिक मात्रा में और गाड़ा गाढ़ा निकलता है श्वास के दौर का असर ज्यादे नहीं मालूम पड़ता, भीतर ही भीतर इसका प्रकोप होता रहता है अतः रोगी विशेष घबराया हुआ तथा बेचैन रहता है छाती में अधिक कफ बैठने के कारण भारीपन मालूम होता है अत्यधिक कफ-वृद्धि के कारण मन्दाग्नि हो जाती है अतः भूख भी कम लगती तथा जो थोड़ा-बहुत खाया भी जाता है, तो वह पचता नहीं है। 
पेट फूल जाता है, शरीर में आलस्य होता तथा तन्द्रा अवस्था में रोगी पड़ा रहता है ऐसी अवस्था में अश्वकंचुकी का प्रयोग करना बहुत लाभदायक है, क्योंकि यह कफघ्न है, अतः प्रकुपित कफ को शान्त कर श्वास रोग को दूर करता है तथा पित्त को जागृत कर पाचकाग्नि को भी प्रदीप्त करता है। अतः अत्रादि का पाचन भी अच्छी तरह होने लगता है, जिससे पेट फूलना आदि दूर हो भूख भी लगती है।

पसली चलना

छोटे-छोटे बच्चों को ज्यादे कफ हो जाने के कारण श्वास लेने में बहुत दिक्कत होती है, जिससे फुफ्फुस एकदम निर्बल होकर अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। उस अवस्था में श्वास की गति बढ़ जाती है। यह गति इतनी बढ़ जाती है की पसली तक चलने लग जाती है।  बच्चे की सांस ज्यादा तेज चलने से तकलीफ और बढ़ जाती है और बुखार भी  हो जाता है। कफ की वृद्धि हो जाने के कारण गला रुका हुआ सा रहता है। सांस लेने के साथ पसली में गड्ढे पद जाते हैं। ऐसे में अश्वकंचुकि रस की आधी गोली माँ के दूध के साथ अथवा पान के रस के साथ देने से अच्छा लाभ होता है।  इसी तरह कफ की विशेष वृद्धि होने पर तथा ऐसी हालत में कहीं ठंडी हवा भी लग गयी हो तो बच्चों को बहुत जल्दी निमोनिया हो जाता है। इसमें भी श्वास की गति बढ़ जाती है तथा ज्वर बहुत तेज हो जाता है खांसी भी साथ साथ होने लग जाती है। पसली में दर्द होने लगता है। ऐसी अवस्था में अश्वकंचुकी रस का प्रयोग मधु और अदरक रस के साथ किया जाता है। इसके सेवन से कफ छँटकर दस्त के साथ निकलने लगता है तथा मुँह के द्वारा भी कफ खाँसी के साथ निकल जाता है जिससे कफ के जितने उपद्रव रहते हैं, वे अपने-आप कम हो जाते हैं, फिर धीरे-धीरे रोगी भी स्वस्थ हो जाता है।

यकृत्-वृद्धि

यकृत् की बीमारी छोटे-छोटे बच्चों को अधिकतर होती रहती है, क्योंकि बाल्यावस्था में यकृत् एकदम मुलायम रहता है तथा यह परिपुष्ट नहीं होने की वजह से कमजोर (नाजुक रहता से है अतः थोड़ा सा भी अपथ्य होने पर इसमें खराबी उत्पन्न हो जाती है। यदि कफ प्रधान यकृत् वृद्धि हो अर्थात् प्रकुपित कफ के कारण यकृत् बढ़ गया हो, तो इसमें आँखों की पलकें कुछ सूजी हुई रहना, निद्रा अधिक होना, बच्चा सुस्त बना रहना, सफेद दस्त होना, कास (खाँसी) होना, कंठ से घर-घर आवाज निकलना, हाथ-पैर कुछ सूजे हुए प्रतीत होना आदि लक्षण होते हैं। इस अवस्था में अश्वकंचुकी रस का उपयोग करने से बढ़ा हुआ कफ कम हो जाता है, तथा कफ-वृद्धि के कारण जितने उपद्रव होते हैं, वे सब शान्त हो जाते हैं। अश्नकंचुकी का प्रभाव यकृत् पर विशेषतया होता है अतः यकृत के भी विकार को दूर कर अपनी प्राकृतिक अवस्था पर ले आता है फिर धीरे-धीरे बच्चा नीरोग हो जाता है।
प्लीहा वृद्धि में भी इसका उपयोग किया जाता है परन्तु एक बात का ध्यान रखें कि कफ प्रकोपजन्य बीमारी में ही इसका असर होता है, पित्त प्रधान रोग में यह फायदा न करके हानि ही करता है। अतः पित्तजन्य रोग में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

कोष्ठशूल

कफ-वृद्धि के कारण मन्दाग्नि हो जाने से क्रमशः आमाशय में कच्चे अन्न संचित होने लगते हैं। धीरे-धीरे यह संचय अधिक हो जाने से दस्त में कब्जियत हो, कोष्ठ में शूल होने लगता है यह उपद्रव ज्यादे बैठे रहने वाले आलसी, चिकने पदार्थ का अधिक सेवन करने वाले तथा मांसाहारी लोगों को विशेषतया होता है। इस रोग में मल संचय होने के कारण अंत कमजोर हो अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाती है, फिर पाचक पित्त भी मन्द हो जाता है, जिससे पाचन क्रिया में गड़बड़ी होने लगती है। परिणाम यह होता है, कि अच्छी तरह से रस- रक्तादि बन नहीं पाते पेट कुछ बढ़ जाता है, क्योंकि शरीर में रक्त की वृद्धि न होकर जल भाग की ही वृद्धि होने लगती है अतः पेट बढ़ा हो जाता तथा रोगी शक्ति-क्षय के कारण कमजोर हो जाता और शरीर कान्तिहीन एवं रक्तकणों की कमी की वजह से पाण्डुवर्ण का हो जाता है। ऐसी अवस्था में अश्वकंचुकी रस के उपयोग से शीघ्र लाभ होता है क्योंकि इसमें जमालगोटा पड़ता है अतः इसमें रेचकत्व धर्म होना स्वाभाविक है इस दवा से संचित मल निकल जाते हैं। जिससे आंत पुनः सबल हो अपना कार्य करने लगती, तथा पित्त भी जागृत हो पाचकाग्नि को प्रदीप्त कर पचन क्रिया को सुधार देता है रस रक्तादि भी अच्छी तरह बनने लग जाते हैं। फिर रोगी क्रमशः स्वस्थ होने लग जाता है।
पुराने अतिसार में भी यह अच्छा काम करता है। अतिसार जब पुराना हो जाता है, तब सफेद और लसदार मल दस्त में आने लगते हैं। इसको कोई-कोई मज्जा का गिरना कह देते हैं, और असाध्य कह कर चिकित्सा भी बन्द कर देते हैं। परन्तु वास्तविक बात यह है कि

पुराने अतिसार में आँतों की श्लैष्मिक कला मोटी हो जाती है, तथा उसमें से बराबर साव ही रहता है स्राव कफ प्रधान दोष के कारण होने से ही सफेद मल वाला दस्त होता अश्वकंचुकी रस के सेवन से श्लैष्मिक कला की मोटाई तथा बराबर होनेवाला स्राव भी हो जाता है फिर अन्य उपद्रव भी धीरे-धीरे कम हो जाते हैं।
इसमें यदि अग्निदीपन, पाचन और स्तम्भन (दस्त बन्द करने वाली) दवा देंगे, तो भी लाभ नहीं होगा जब तक कि मूल कारण को आप दूर नहीं कर लेते हैं। दस्त बन्द वाली दवा देने से मल-संचय में और वृद्धि होती जायेगी और रोग भी बढ़ता ही जायेगा। प्रथम दोष जो रोग का मूल कारण है उसे दूर करने के बाद ही यह रोग दूर हो सकता अन्यथा नहीं। इसी तरह पुरानी संग्रहणी में आंतों में जहाँ पर पाव (क्षय) हो जाते हैं, स्थान से श्लैष्मिक कला के साथ रक्त बराबर निकलता रहता है, यह साथ मल के साथ है ऐसी अवस्था में एरण्ड तैल (कैस्टर ऑयल) 5-7 बूँद पाव भर दूध में डालकर पीयें कोष्ठ शुद्धि करने के बाद ही दवा का प्रयोग करें कोष्ठ शुद्धि करने के लिये नाराच त काम में ले सकते हैं।
कोष्ठ में मल-संचय होने के कारण वात की वृद्धि हो जाती है। यह प्रकुपित वायु हृदय जाकर दर्द उत्पन्न करता है। रोगी को एकाएक झटके (आक्षेप) आने लगते हैं, जिससे बेहोश हो जाता श्वास लेने में कष्ट होने लगता, मुंह में कभी-कभी झाग आने लगता है कंठ से कबूतर के कूजन के समान आवाज आने लगती है मल-संचय के कारण पेट कठोर हो जाता है तथा कभी-कभी वायु के झटके इतने जोर के आते हैं कि रोगी का मुड़ जाता है। इसको शास्त्रकार ने अपतानक या अपतन्वक नाम से उल्लेख किया है। इस मैं कोष्ठ शुद्धि करने के बाद ही चिकित्सा करने से लाभ होगा। अतः कोष्ठ शुद्धि के अश्वकंचुकी का प्रयोग करना अच्छा है। -औ. गु. ध.


अर्शकुठार रस

शुद्ध पारद 4 तोला, शुद्ध गन्धक तोला, लौह भस्म और ताम्र भस्म प्रत्येक 8 तोला, दन्तीमूल, सौंठ, काली मिर्च, पीपल, सूरणकन्द वंशलोचन, शुद्ध टंकण, यवक्ष सेन्धा नमक - प्रत्येक 20-20 तोला स्तूही (सेहुण्ड) का दूध 32 तोला, गोमूत्र 138 तो लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनायें, पश्चात् अन्य चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण करें। बाद में गोमूत्र और सेहुण्ड दूध को अग्नि पर चढ़ाकर मन्द मन्द आँच पाक करें। जब पकते पकते गाढ़ा हो जाय, तो कज्जली और उपरोक्त द्रव्यों का चूर्ण मिलान मर्दन करें, गोली बनाने योग्य होने पर 2-2 रती की गोली बना सुखाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली तक प्रातः सायं दस्तावर औषधियों के क्वाथ के साथ अथवा जल गुलकन्द साथ भी दिया जाता है।

गुण और उपयोग

अर्श (बवासीर) में इसके सेवन से अच्छा लाभ होता है। यदि बवासीर ज्यादे दिन का हो, तो मस्से सूख जाते हैं। बवासीर में प्रायः कब्ज की शिकायत रहने से साफ दस्त होने पुराने अतिसार में आँतों की श्लैष्मिक कला मोटी हो जाती है, तथा उसमें से बराबर साव होता ही रहता है स्राव कफ प्रधान दोष के कारण होने से ही सफेद मल वाला दस्त होता है। 

अश्वकंचुकी रस के सेवन से श्लैष्मिक कला की मोटाई तथा बराबर होनेवाला स्राव भी कम हो जाता है। फिर अन्य उपद्रव भी धीरे-धीरे कम जाते हैं।

इसमें यदि अग्निदीपन, पाचन और स्तम्भन (दस्त बन्द करने वाली दवा देंगे, तो कुछ भी लाभ नहीं होगा जब तक कि मूल कारण को आप दूर नहीं कर लेते हैं। दस्त बन्द करने वाली दवा देने से मल-संचय में और वृद्धि होती जायेगी और रोग भी बढ़ता ही जायेगा। 

अतः प्रथम दोष जो रोग का मूल कारण है उसे दूर करने के बाद ही यह रोग दूर हो सकता है, अन्यथा नहीं इसी तरह पुरानी संग्रहणी में आंतों में जहाँ पर घाव (क्षय) हो जाते हैं, उस स्थान से श्लैष्मिक कला के साथ रक्त बराबर निकलता रहता है, यह स्राव मल के साथ होता है ऐसी अवस्था में एरण्ड तैल (कैस्टर ऑयल ) 5-7 बूंद पाव भर दूध में डालकर पीवें और कोष्ठ शुद्धि करने के बाद ही दवा का प्रयोग करें कोष्ठ शुद्धि करने के लिये नाराच मृत भी काम में ले सकते हैं।

कोष्ठ में मल-संचय होने के कारण बात की वृद्धि हो जाती है। यह प्रकुपित वायु हृदय में जाकर दर्द उत्पन्न करता है। रोगी को एकाएक झटके (आक्षेप) आने लगते हैं, जिससे रोगी बेहोश हो जाता श्वास लेने में कष्ट होने लगता, मुँह में कभी-कभी झाग आने लगता है और कंठ से कबूतर कूजन के समान आवाज आने लगती है मल-संचय के कारण पेट बहुत कठोर हो जाता है तथा कभी-कभी वायु के झटके इतने जोर के आते हैं कि रोगी का शरीर मुड़ जाता है।

इसको शास्त्रकार ने अपतानक या अपतन्वक नाम से उल्लेख किया है। इस रोग में कोष्ठ शुद्धि करने के बाद ही चिकित्सा करने से लाभ होगा। अतः कोष्ठ शुद्धि के लिये अश्वकंचुकी का प्रयोग करना अच्छा है। -ओ. गु. ध. शा.


आनन्दभैरव रस (कास)

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध विष, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, शुद्ध टंकण, पीपल- प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर प्रथम पारा-गन्धक की कज्जली बनावें, फिर उस कज्जली को भाँगरा-स्वरस की भावना देकर दृढ़ मर्दन करें, पश्चात् अन्य चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करके उपरोक्त कज्जली में मिलावें और बिजौरा नींबू के रस की भावना देकर दृढ़ मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोली बना सुखा कर सुरक्षित रख लें।

वक्तव्य

कुछ लोग सिर्फ व्योष में ही पीपल लेते हैं, आगे 'टंकणं मगधासमम' से शुद्ध टंकण पीपल के बराबर लेते हैं। किन्तु 'व्योष' शब्द से पृथक् 'मगधा' शब्द का उल्लेख पीपल को दो बार लेने का द्योतक है। अतः दो बार ही पीपल लेना चाहिये। र० रा० सुन्दर में इसका मूल पाठ नीचे लिखे अनुसार है। यथा--
पारद गन्धरक चैव भृंगराजेन मर्दयेत्।
हिंगुलं च वि्ष व्योष टंकर्णं मगधासमम्।
मातुलुंगरसैमर्ड रसमानन्दभैरवम्॥

मात्रा और अनुपान

1से 2 गोली तक अदरक का रस, पान का रस और मधु के साथ, या कुटज (कुड़ा) की छाल के क्वाथ या अनार के शर्बत अथवा साधारण जल से दें। 


गुण और उपयोग

इसके सेवन से खासी, श्वास, अतिसार, ग्रहणी, सत्रिपात, अपस्मार, वातरोग, प्रमेह, अजीर्ण और अग्निमान्य्य रोग नष्ट होते हैं। 

कफ-विकार में

कफ की वृद्धि होकर शरीर में भारीपन होना, देह पसीने से भीगा रहना, थोड़ा-थोड़ा बुखार होना, आलस्य होना, किसी भी काम में मन न लगना, जम्भाई आना, भूख न लगना, उपवास करने पर भी खुल कर भूख न लगना, मन्दाग्नि, जी मिचलाना इत्यादि लक्षणों में आनन्दभैरव रस देने से विशेष फायदा होता है, क्योंकि इसका असर श्लैष्भिक कला पर विशेष होता है। अतः यह कफ का शोषण कर उसके उपद्रव को भी शान्त कर देता है। -र, रा. स्.

यह पित्त को उत्तेजित करता है। अतः पित्तजन्य विकार या ज्वर में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। यदि प्रयोग करें तो किसी कफवर्द्धक दवा के साथ या इसी तरह के अनुपान के साथ। कफ-ज्वर में भी अआमदोष पच जाने पर इसका प्रयोग करने में फायदा होता है।
प्रतिश्याय जनित कास (खाँसी) में
जुकाम होकर पक जाने पर कफ कास की उत्पत्ति होती है। इसमें खासी आने के बाद कफ अधिक मात्रा में निकलता है तथा कफ का रंग कुछ-कुछ पीला लिये हुए सफेद रहता है। शिर में थोड़ा-थोड़ा दर्द तथा भारीपन बना रहता है। श्वास लेने में भी दिक्कत होती है ऐसी हालत में आनन्द भैरव रस को पान के रस के साथ लाभ होता है। 
प्रारम्भिक प्रतिश्याय (जु्काम) में यह नहीं देना चाहिए त्योंकि इसमें बच्छनाग पड़ा हुआ है, जो अपनी तेजी के कारण कफ को सुखा देता है, जिससे जुकाम रुक जाता है और शिर में दर्द तथा कभी-कभी अर्धावभेदक एवं सुखी खाँसी भी उत्पन्न कर देता है, अतः फायदा के बदले रोगी को हानि उठानी पड़ती है।

कफ-प्रधान श्वास रोग में

श्वास के दौरे के साथ-साथ कफ का भी प्रकोप विशेष रहता है। इसमें खाँसी के साथ कफ ज्यादा मात्रा में निकलता है तथा नवीन कफ भी बनता रहता है। श्वास नाभि तक न पहुँच कर हृदय तक ही रह जाता है, जिससे रोगी बेचैन हो जाता है। ऐसी अवस्था में आनन्दभैरव रस का प्रयोग करने से अच्छा लाभ होता क्योंकि इस रसायन से कण्ठ के भीतर श्वास -मार्ग की श्लैंष्भिक कला पर असर होता है, और यह कफ को निकालता है जिससे श्वासनली साफ हो जाती है और श्वास लेने में असूविधा भी नहीं होती तथा नवीन कफ की उत्पत्ति बन्द हो जाती है।

कफजन्य अतिसार में

कफ की वृद्धि होने के कारण अन्न में अरुचि तथा पाचक पित की विकृति के कारण मन्दाग्नि हो अपचन होने से अतिसार उत्पन्न हो जाता है। इससे पेट में भारीपन तथा आँतों की श्लैष्भिक कला में क्षोभ होकर पतला दस्त होने लगता है। अतः अपचित तथा झागदार दस्त होते हैं। ऐसे समय में कफ-वृद्धि को रोकने तथा आन्तरिक क्षोभ को दूर करने के लिये आनन्दभैरव रस का प्रयोग कुटज-क्वाथ के साथ करने से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि यह ग्राही है। अतः ऑतों को सबल कर दस्त को रोकता और पित्तवर्द्धक होने के कारण पित्त को उत्तेजित कर जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, जिससे अन्न का पाचन ठीक होने लगता है और
अतिसार भी बन्द हो जाता है।

साधारण कोष्ठशूल

कफ बढ़ाने वाले पदार्थ का विशेष सेवन करने से कोष्ठ बद्ध हो पेट में वायु भर जाता हैं, फिर पेट फूला हुआ तथा कड़ा मालूम पड़ने लगता है। पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द के साथ कोष्ठ में भी दर्द होने लगता है। दस्त पतले किन्तु थोड़ी-सी मात्रा में बार-बार होते हैं, दस्त होने पर भी पेट में भारीपन बना ही रहता है एवं मीठा-मीठा दर्द भी होता है। ऐसी अवस्था में आनन्दभैरव रस का उपयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। -औ. गु. ध. शा.


आनन्दभैरव रस (ज्वर )

शुद्ध हिंगुल, शुद्ध विष, सोंठ, फूला हुआ सुहागा और जायफल प्रत्येक 1-1 तोला, काली मिर्च और छोटी पीपल 2-2 तोला लेकर पृथक-पृथक इन्हें खूब महीन पीस कर वजन कर लेना चाहिए। पहले शुद्ध हिंगुल को खरल में डालकर पीसने के बाद सभी चीजों को उसमें डालकर जम्बीरी नींबू के रस में घोंटना चाहिए। अच्छी तरह घुट जाने पर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें। . सा. सं. एवं आरोग्य प्रकाश

वक्तव्य

आनन्दभैरव रस का यह योग बहुत प्रचलित योग है। ज्वर अतिसार, जुकाम, खाँसी आदि में उत्तम गुणकारी है।

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली प्रातः सायं अदरक रस और मधु के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह आनन्दभैरव रस सब तरह के बुखार में दिया जा सकता है। साधारण ज्वर में इसकी 1-1 गोली सुबह-शाम शहद के साथ देने से लाभ होता है जब बुखार बहुत जोर का हो और कम न होने के कारण रोगी घबराता हो, तो आनन्दभैरव रस एक गोली, अदरक का रस 1 तोला और शहद 1 तोला मिलाकर दिन-रात में तीन बार देने से बढ़ा हुआ बुखार (टैम्प्रेचर) अवश्य कम हो जाता है। यदि बुखार कम नहीं करना हो तो सिर्फ शहद के साथ आनन्दभैरव रस प्रातः सायं देना चाहिए। इससे बुखार धीरे-धीरे पचकर उतर जाता है अतिसार में जायफल को घिसकर उसके पानी के साथ अथवा सोंठ के पानी या बेलगिरी के काढ़े के साथ देने से उत्तम लाभ करता है।


आमवातारि रस

शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक 2 तोला, त्रिफला 3 तोला, चित्रकमूल की छाल 4 तोला, शुद्ध गूगल 5 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कम्जली बनायें। फिर अन्य दवाओं के चूर्ण तथा शुद्ध गूगल को मिलाकर बारीक पीस कर अण्डी के तेल के साथ खरल कर 2-2 रती की गोलियाँ बना कर रख लें। -- पै.र.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम गरम जल के साथ देना चाहिए अथवा दशमूल या महारास्नादि क्वाय या एरण्डतैल के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन के सेवन करने से अति प्रबलतम वात दोष नष्ट हो जाता है आमवात रोग में जिस समय हाथ-पैरों में या सारे बदन में सूजन हो गयी हो, सूई चुभने जैसी पीड़ा होती हो, उस समय इस दवा के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है जब तक यह दवा सेवन करें, तब तक वायु बढ़ाने वाले पदार्थों का सेवन करना छोड़ दें और गरम जल का ही व्यवहार करें। इस दवा के सेवन से आमवात रोग में बहुत उत्तम लाभ होता है। अन्य वात रोगों में भी यह अच्छा लाभ करता है।




आरोग्यवर्द्धिनी बटी (रस)

शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक तोला, लौह भस्म 1 तोला, अत्रक भस्म 1 तोला, ताम्र भस्म 1 तोला, हरें, बहेडा आँवला प्रत्येक 2-2 तोला, शुद्ध शिलाजीत 3 तोला, शुद्ध गुग्गुलु 4 तोला, चित्रकमूल छाल 4 तोला और कुटकी 22 तोला लें। प्रथम पारद गन्धक की कञ्जली बना उसमें अन्य भस्मों तथा शुद्ध शिलाजीत और शेष द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिलावें। पीछे गुग्गुलु को नीम की ताजी पत्ती के रस में दो दिन तक भिगो हाथ से मसल, कपड़े से छान, उसमें अन्य दवा मिलाकर 
मर्दन करें। नीम की ताजी पत्ती के रस में मर्दन कर 22 रती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। २.र. स.

मात्रा और अनुपान

2 से 4 गोली रोगानुसार जल, दूध पुनर्नवादि क्वाथ या केवल पुनर्नवा का क्वाय दशमूल क्वाथ के साथ दें। 

गुण और उपयोग

यह रसायन उत्तम पाचन, दीपन, शरीर के स्रोतों का शोधन करनेवाला, हृदय को बल देनेवाला, मेद को कम करनेवाला और मलों की शुद्धि करने वाला है यकृत् - प्लीहा, बस्ति, वृक्क, गर्भाशय, अन्त्र हृदय आदि शरीर के किसी भी अन्तरावयव के शोध में, जीर्ण ज्वर, जलोदर और पाण्डु रोग में इस औषध से अधिक लाभ होता है पाण्डुरोग में यदि दस्त पतले और अधिक होते हो, तो इसका प्रयोग न कर पर्पटी के योगों का प्रयोग करना चाहिए। 

सर्वाङ्ग शोथ और जलोदर में रोगी को केवल गाय के दूध के पथ्य पर रख कर इसका प्रयोग करना चाहिए। 
यकृत् की वृद्धि के कारण शोध हो, तो पुनर्नवाहक क्वाथ में रोहेड़ा की छाल और शरपुंखामूल 1-1 भाग अधिक मिलाकर उसके अनुपान से इसका प्रयोग करें। 
यदि हृद्रोगजन्य शोथ हो तो आरोग्यवर्धिनी के साथ "डिजिटेलिस पत्र" चूर्ण आधी से 1 रती और जंगली प्याज (बन पलाण्डु) का चूर्ण 1-2 रत्ती मिलाकर पुनर्नवादि या दशमूल क्वाथ के साथ इसका प्रयोग करें जीर्णफुफ्फुसधरा कला शोथ में इसके साथ श्रृंग भस्म 4-8 रही मिलाकर भारी- मूल, पुनर्नवा, देवदारु और अडूसा के क्वाथ के साथ इसका प्रयोग करें।  
मेद (चर्बी कम करने के लिये रोगी को केवल गाय के दूध पर रख कर महामंजिष्ठादि क्वाथ के अनुपान से इसका सेवन करायें। सि.यो.सं.

यही बटी बृहदन्त्र तथा लघु अन्य की विकृति को नष्ट करती है, जिससे आन्त्र-विषजन्य रक्त की विकृति दूर होने से कुष्ठ आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। इससे पाचक रस की उत्पत्ति होती है और यकृत् बलवान होता है अतः यह पुराने अजीर्ण, अग्निमांद्य और यकृत् दौर्बल्य लाभ करती है। 

सर्वाङ्ग शोथ में होने वाले हृदयदौर्बल्य को यह मिटाती है और मूत्र मार्ग से जलांश को बाहर निकाल शोध को कम करती है। 
पाचन शक्ति को तीव्र करके धातुओं का समीकरण करने के कारण यह मेदोदोष में लाभदायक है मलावरोध नष्ट करने के लिये यह उत्तम औषध है। 
दुष्ट व्रण में वात-पित्त की अधिकता होने पर इसके सेवन से लाभ होता है। 
शरीर पोषक ग्रंथियों की कमजोरी या विकृति से शरीर की वृद्धि रुक जाती है और शरीर निर्जीव सा हो जाता है। 
इस तरह जवानी आने पर भी स्त्री और पुरुष में स्वाभाविक चिन्हों का उदय नहीं होना ऐसी अवस्था में इस बटी के निरन्तर प्रयोग से लाभ होते देखा गया है। 
यह पुराने वृक्क विकार में भी लाभ करती है। प्रमेह और कब्ज में अपचन होने पर भी यह लाभ करती है। 
हिक्का रोग में भी इसके प्रयोग से हिक्का नष्ट हो जाती है। 
परन्तु यह भटी गर्भिणी स्त्री, दाह, मोह, तृष्णा, भ्रम और पित्त प्रकोपयुक्त रोगी को नहीं देना चाहिए।

कुष्ठ रोग की प्रारंभिक अवस्था में

इसका उपयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। पुराने कुष्ठ रोगों में अर्थात् जब रक्त और मांस दूषित हो, मवाद रूप में परिणत होकर बहने लगे जैसा गलित कुष्ठ तो इसमें यह लाभ नहीं करती है। विशेषतया वात और कफ प्रधान या वात कफ प्रधान कुष्ठ— जैसे कपाल, मण्डल, विपादिका, चर्मदलादि और अशमक पर इसका प्रयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। इस दवा के सेवन काल में पथ्य में बराबर दूध का ही सेवन करना चाहिए।
औदुम्बर कुष्ठ में शरीर की त्वचा विकृत और रूक्ष हो जाती है तथा स्पर्श-ज्ञान का लोप हो जाता है अर्थात् जहाँ धब्बे पड़ जाते हैं उसे स्पर्श करने से उसको छूने तक का ज्ञान नहीं होता है ये धब्बे लाल और ऊपर उठे पके हुए गूलर फल के समान होते हैं। उसमें से पसीना अधिक निकलता रहता है। ऐसी अवस्था में केवल आरोग्यवर्द्धिनी न देकर गन्धक रसायन के साथ इसे देना अच्छा है और भोजनोपरान्त खदिरारिष्ट 2 तोला बराबर जल मिश्रित कर के दोनों शाम देना चाहिए। इससे बहुत शीघ्र लाभ होता है।

कभी-कभी रक्त विकृति के कारण शरीर में लाल चट्टे पड़ जाते हैं उनसे खुजली होती है तथा बाद में पूर्व पड़ जाता है कभी-कभी खुजलाने पर लाल चट्टे होकर मवाद भर जाता है ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्द्धिनी बटी महामंजिष्ठादि अर्क के साथ या नीम की छाल के क्वाथ के साथ देने से विशेष लाभ होता है।

रक्त और मांस की विकृति के कारण त्वचा विकृत हो जाती है। इसमें कफ और वायु की प्रधानता रहती है। अतः जहाँ की त्वचा विकृत हो जाती है, वहाँ की त्वचा रूक्ष होकर फट जाती है और उसमें से थोड़ा-थोड़ा मवाद भी निकलने लगता है। खुजलाने पर छोटी-छोटी फुन्सियाँ होकर पक जाती हैं, इसमें सुई कोंचने जैसी पीड़ा होती है यह स्थान कठोर बन जाता है। ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्द्धिनी वटी का उपयोग दूध के साथ करावें तथा ऊपर से सारिवाद्यासव 2 तोला बराबर जल मिलाकर पिलायें गन्धक रसायन से भी अच्छा लाभ होता है।

वात-पित्त-कफ दोषों से उत्पन्न ज्वरों में इसके प्रयोग से लाभ होता है इसी तरह बद्ध- कोष्ठजनित ज्वर, आमाशय की विकृति से अपचन जनित ज्वर, बहुत दिनों तक बराबर आनेवाला ज्वर और पित्त की विकृति से उत्पन्न होनेवाले ज्वरों में भी इसका प्रयोग किया जाता है।

मल-संचय हो जाने के कारण कफ की वृद्धि हो मन्दाग्नि हो जाने पर जी मिचलाना, वमन होना तथा उसमें कफ की झाग (फेन) निकलना, भूख न लगना, पेट भारी हो जाना, भोजन करने के बाद ही जी मिचलाना, तथा वमन होने की इच्छा होना, कभी-कभी वमन भी हो जाना, खाँसी, कफ सफेद तथा लेसदार गिरना ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्द्धिनी दें। 
इससे मल-संचय दूर हो कफ के विकार दूर हो जाते हैं और यह पित्त को बलवान बनाकर मन्दाग्नि को दूर करती है, जिससे अनादि का भी पाचन ठीक से होने लगता तथा कफ नष्ट हो जाने से वमनादि उपद्रव भी दूर हो जाते हैं।
यह गुटिका दीपन पाचन भी है अर्थात् पाचक पित्त की कमजोरी से अन्नादि की पाचन- क्रिया में गड़बड़ी होने लगती है, जिससे अपचन बराबर बना रहता है आजकल ऐसे रोगों की कमी नहीं है और इस रोग से छुटकारा पाने के लिये लोग अनेक प्रकार के खट्टे-मीठे तथा चरपरे जायकेदार चूर्ण का भी सेवन करते हैं ऐसे चूणों के सेवन से तात्कालिक लाभ तो होता है, परन्तु बाद में रोग फिर जैसा का तैसा ही हो जाता है।
इसके लिये आरोग्यवर्द्धिनी वटी का उपयोग करना बहुत श्रेष्ठ है, क्योंकि यह पाचक पित्त को सबल बना, पाचन शक्ति प्रदान करती है, जिससे मन्दाग्नि दूर हो, अन्नादि की पाचन- क्रिया ठीक होने लगती तथा भूख भी खुलकर लगने लगती है। 
हृदय की निर्बलता में मल-संचय अधिक होने के कारण बद्धकोष्ठ हो जाता है जिससे कफादि की वृद्धि हो जाती और मन्दाग्नि भी हो जाती है। फिर अन्नादिक का पाचन ठीक से न होने के कारण रस- रक्तादि भी उचित परिमाण में नहीं बन पाते। अतः रक्तकणों की वृद्धि न होकर शरीर में जल भाग की ही वृद्धि होती रहती है ऐसी अवस्था में सर्वाङ्ग में सूजन होकर हृदय कमजोर हो जाता है जिससे हृदय अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे समय में आरोग्यवर्द्धिनी वटी पुनर्नवादि क्वाथ के साथ देने से बहुत लाभ करती है।
प्राचीन मलावरोध होने से आँत में मल चिपक जाता है, जिससे आंत में सेन्द्रिय विष की उत्पत्ति हो मल शुष्क हो जाता है। मल शुष्क होते जाने से आँत की दीवारें सख्त (कठोर) हो जाती हैं। फिर आँतों की क्रिया में अन्तर पड़ जाता है और उसमें दर्द भी होने लगता है। यह दर्द साधारण चूरण चटनी आदि से नहीं दबता जब तक कि मल की शुद्धि न की जाय। यह कार्य आरोग्यवर्द्धिनी वटी त्रिफला क्वाथ के साथ अच्छी तरह कर देती है। इससे मल पिघल कर बाहर निकल आता है तथा अंत में कोमलता आ जाती है और वह अपना कार्य भी अच्छी तरह से करने लग जाती है। -औ. गु. ध. शा.


इच्छाभेदी रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध सुहागा, काली मिर्च, सोंठ का चूर्ण- प्रत्येक एक-एक तोला और शुद्ध जयपाल (जमालगोटा) चूर्ण 3 तोला लें। पहले पारद-गन्धक की कज्जली बना उसमें अन्य दवाओं को मिलाकर घोटें फिर जल से 1 दिन खूब घोंटकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें (कोई-कोई इस दवा का सिर्फ चूर्ण ही बनाकर रखते हैं)। र. सा. सं.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली (1 से 2 रत्ती ) प्रातः शीतल जल या चीनी के शर्बत के साथ दें।
गुण और उपयोग
रोगी की इच्छानुसार पेट को शुद्ध करने वाला यह तेज विरेचन है यह कफ और बात को दूर करता है तथा आँतों में संचित विकार (मल) को निकालता और शूल को नष्ट करता है। रोगों की चिकित्सा करने से पहले पेट साफ कर लेना आवश्यक रहता है। यह कार्य इसके सेवन से अच्छी तरह हो जाता है परन्तु इसमें जमालगोटा है, वह पेट में गर्मी उत्पन्न करता एवं कभी-कभी ज्यादे दस्त भी ला देता है अतः नाजुक स्वी, पुरुष, बालक तथा गर्भवती स्त्रियों को नहीं देना चाहिए। इससे ज्यादे दस्त लगने पर गरम पानी पी लेना चाहिये। विरेचन के बाद खिचड़ी और दही खाना चाहिए।

जुलाब लेने की विधि

जब गोली खाने के बाद दस्त आना आरम्भ हो जाय, तो एक दस्त आने के बाद दो-तीन घूँट ठंडा जल पी लें। इसी प्रकार जितना घूँट पानी पिया जायेगा उतने ही दस्त आयेंगे। यही इस दवा में विशेषता है। जब दस्त बन्द करना हो तो थोड़ा सा गर्म जल पी लेने से दस्त बन्द हो जाता है। बाद में दही भात खायें। जुलाब लेने के पहले दिन घी मिली खिचड़ी खाकर कोष्ठ स्निग्ध कर लेना चाहिए। अत्यावश्यक होने पर बिना स्निग्ध कोष्ठ के भी ले सकते हैं, इसकी गोली को चूर्ण कर बराबर चीनी मिलाकर भी दे सकते हैं।
यह रसायन रक्त-दोष, उपदंश, कुष्ठ, अजीर्ण, आम-वृद्धि, मलवृद्धि, कृमि, मलावरोध, कफ प्रधान जलोदर आदि रोगों के नाश करने के लिये उत्तम है। कफ प्रधान जलोदर रोग में जल का शोधन करने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है।
कफ-वृद्धि के कारण कफवाहिनी स्रोतों का अवरोध हो जाता है और वायु की वृद्धि होकर शरीर में आक्षेप जन्य बीमारी हो जाती है, जिससे अपतन्त्रक, अपतानन आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में कोष्ठ शोधन करने तथा कफ के अवरुद्ध (रुके हुए) स्रोतों का शोधन करने के लिये विरेचनीय औषध की आवश्यकता होती है। इसके लिये इच्छाभेदी रस बहुत उपयोगी है।
पक्वाशय में मल संचय विशेष होने पर आँतें दूषित होने से ही सेंद्रिय विष उत्पन्न होता है। यह विष इतना उग्र होता है कि सम्पूर्ण शरीर में फैलकर रस रक्तादि धातुओं को विकृत करके कुष्ठ सदृश रोग उत्पन्न कर देता है। इस रोग में समस्त शरीर पर काले या लाल चकत्ते, खुजली सहित उत्पन्न होते हैं। जिससे रोगी अधिक बेचैन रहता तथा आँत में मीठा-मीठा दर्द भी होता रहता है। ऐसी अवस्था में इच्छाभेदी रस के उपयोग से विशेष लाभ होता है। - औ. गु. ध. शा.


इन्दुशेखर रस

शुद्ध शिलाजीत, अभ्रक भस्म, रस सिन्दूर, प्रवाल भस्म, लौह भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हरिताल – इन सब को समान भाग लेकर खरल में एकत्र पीसकर भृङ्गराज, अर्जुन, निर्गुण्डी, अडूसा, स्थलकमल, जलकमल और कुड़ा इसके प्रत्येक के स्वरस या क्वाथ की 11 भावना देकर मर्दन करें गोली बनने योग्य होने पर एक-एक रत्ती की गोली बनाकर सुखाकर रखें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली तक मधु या जल के साथ सुबह-शाम दें।

गुण और उपयोग

इस रस के सेवन करने से गर्भिणी स्त्री को होने वाले ज्वर, खाँसी, श्वास, सिर-दर्द, रक्तातिसार, संग्रहणी, वमन, अग्निमांद्य, आलस्य, दुर्बलता, प्रदर, हृदय रोग, स्नायु दौर्बल्य, भ्रम आदि विकार शान्त होते हैं। इसमें शिलाजीत, अभ्रक भस्म, रस-सिन्दूर और प्रवाल भस्म ये द्रव्य शरीर पुष्टिकारक और रसायन हैं, लौह भस्म और स्वर्णमाक्षिक भस्म रस- रक्तादि धातुवर्द्धक एवं यकृत् और प्लीहा की क्रिया को सुधारने वाले हैं। शुद्ध हरिताल सेन्द्रिय विषनाशक धातु शोधक एवं ज्वरम्न और कास श्वास-नाशक है। इन सब द्रव्यों के संमिश्रण एवं उपरोक्त भावना द्रव्यों की भावनाओं के संयोग से निर्मित यह रस उत्तम गुणकारी है।


उदयादित्य रस

शुद्ध पारद 4 रती शुद्ध गन्धक 8 तोला लें दोनों को खरल में डालकर कजली करें। पश्चात् ग्वारपाठा के रस में घोंट कर गोला बना कर सुखा कर उसे मिट्टी की इंडिया में रख कर उसको पारद दुगुने वजन की शुद्ध ताम्र की कटोरी को उल्टी रख कर ढंक दें और सन्धि को मुलतानी मिट्टी लगा कर बन्द कर दें। पश्चात् हण्डिया के खाली आधे भाग को पलाश की राख से भर दें तथा उसमें आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा गोबर का रस डालते जायें, इस प्रकार चूल्हे पर हाँडी को रख कर दो प्रहर तक पकायें पश्चात् स्वांग शीतल होने पर, राख हटा कर ताम्र की कटोरी सहित दवा को निकालकर खरल में डाल कर महीन पीस कर कठूमर, चित्रक, त्रिफला, अमलतास, वायविडंग, वाकुची-बीज इनके पृथक् पृथक् क्वाथ से एक-एक दिन भावना देकर घोंटकर सुखा कर, पीस कर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 रती तक दवा को खैर के क्वाद में समान भाग वाकुची चूर्ण डाल कर गाढ़ा होने तक पका कर इसमें से 3 माशा लेकर इसके साथ खायें तथा ऊपर से थोड़ा अर्क दुग्ध या त्रिफला क्वाथ पीयें।

गुण और उपयोग

इसके सेवन से 3 दिन या सात दिन में कुष्ठ पर स्फोट (छाला) पड़ता (उड़ता है इस छाले पर नीले पंचाङ्ग, गुज्जा, कासीस, धतूरा, हंसपादिका, हुलहुल, अम्लपणीं इनको समान भाग लेकर जल से पीस कर एक सप्ताह तक बार-बार इस लेप को लगाते रहें-स्फोट शान्त होने तक लगाते रहें श्वेत कुष्ठ को नष्ट करने के लिये यह अतीव श्रेष्ठ किन्तु उम्र प्रयोग है। नोट
इस प्रयोग के उम्र होने के कारण यह कुष्ठ स्थान पर स्फोट (फफोला) उत्पन्न करता है। इन स्फोटों में कुष्ठकारक दोष और दृष्य दूषित जल के रूप में होते हैं जो कि स्फोटों के फूट जाने पर शरीर से बाहर निकल जाते हैं और विकार नष्ट हो जाता है किन्तु इन स्फोटों के निकलने पर इनमें बड़ी जलन एवं खुजलाहट होती है, जिसकी वेदना से रोगी कष्ट असहिष्णु हुआ तो घबड़ा जाता है, ऐसी स्थिति में उपरोक्त दवाओं का लेप लगाने से शान्ति मिलती है।
जहाँ तक हो सके यह रस कष्ट-सहिष्णु दृढ़ प्रकृति के रोगियों को ही सेवन कराना चाहिए। यह रस 3 या 7 दिन तक प्रतिदिन केवल एक बार ही सेवन कराया जाता है स्फोट उत्पन्न होने पर इसका प्रयोग अवश्य बन्द कर देना चाहिए।


उन्मत्त रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सोंठ, पीपल, काली मिर्च प्रत्येक समान भाग लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना लें फिर सोंठ, पीपल और मिर्च को कूट- कपड़छन कर चूर्ण बना, कज्जली में मिलाकर धतूरे के पत्तों के रस में 1 दिन मर्दन करें, शुष्क करके रख लें। — रससंकेत कलिका

गुण और उपयोग

यह औषध खाने की नहीं है, नाक में नस्य के समान सुंघाने की है। सन्निपात ज्वर में संज्ञाहीन (बेसुध होने पर तथा तन्द्रा अर्थात् आँख की झपझपी होने पर और अपस्मार, मूर्च्छा आदि रोगों में संज्ञाहीन हो जाने पर इस नस्य के प्रयोग से लाभ होता है।


उपदंशकुठार रस

कंकुष्ठ (मूर्दासंग), कूठ दोनों एक-एक तोला लें तथा शुद्ध तृतिया आधा तोला, तीनों को खरल में पीसकर अदरक के रस के साथ घोटें गोली बनाने योग्य होने पर एक-एक रत्ती की गोली बनाकर सुखाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

नए एवं पुराने उपदंश रोग को या दो सप्ताह सेवन करने से ही नष्ट करने में इसका उपयोग किया जाता है इसके एक ठीक हो जाता है। विकार अधिक उम्र रूप में हो तो तीन या चार सप्ताह तक भी सेवन किया जा सकता है। सूचना
इसके प्रयोग काल में मीठे और खट्टे पदार्थ, मांस, दूध, कुष्माण्ड (कुम्हड़ा) का सेवन नहीं करना चाहिए। कुछ चिकित्सकों का मत है कि इसके सेवन में तृतिया के कारण किसी को वमन हो तो उस रोगी को आम का अचार या निम्बू खिलाना चाहिए इससे तुल्य की वमन कराने की शक्ति कम हो जाती है।


उन्मादगजकेशरी

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मैनशिल और धतूरे के बीज समान भाग लेकर चूर्ण करके बच के क्वाथ की और ब्राह्मी रस की 7-7 भावना देकर रखें। र. रा. सु.

मात्रा और अनुपान

2 से 4 रत्ती, धृत के साथ मधु अथवा पान के रस से दें। 

गुण और उपयोग

यह वातादि दोष (त्रिदोष) जन्य उन्माद (पागलपन), अपस्मार (मृगी) आदि की श्रेष्ठ दवा है दिमाग की कमजोरी से होने वाले रोग मूर्च्छा (बेहोशी), हिस्टीरिया, अनिद्रा आदि रोग इसके सेवन से नष्ट होते हैं। भूतोन्माद, प्रेत-पिशाचादि जन्य पागलपन के लिये भी इसका प्रयोग करने से अच्छा लाभ होता है।

यह मन और बुद्धि को प्रसन्न तथा विकसित करता और धातुओं ( रस रक्तादि) की विषमता को दूर कर समता स्थापित करता है। वात-वृद्धि के कारण त्वचा रुक्ष हो गयी हो तथा शरीर दुबला और श्याम (काला) वर्ण का हो तो इस रसायन के देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। इससे वात की शान्ति होकर उससे उत्पन्न होनेवाले विकार भी दूर हो जाते हैं। वात-प्रधान रोगों को शान्त करने के लिये ब्राह्मी रस के स्थान पर महारास्नादि क्वाथ के रस से भावना देने से उत्तम और शीघ्र लाभ पहुँचता है।


उन्मादगजांकुश रस

शुद्ध पारा 4 तोला लेकर उसको धतूरे का पत्र स्वरस महाराष्ट्री (पीपल) का स्वरस या क्याथ और कुचले के क्वाथ के साथ दृढ़ मर्दन कर ऊर्ध्वपातन-यन्त्र से उड़ा लें और उसमें 5 5 तोला ताम्र भस्म मिलाकर जल के साथ मर्दन कर टिकिया बनाकर सुखा लें। पश्चात् इन टिकियों को सकोरों में रखें, टिकिया के ऊपर नीचे शुद्ध गन्धक 211 तोले का सूक्ष्म चूर्ण एवं बीच में टिकिया रखें और सिकोरों की सन्धि बन्द करके (कपड़मिट्टी कर) सुखायें फिर लघुपुट में रखकर फेंक दें। इस प्रकार 7 पुट दें। बाद में इस पुट लगाये हुए पारद में शुद्ध गन्धक 5 तोला मिला कज्जली करें, शुद्ध धतूरे का बीज, शुद्ध विष 5-5 तोला लेकर सूक्ष्म चूर्ण करके मिलावें तथा अभ्रक भस्म 5 तोला मिला, पश्चात् 3 दिन तक जल के साथ मर्दन करें गोली बनने योग्य होने पर 11 रती गोली बना, सुखाकर रख लें। -भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली दिन में दो बार सुबह-शाम विषम भाग घृत और मधु के साथ या ब्राह्मी घृत और मिश्री के साथ ब्राह्मी स्वरस के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का प्रयोग करने से वातज, कफज, पित्तज, इन्द्रज, सन्निपातन उन्माद रोग शीघ्र नष्ट होते हैं इसके अतिरिक्त अपस्मार (मृगी) रोग की यह श्रेष्ठ औषध है एवं मस्तिष्क की दुर्बलता से होने वाले विकार, मूर्च्छा, बेहोशी, हिस्टीरिया, अनिद्रा, आदि रोग नष्ट होते हैं विशेषतया भूतोन्माद, प्रेत-पिशाचादि जनित उन्माद (पागलपन) रोग के लिये उत्कृष्ट औषध है।


एकांगवीर रस

रससिन्दूर, शुद्ध गन्धक, कान्त लौह भस्म, बंग भस्म, नाग भस्म ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लौह भस्म, सौंठ, मिर्च, पीपल सब समान भाग लेकर चूर्ण करने योग्य दवाओं को कूट-कपड़छन चूर्ण कर भस्मादिक दवा मिला 1 दिन तक खूब चोटें फिर उसे त्रिफला, त्रिकुटा संभालू, चित्रक, भृंगराज, सहजना, कूठ, आँवला कुचला, आक, धतूरा और अदरक के रस में यथाक्रम 3-3 भावना देकर 11 रती की गोलियाँ बनाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली, प्रातः सायं शहद अथवा वातनाशक क्वाथ के साथ देवें। 

गुण और उपयोग

इसके सेवन से पक्षाघात (लकवा), अर्दित(Facial Paralysis), गृधसी(Sciatica), एकाङ्गवात, अर्धाङ्गवात आदि वात विकारों में अच्छा लाभ होता है किन्तु पक्षाघात में इसका विशेष उपयोग किया जाता है। इस रस में कान्त लौह भस्म, नाग भस्म, अभ्रक भस्म आदि उत्तम तथा जल्दी फायदा करने वाली दवाएँ पड़ी हुई हैं, अतः यह दवा वात विकारों में निश्चित रूप से लाभ पहुंचाती है यह रसायन बहुत तीक्ष्ण है, अतः वातप्रधान या कफ वातप्रधान विकारों में विशेष लाभदायक है। साथ ही यह बृंहण, जीवनीय विषघ्न और कीटाणुनाशक भी है।
शारीरिक अवयवों (हाथ-पाँव, आंख, कान, नाक आदि) की चेतना शक्ति और इनकी क्रिया (संचालनादि क्रिया) का नष्ट हो जाना ही पक्षाघात कहलाता है। इन दोनों में से किसी एक का ह्रास हो जाने से अपूर्ण पक्षाघात तथा दोनों शक्ति का नाश हो जाने से सम्पूर्ण पक्षापात कहा जाता है कई कारणों से होने की वजह से इसके भेद भी अनेक होते हैं, जिनमें सबसे विशेष त्रासदायक उपदेशजन्य होता है, क्योंकि उपदंशजन्य पक्षाघात में रक्त और वातवाहिनी दोनों नाड़ियाँ दूषित हो जाती हैं। अतः यह अधिक दिन तक कष्ट देता है। 

कभी- कभी विष की उपता के कारण अथवा शीत वायु या शीतप्रदेश और शीतकाल में ठंडी चीजों का सेवन विशेष करने से भी पक्षापात हो जाता है। हृदय की निर्बलता के कारण मानसिक दुःख की वेदना सहन करने में असमर्थ मनुष्य को भी यह रोग होता है ऐसे मनुष्य को जब विशेष मानसिक क्षोभ होता है, तो अकस्मात सम्पूर्ण शरीर की बातवाहिनी और रक्तवाहिनी नाड़ियाँ दूषित हो जाती हैं और उनमें दूषित रक्त संचय होने के कारण पक्षापात हो जाता है। 
रक्त संचय की अधिकता से रक्तवाहिनी नाड़ियाँ उसका भार वहन करने में असमर्थ हो जाती हैं अतः वे नाड़ियाँ फूट जाती हैं और उनमें से रक्तस्राव होने लगता है।
पक्षाघात की उत्पत्ति में जैसे साधारणतया इसके दो कारण (चेतना शक्ति का ह्रास तथा उसकी क्रिया का नाश होना) होते हैं इसी तरह उसकी चिकित्सा में भी दो भेद होते हैं. एक तो विकृत रक्त को सुधारना और दूसरा दूषित रक्तवाहिनी नाड़ी के घावों को पूर्ण करना ऐसी दशा में आयुर्वेदोक्त दूषित रक्त का सुधार करने वाली प्रसिद्ध दवाइयाँ जैसे शुद्ध शिलाजीत, ताप्यादि लौह, गुग्गुल, स्वर्णमाक्षिक भस्म आदि के प्रयोग से बहुत शीघ्र लाभ होता है।

इन दवाइयों के सेवन से दोनों काम हो जाते हैं, दूषित रक्त भी सुधर जाता है और क्षत की पूर्ति भी हो जाती है परन्तु बीच में कुपथ्य करने से इस रोग के झटके पुनः आने लगते हैं, जिससे रोगी को पुनः कष्ट होने लगता है। अतः इन झटकों को दूर करने के लिये अर्थात् स्थायी रूप से रोग निवृत्ति के लिये इसका उपाय करना चाहिए यह कार्य तभी हो सकता है, जब दूषित वायु का सुधार होगा, क्योंकि रक्तसंचालन क्रिया वायु के ऊपर निर्भर है, वायु जितनी तीव्र गति से उसे संचालित करता है, वह (रक्त) उतने जोरों से चलता है अतः यदि वायु की गति में वृद्धि हो गयी हो तो उसे शान्त कर अपनी अवधि के अन्दर लाने का प्रयत्न करना चाहिए। 

यदि वायु अपनी गति पर आ जायेगा तो रक्त की गति भी मर्यादित हो जायेगी। यह प्रकृति सिद्ध बात है क्योंकि इसका प्रभाव खासकर वातवाहिनी नाड़ी पर होता है। अतः यह उत्तेजित वायु को शान्त कर देता है तथा दूषित रक्त को भी सुधारता है। हृदय को बलवान बनाना भी इसका एक प्रधान कार्य है।

धनुर्वात

शरीर के किसी भी भाग में भाव हो जाय, और वह अधिक दिनों तक बहता ही रहे, उसकी चिकित्सा पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाय, तो धनुवत के उत्पादक कीटाणुओं का प्रवेश उसके द्वारा हो जाता है यह कीटाणु रक्तवाहिनी और स्नायु-स्थित वायु को दूषित कर शरीर को नवा (टेढ़ा कर) देता है इसे ही धनुर्वात कहते हैं इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में बार-बार झटके आते रहते हैं ये झटके इतने जोर के आते हैं कि रोगी की आँखें मिच जाती हैं। 
कभी-कभी दर्द के मारे बेहोशी भी हो जाती है, दाँती बंध जाती है इत्यादि भयंकर लक्षण उपस्थित हो जाते हैं इसकी उग्रावस्था में कालकूट रस से बहुत लाभ होता है किन्तु जब उग्रावस्था शान्त हो जाय तब एकांगवीर रस का सेवन करना उपयोगी है।


कनकसुंदर रस

शुद्ध गन्धक, शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध सुहागा, शुद्ध विष ( बच्छनाग), काली मिर्च, पिप्पली चूर्ण, शुद्ध धतूरे के बीज समान भाग लेकर भाँग के रस से एक प्रहर मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। —यो. चि

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली दिन भर में 2 बार जल, मट्ठा, या सौंफ के अर्क से दें। 

गुण और उपयोग

यह रसायन अतिसार, संग्रहणी और ज्वरातिसार में विशेष उपयोगी है। छोटे-छोटे बच्चों को दाँत निकलने के समय जब पतले दस्त होने लगते हैं, उस अवस्था के लिये यह बहुत श्रेष्ठ दवा है यह अग्नि दीपक और वेदनाशामक है। उष्णवीर्य होने के कारण पित्त प्रधान रोगों में इसका उपयोग किसी सौम्य औषध के साथ करना चाहिए। संग्रहणी और अतिसार में यदि आम दोष न हो, तो इसका उपयोग करना अच्छा है। इस रस के द्वारा शरीरस्थित वेदना दूर होती है और पाचक पित्त पर्याप्त मात्रा में बनता है।
छोटे-छोटे बच्चों के दाँत निकलते समय पतले दस्त होने लगते हैं, परन्तु यदि इसमें बात विशेष प्रकुपित हो जाता है तो बच्चे की परेशानी बढ़ जाती है। इसमें पतले और अपचित दस्त होने लगते हैं, दस्त में दूध फटा हुआ तथा छीछलेदार निकलता है। 
दस्त पीला और पानी-सा होता है बच्चा दिन-प्रतिदिन दुर्बल होता जाता है स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। अधिक समय तक रोता ही रहता तथा एक जगह स्थिर न रहकर घूमने की विशेष इच्छा हो जाती है ऐसा बच्चा घूमने से बड़ा खुश रहता है बच्चा बार-बार मसूड़े को दबाता रहता है और उसे नींद बहुत कम आती है। 

आँखों की पलकें सूजी हुई रहती हैं तथा थोड़ा बुखार भी हो जाता है, ऐसी दशा में कनकसुन्दर रस मधु में मिलाकर देने से बहुत लाभ होता है, क्योंकि यह रसायन वातशामक है, अतएव यह वात का शमन कर देता है, फिर इसके उपद्रव धीरे- धीरे अपने आप शान्त हो जाते हैं।
आँव मिश्रित संग्रहणी और ग्रहणी में आम को पचाने के लिए प्रथम दो-एक रोज लंघन कराने के बाद ही इसका प्रयोग करना चाहिए। दस्त बार-बार और आँव मिश्रित थोड़ा रक्त के साथ गिरना, दस्त के समय पेट में विशेष कर आँतों में मरोड़ जैसी वेदना होना यह वेदना ज्यादे जोर से छींकने पर कम मालूम होना प्रवृति लक्षणों में कुछ वैद्य अफीमवाली दवा देकर उस वेदना का शमन करने की निरर्थक चेष्टा करते हैं। 

अफीम स्तम्भक होने की वजह से आंतों में स्थित सूक्ष्म (छोटी) मांस पेशियाँ संकुचित हो आँव और दूषित रक्त को रोक देती हैं, जिससे दस्त में तो कमी पड़ जाती किन्तु यह दूषित रुका हुआ आँव और मल अवसर पाकर बहुत उग्ररूप धारण कर विशेष कष्ट देता है अतः अफीमवाली दवा न देकर कनकसुन्दर रस देने से विशेष लाभ होता है, क्योंकि इसमें भाँग का रस तथा धतूरे के बीज पड़े हुए हैं। ये दोनों वातनाशक तथा पीड़ा नाशक हैं अतः ये दोनों कार्य साथ-साथ ही हो जाते हैं। 

वातातिसार में

दस्त बार-बार और थोड़े होते हों, दस्त में फेन भी आवे और आँव मिला हुआ दस्त हो, तो वातातिसार समझना चाहिए अतिसार में प्रधानतया आंतों की श्लैष्मिक कलाओं में से नाव होता है। ऐसी दशा में अफीम मिश्रित स्तम्भक औषधियाँ देने से आंव रुक जाता है, किन्तु कुछ दिनों के बाद फिर वह प्रकुपित होकर अतिसार उत्पन्न कर देता है। अतएव केवल दस्त बन्द करनेवाली दवा का प्रयोग न कर स्राव को भी जो रोक दे ऐसी दवा का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिये “कनकसुन्दर रस" बहुत उपयुक्त दवा है, क्योंकि इसमें धतूरे के बीज पड़े हुए हैं, जो स्राव को कम करने वाले हैं और भाँग बात को शमन करते हुए दस्तों को भी कम कर देती है। अतः इसका प्रयोग करना उत्तम है।
किसी गरिष्ठ (वायुकारक) पदार्थ के भोजन कर लेने से पेट फूल जाता हो तथा जलन के साथ डकारें आती हो और पतले दस्त भी लगते हों, कुछ-कुछ बुखार भी हो जाया करता हो, तो कनकसुन्दर रस देने से वायु का शमन हो जाता है और पाचक पित्त जागृत हो, सब आमजन्य विकार को पचा देता तथा दस्त भी कम हो जाते हैं।

अग्निमांद्य

पाचक पित्त की कमी के कारण मन्दाग्नि हो जाती है और खायी हुई चीजें अपचित रूप में ही आमाशय में पड़ी रह जाती हैं। आमाशय निर्बल एवं शिथिल हो अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। पाचक पित्त की निर्बलता के कारण आमाशय, पित्ताशय और अग्न्याशय कमजोर हो जाते हैं। परिणाम यह होता है कि अपचित (बिना पचे हुए) दस्त का होना प्रारम्भ हो जाता है। ये दस्त पतले और बार-बार थोड़े-थोड़े होते रहते हैं दस्त में बहुत बदबू आती है, ऐसी स्थिति में कनक सुन्दर रस के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है।  - औ. गु. ध. शा.


कर्पूर रस (कर्पूरादि बटी ) 

कपूर, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध अफीम, नागर मोथा, जायफल, इन्द्रजव शुद्ध सुहागा – प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम कपूर और अफीम को जल के साथ घोटें उनके अच्छी तरह मिल जाने पर अन्य वस्तुओं का सूक्ष्म कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिलाकर जल से मर्दन कर 1- 1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखा कर रख लें। --सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली, जल अथवा शहद या अनार के रस के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन कपूर और हिंगुल तथा अफीम के मिश्रण के कारण अतिसार में अच्छा लाभ करता है। पेचिश में दही के साथ देने से लाभ होता है, किन्तु इसके देने से पहले एरण्ड तैल से पेट का आँव निकाल दें।
आँव रहित दस्तों और खूनी दस्तों में इसका कार्य अच्छा होता है संग्रहणी में भी कपूर रस का मिश्रण हितकर होता है हैजा में भी इसके प्रयोग से लाभ होता है। कपूर और अफीम के मिश्रण होने की वजह से दस्त और वमन दोनों दूर हो जाते हैं। पित्तातिसार में यह विशेष लाभदायक है।

संग्रहणी रोग में भी इसका प्रयोग किया जाता है, किन्तु वातज और पित्तज संग्रहणी में यह विशेष फायदा करता है बात-जन्य संग्रहणी में वात प्रकुपित होकर जठराग्नि को मन्द कर देता है जिससे अपचन और खट्टी डकारें आना, मुंह और कण्ठ में जलन, कमजोरी, आँखों के सामने अन्धकार छा जाना, पेट में दर्द, सन्धि (जोड़ों) में दर्द, हृदय निर्बल पड़ जाना, अरुचि, मुँह का स्वाद फीका हो जाना, खाना बोड़ा-सा भी खाने के बाद पेट में दर्द, दस्त पतला और थोड़ा-थोड़ा बार-बार होना, टट्टी में देर तक बैठे रहना, दस्त की हाजत बराबर बनी रहे ऐसी हालत में कपूर रस के प्रयोग से विशेष और शीघ्र लाभ होता है, क्योंकि इसमें अफीम वेदना को दूर करती और जायफल आंतों में ग्राहक शक्ति उत्पन्न कर वस्त रोकने की क्षमता उत्पन्न करता है, फिर धीरे-धीरे रोग अच्छा हो जाता है। इसी तरह पैत्तिक संग्रहणी में भी इसका प्रयोग किया जाता है। - आ. गु. ध. शा.


कफकुठार रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सोंठ, पीपल, कालीमिर्च, लौह भस्म ताम्र भस्म सब बराबर लेकर, प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, फिर लौहभस्म और ताम्र भस्म को मिलायें तथा काष्ठौषधियों को कूट-कपड़छन चूर्ण कर कञ्जली के साथ मिला छोटी-छोटी कटेली के फलों के रस, कूटकी और धतूरे के पत्तों के स्वरस की भावना देकर घोंटकर 1-1 रती की गोलियाँ बनायें। र.रा.सु.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली पान के रस और मधु के साथ अथवा रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।
गुण और उपयोग
यह रस अत्यन्त तीक्ष्ण है। अतः पित्त से उत्पन्न होने वाले रोग में इसका प्रयोग किसी सौम्य औषध के साथ करना चाहिए।

कफ विकार में

छाती में कफ-संचय होकर खाँसी उत्पन्न हो गयी हो या खाँसी के साथ कफ कम निकलता हो, छाती पर कुछ बोझ सा मालूम पड़े, खाँसने पर छाती में दर्द हो, साँस लेने में कष्ट हो, ऐसी दशा में कफ को पिघला कर बाहर निकालने के लिये कफकुठार रस का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इनमें लौह और अप्रकभस्म होने से कफ पिघलकर निकलने लगता है। श्वासनली के साफ हो जाने के कारण श्वासोच्छ्वास लेने में भी कष्ट नहीं होता है।

इसी तरह जब कफ विशेष प्रकुपित होकर खाँसी उत्पन्न कर देता है, साथ में ज्वर और खाँसी के साथ कफ भी निकलता है और नवीन कफ भी बनता रहता है, जिससे ज्वर और खाँसी नहीं रुकती ऐसी बढ़ी हुई खाँसी को दबाने के लिये कुछ वैद्य अफीम का प्रयोग कर बैठते हैं, किन्तु इससे सिवाय नुकसान के लाभ कुछ भी नहीं होता, क्योंकि अफीम स्तम्भक है अतः कुछ देर के लिये खाँसी को बन्द तो कर देती है, किन्तु यह संचित और दूषित कफ पुनः प्रकुपित हो खाँसी और ज्वर को उत्पन्न कर देता है। ऐसी अवस्था में कफकुठार रस के प्रयोग से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि इसमें धतूरे के रस के अतिरिक्त कुटकी और कटेली के फलों के रस की भावना देने से यह बढ़े हुए कफ का स्त्राव करता है और श्वास कष्ट को "भी शमन करता है।

कफ ज्वर में

कफ प्रकोप के कारण मन्द मन्द ज्वर होना, नाड़ी की गति भी मन्द हो, शरीर गीला-सा बना रहना, भूख मन्द हो जाना, निद्रा ज्यादे आना, पसीना चलते रहना, मुँह भारी मालूम पड़ना, आवाज में भी भारीपन रहना, पेशाब स्वच्छ तथा साफ न होना, आलस्य बना रहना, खाँसी के वेग बढ़ने के साथ-साथ छाती में दर्द बढ़ते रहना, कफ निकलने पर वेदना कम होना – ऐसी स्थिति में कफकुठार रस उपयोग करने से अच्छा लाभ होता है। --अ. गु. ध. शा.


कफकेतु रस

शंख भस्म, पीपल, सुहागे की खील, शुद्ध वत्सनाभ - प्रत्येक 11 तोला लेकर एकत्र कर खरल करके, अदरक रस की तीन भावना देकर 1-1 रती की गोली बना सुखाकर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली चार-चार घण्टे के बाद अदरक रस और मधु के साथ दें। 

गुण और उपयोग

कफजन्य बुखार, खाँसी, श्वास और जुकाम में इस दवा से बहुत लाभ होता है। कफ के विकारों में सिरदर्द और कण्ठ में कफ जमा होने पर इसका सेवन करना बहुत उपकारी है।


कफचिन्तामणि रस

रससिन्दूर 3 तोला, शुद्ध हिंगुल, सुहागे की खील, इन्द्रजौ भाँग के बीज और काली मिर्च प्रत्येक 1-1 तोला लेकर अदरक के रस में एक प्रहर तक घोट, चने के बराबर (एक- एक रत्ती की ) गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। र. सा. सं.

मात्रा और अनुपान

1 गोली से 3 गोली तक, अदरक रस तथा मधु से या रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन के सेवन से वात और कफ के रोग नष्ट होते हैं। कफ की विशेषता होने पर अन्य औषधियों की अपेक्षा यह विशेष फायदा करता है, क्योंकि इसमें रससिन्दूर है अतः यह कफ को शमन करता है यह वाजीकरण तथा पौष्टिक रसायन भी है।


कल्पतरु रस

शुद्ध पारद 1 तोला, शुद्ध गन्धक 1 तोला, शुद्ध मीठा तेलिया 1 तोला, शुद्ध मैनशिल 1 तोला, विमल (रूपामक्खी) भस्म 1 तोला, सुहागा को खील 1 तोला, सोंठ, पीपल 2-2 तोला तथा कालीमिर्च 10 तोला लें प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बना फिर अन्य दवाओं को कूट कपड़छन चूर्ण कर कज्जली में मिला, आठ घण्टे तक घोटें जब सब दवा एक रस हो जाय तब शीशी में भरकर रख लें। -भा. प्र.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 रत्ती, अदरक रस और मधु के साथ अथवा रोगानुसार अनुपान से दें। 

गुण और उपयोग

यह रस खाने और सूंघने दोनों कामों में आता है। इस रसायन के सेवन से वात-कफ- ज्वर अर्थात् दूषित वायु और कफ से उत्पन्न बुखार, खाँसी, श्वास प्रतिश्याय (जुकाम) एवं बुखार में अंगों का जकड़ना तथा दर्द होना, मुख और नाक से लार और पानी टपकना, अग्निमांद्य, अरुचि आदि नष्ट हो जाते हैं। 
इसका नस्य देने से कफ और से उत्पन्न सिरदर्द दूर होता है तथा मूच्छ (बेहोशी), प्रलाप, छीक की रुकावट आदि में भी बहुत लाभ होता है। 
ज्वर पीड़ित रोगी की छाती में कफ भरा हो, श्वास प्रकोप, घबराहट आदि लक्षण हो तो इस रस का सेवन करने से उत्तम लाभ होता है।


कल्याणसुन्दर रस

रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, चाँदी भस्म, सोना भस्म ताम्र भस्म, शुद्ध सिंगर- ये सब चीजें समान भाग लेकर चित्रक के क्वाथ में चोटें फिर हस्तिशुण्डी के रस की सात भावना देकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। भै. र

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली प्रातः सायं गरम जल के साथ दें फुफ्फुस विकारों में मधु और अदरक रस के साथ, धातु क्षीणता में धारोष्ण दूध के साथ तथा हृदय और मस्तिष्क के रोगों में सेब या आँवले के मुरच्चे के साथ देना चाहिए।

गुण और उपयोग

स्वर्ण, अभ्रक आदि उत्कृष्ट उत्पादनों के कारण यह उत्तम रसायन है फेफड़े के विकारों पर इस रसायन का बहुत अच्छा प्रभाव होता है। न्यूमोनिया और उरस्तोय (फुफ्फुसावरण में प्रदाह होकर जल भर जाना) में संचित कफ और जल का शोषण करके यह सब उपद्रवों को नष्ट करता है। यह हृदय और मस्तिष्क को बल देता है तथा इसके विकार, शूल, भ्रम, मूर्च्छा, संन्यास आदि को दूर करता है, सूखी खाँसी, श्वास, अरुचि, मन्दाग्नि तथा मूत्रपिण्ड के विकार भी इससे नष्ट हो जाते हैं। 
प्रमेह, नपुंसकता और बलवृद्धि के लिये भी यह अच्छी दवा है। 
राजयक्ष्मा में बढ़े हुए कफ से स्रोतों के अवरुद्ध हो जाने पर इस रसायन के सेवन करने से कफ का शोषण कर स्रोतों को साफ कर, फुफ्फुसों को बल प्रदान कर रोग को निर्मूल कर देता है।


कस्तूरीभैरव रस

शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बच्छनाग, सुहागे की खील, जायफल, जावित्री, काली मिर्च, छोटी पीपल, कस्तूरी और कपूर इन सबको सम भाग लें। पहले पान के रस में शुद्ध हिंगुल और बच्छनाग का मर्दन करें। बाद में अन्य दवाओं का कपड़छन किया हुआ चूर्ण मिला पान के रस में मर्दन करें गोली बनाने योग्य हो जाने पर कस्तूरी और कपूर मिला घोंट कर 1-1 रती की गोली बना, छाया में सुखाकर रख लें। सि. यो. सं. तथा रसामृत

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली पान के रस, अदरक के रस और मधु में मिलाकर दें।

गुण और उपयोग

इसका उपयोग वात ज्वर, कफज्वर और वात-कफ प्रधान ज्वर तथा सन्निपात ज्वर में करें। सन्निपात ज्वर में जब पसीना अधिक आकर शरीर ठण्डा होने लगे, हाथ-पाँव ठण्डे हों और नाड़ी क्षीण होने लगे, तब इससे विशेष लाभ होता है। 
इस योग में यदि बच्छनाग के स्थान में शुद्ध कुचला और अम्बर एक-एक भाग डालकर योग तैयार करें, तो यह नाड़ी एवं हृदय की दुर्बलता और वात रोगों में विशेष लाभ देता है और वाजीकर गुणयुक्त होता है।

वात- श्लैष्मिक या पित्त श्लेष्मिक ज्वर की प्रथमावस्था में खाँसी, सर्वाङ्ग में वेदना और ज्वर के तीव्र होने पर इसका सेवन कराया जाता है। सन्निपात ज्वर की प्रथमावस्था में जब उपद्रव कम हो, रोग दुःसाध्य न हो गया हो, तन्द्रा, सन्धियों में वेदना, पसलियों में दर्द, खाँसी आदि लक्षण हो, तो विशेष उपकार होता है। 

यह मस्तिष्क की ओर रक्त संचार को अधिक नहीं होने देता है, प्रसूत ज्वर में भी यह अच्छा काम करता है। यह रसायन होने के कारण कमजोरी को दूर कर शरीर में बल और वीर्य की वृद्धि करता है पैतिक विकार में प्रवाल चन्द्रपुटी मुक्ताशुक्ति पिष्टी आदि किसी सौम्य औषध के साथ देना चाहिए। 

मौक्तिक ज्वर (Typhoid Fever) में प्रारम्भ से अन्त तक सभी अवस्थाओं में इसे सेवन कराते रहने से रोग निरुपद्रव रूप से अपनी अवधि के अनुसार ठीक हो जाता है।


कस्तूरीभैरव रस (बृहत् )

कस्तूरी, कपूर, ताम्र भस्म, धाय के फूल, केवॉच के बीज, रौप्य भस्म, सुवर्ण भस्म, मोतीपिष्टी या भस्म, प्रवाल भस्म, लौह भस्म, पाठा, वायविडंग, नागरमोथा, सौंठ, खस, शुद्ध हरताल या माणिक्य रस, अभ्रक भस्म और आंवला से सब द्रव्य समभाग लें। पहले वनस्पतियों का सूक्ष्म (कपड़छन) चूर्ण कर भस्में मिला, आक के पत्तों के रस से दो दिन मर्दन करें। पीछे उसमें कस्तूरी और कपूर डालकर एक दिन आक के पत्तों के रस से मर्दन कर 11 रत्ती की गोलियाँ बना कर छाया में सुखा लें। भै. र., सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1 गोली, अदरक रस या पान के रस और मधु के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रस सोना, मोती, प्रवाल कस्तूरी आदि गुणकारी बहुमूल्य औषधियों के योग से बनता है। अतः यह स्वल्प कस्तूरी भैरव रस से विशेष गुणकारी है। 
इस रस का सब प्रकार के सन्निपात ज्वरों में अधिक पसीना, शीतांग (शरीर ठण्डा हो जाना), प्रलाप (अक-बक बकना).. तन्द्रा, नाड़ी की क्षीणता आदि लक्षणों में दोषों का बलाबल देखकर अदरक का रस, पान का रस और मधु इनमें से किसी एक के साथ दें सूतिका ज्वर में देवदार्वादि क्वाथ के साथ दें। विषम ज्वर में अदरक रस और मधु के साथ देना चाहिए।

नवीन वात पैत्तिक, वात श्लैष्मिक या पित्त-कफ ज्वर यदि क्रमशः प्रबल होकर 104 या 105 डिग्री तक पहुँच जाय और उसमें तन्द्रा, कास, प्यास और अतिसार आदि लक्षण दिखाई दें, ज्वर का विराम न होकर ज्वर कष्टसाध्यावस्था में पहुंच रहा हो तो इसका प्रयोग करना चाहिए। 

तिजारी, चौबिया प्रभृति मलेरिया ज्वर जब दीर्घ काल होकर पूरा शान्त होने के बाद या पूरा शान्त हुआ हो और उसमें अतिसार, खाँसी आदि उपद्रव और तापांश अचानक बढ़ जाँय तो रसायन का सेवन करना चाहिए।

शीतांग, सन्निपात आदि ज्वरों में भी असह्य दाह, पसीना, खाँसी, तन्द्रा, पार्श्वशूल, नाही क्षीण होना, नाड़ी अपना स्थान छोड़ दे, ज्ञानहीनता, कम्प, देह शीतल हो जाना, प्रभृति कष्टसाध्य लक्षण होने पर और कभी ज्वर का तापमान 104 से 105 तक हो अथवा एकदम तापमान में गिरावट (95-96 तक आ जाय ) हो जाय अथवा निमोनियाँ वा प्लूरिसी के सम्पूर्ण लक्षण विद्यमान हो तो इस रसायन का प्रयोग दिन-रात में तीन-चार बार करें। परन्तु यदि रक्त का संचार मस्तिष्क की ओर अधिक हो रहा हो और उसी के कारण तापांश अत्यन्त बड़ा हुआ हो, मूर्च्छा हो तथा श्वास भी प्रबल हो तो इसका प्रयोग न करें।

द्विदोषज या मलेरिया और सन्निपात ज्वरों की विरामावस्था में जब लक्षण या उपद्रव कम हो रहे हो और ज्वर प्रतिदिन नियत समय पर बढ़ जाता हो अथवा किसी भी समय पूरा न हटता हो, भूख न लगती हो तो दिन में सिर्फ 1 बार इसका प्रयोग करें।
इसी प्रकार सतत् आदि धातुस्थ विषम ज्वरों में भी अथवा जब प्लीहा वृद्धि के कारण होने वाला ज्वर स्वभावतः ही या किसी अपथ्य के कारण नवज्वर की तरह बढ़ जाय या दीर्घकालिक हो जाय और कभी ज्वर उतरता न हो तो सर्वज्वर हर लौह वृहत् के साथ इस रसायन का सेवन करावें सूतिकारोग की तरुणावस्था में भी पूर्ववत् ज्वराधिक्य तथा कास आदि उपद्रव होने पर अल्प मात्रा में इसका सेवन कराया जा सकता है।

विसूचिका में भी जब रोगी को श्वेत रंग का चमन और दस्त हो रहे हों, मूत्रावरोध हो, मुख का वर्ण नीला और आँखें अन्दर को धस गई हों, नाही क्षीण हो गई हो, तो इस रसायन के सेवन कराने से लाभ होता है। 

मौक्तिक ज्वर (Typhoid Fever) में प्रारम्भ से ही इसे लींग के पानी के साथ सेवन कराते रहने से रोग निरुपद्रव रूप से रहते हुए अपनी अवधि पर ठीक हो जाता है। इस रोग की यह सुप्रसिद्ध दवा है।


कस्तूरीभूषण रस

रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, सुहागे की खील, कस्तूरी, सोंठ, पीपल, कालीमिर्च, दन्ती की जड़, भाँग के बीज, कपूर प्रत्येक समभाग लेवें प्रथम काष्ठौषधियों को कूट, कपड़छन चूर्ण बना लें, फिर भस्मों में मिलाकर अदरक रस की सात भावनाएँ दें। बाद में अदरक के रस में कस्तूरी और कपूर को खूब घोंटकर दवा में मिला कुछ देर तक घोंटकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। भैर. (विनोद लाल सेन )

वक्तव्य

कालीमिर्च को विशेष विधि से धोकर उन्हें सफेद वर्ण की बना ली जाती है— ये सफेद मिर्च के नाम से किराना विक्रेताओं के यहाँ मिलती है। कालीमिर्च के स्थान पर इनको डालकर बनाने से यह योग रंग-रूप तथा गुणों में भी अच्चा बनता है।

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम अदरक रस और मधु के साथ दें।

गुण और उपयोग

कफवातजन्य योग, मन्दाग्नि, पित्तकफाधिक्य योग, त्रिदोषज घोर कास, श्वास, क्षय, उर्ध्वजत्रुगत रोग, विषमज्वर प्रमृति रोगों का नाशक है।
श्लैष्मिक या वातश्लैष्मिक ज्वर (Influenza) की प्रथमावस्था में तन्द्रा, कास, पार्श्वशूल आदि लक्षण हो, ज्वरताप अधिक हो तो इसका सेवन करना चाहिए। 

इसी प्रकार श्लेष्मप्रधान या गतश्लेष्मप्रधान सत्रिपात ज्यरों की प्रथमावस्था में कास, तन्द्रा, सिर दर्द, सर्वाङ्गशूल और पार्श्वशूल आदि लक्षण हो, ज्वर 1-3 डिग्री से ऊपर हो तो इसका सेवन करना चाहिए। 

त्रिदोष (सन्निपात ज्वर) में जिस समय हाथ-पैर ठण्डे हो रहे हो या नाड़ी की गति क्षीण होती जा रही हो, उस समय कस्तूरीभूषण रस देने से नाड़ी की गति ठीक हो जाती है और हाथ-पैर भी गरम होने लगते हैं। 

सन्निपात ज्वर में अवस्थानुसार दूसरी औषधियों का तो प्रयोग करते ही रहना चाहिए, किन्तु साथ ही साथ कस्तूरीभूषण रस का प्रयोग करते रहने से सन्निपात ज्वर में नये उपद्रव नहीं बढ़ पाते हैं। 

शोययुक्त विषम ज्वर में और कास श्वास में भी इसके सेवन से लाभ होता है। 

सन्तत ज्वर अर्थात् मोतीझरा (Typhoid Fever) में लॉंग के पानी के साथ सुबह-शाम सेवन कराने से दोषों का पाचन होकर ज्वर ठीक हो जाता है। पुनराक्रमण की संभावना भी नहीं रहती है।


क्रव्याद रस

शुद्ध पारा 4 तोला, शुद्ध गन्धक 8 तोला, ताम्र भस्म 2 तोला, लौह भस्म 2 तोला, शुद्ध टंकण 16 तोला, विड (काला) नमक 8 तोला, काली मिर्च 40 तोला पहले पारा और गन्धक की कज्जली बना, फिर लौह और ताम्र भस्म डालकर खूब महीन घोंटना चाहिए। इसके बाद पर्पटी की तरह गलाकर एरण्ड के पत्तों पर पपेटी बना और इस पर्पटी का चूर्ण बना एक लोहे के पात्र में डालकर उसमें 4 सेर जम्बीरी नींबू का रस और डाल दें। यदि पात्र कलई किया हुआ या स्टेनलेस स्टील का बना हो तो और अच्छा फिर इसको मन्द मन्द आंच से जलायें। जब गाढ़ा हो जाय तब इसमें पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक और सोंठ के क्वाय से पचास भावना दें, फिर अम्लवेत के क्वाथ से भी पचास भावना देकर सुखा कर रख लें। सूखने पर भूना सुहागा (शुद्ध टंकण ), विनमक और काली मिर्च कूट कपड़छन चूर्ण बना इसमें मिला दें। बाद में चणकाम्ल (चना के क्षार का पानी) की सात भावना देकर सुखा लें, शीशी में भरकर सुरक्षित रख लें, अथवा 2-2 रती की गोली बनाकर रख लें। -- भै. र

मात्रा और अनुपान

2 से 4 गोली तक सेन्धा नमक मिला हुआ मट्ठा (छाछ) या नींबू का रस अथवा साधारण जल से भोजनोत्तर देना चाहिए। 

गुण और उपयोग

अजीर्ण अपच रोगो में

अत्यन्त गरिष्ठ भोजन (देर से पचनेवाले) गेहूँ आदि घृत से बने भोज्य पदार्थ अति मात्रा में खाये हों तो इसकी एक गोली नमक मिली हुई छाछ (मट्ठा) के साथ सेवन करने से खाया हुआ गरिष्ठ भोजन शीघ्र ही पच जाता है तथा अग्नि पुनः प्रदीप्त हो जाती और भूख भी लगती है।

यह रस संचित आँव को नष्ट करता तथा अनुपयुक्त उदर की वृद्धि (निकली हुई तोंद ) और शरीर की स्थूलता को नष्ट करता है। इसके अतिरिक्त यह अर्श, शूल, गुल्म रोग, प्लीहा, ग्रहणी, रक्तस्राव वातिक-ग्रन्थि आदि रोगों का नाशक है।

यह रस पाचक और अग्नि प्रदीपक है अर्थात् दीपन और पाचन के लिए यह बहुत प्रसिद्ध यह रस गरिष्ठ-से-गरिष्ठ भोजन को अधिक मात्रा में खा लेने पर भी 6 घण्टे में पचा देता है। इस रस के सेवन करने वाले को दूध, फल वगैरह अधिक मात्रा में सेवन करना चाहिए। यह रस अग्निमांद्य के साथ-साथ और भी अनेक रोगों को दूर करता है उदर रोग, जिगर और फेफड़े के रोगों में इससे बहुत लाभ होता है।

आम और कफ को पचाकर पाचक पित्त को यह सबल बना देता है अजीर्ण, हैजा, गुल्म, अफरा और अरुचि में यह बहुत जल्दी लाभ करता है भूख की शिकायत (कमी) रहने वालों के लिए हितकर दवा है जलोदर में भी अन्य दवाओं के साथ इसका मिश्रण लाभदायक होता है।

पाचक पित्त की कमजोरी से जठराग्नि मन्द हो जाती है, जिससे खायी हुई चीजें अच्छी तरह नहीं पचती हैं। क्रमशः आम-रस का संचय होने लगता है। आम का संचय विशेष रूप में होने से आमाजीर्ण, रसशेषाजीर्ण आदि विकारों की उत्पत्ति होती है। 

इसके अतिरिक्त पेट में दर्द दस्त में कब्जियत, पतला दस्त होना आदि उपद्रव भी होने लगते हैं ऐसी अवस्था में क्रव्याद रस को छाछ के साथ देने से दूषित आमरस पच कर बाहर निकल जाता है तथा इससे पाचक पित्त भी बलवान हो जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।

अजीर्ण रोग पुराना हो जाने पर कोष्ठ में मल संचय होने लगता है इस मल संचय से दूषित विष की उत्पत्ति होती है और यह विष आंतों में अधिक दिनों तक रह कर समस्त शरीर को दूषित बना देता है, जिससे हैजा, अलसक, विलम्बिका आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे समय में क्रव्याद रस का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि यह संचित मल को ढीला करके निकाल देता और पित्त को जागृत करके पाचनक्रिया को सुधार कर इससे होनेवाले उपद्रव को भी रोक देता है।

विषम ज्वर

मलेरिया बुखार अधिक दिन तक आने के बाद ज्वर छूटने पर भी प्लीहा बढ़ जाता है। साथ ही अग्नि भी मन्द हो जाती है, ज्वर भीतर ही भीतर बना रहता है, शरीर में आलस्य, भारीपन, कोई भी कार्य करने की इच्छा नहीं होना, शिर में दर्द बना रहना, रक्ताणुओं की कमी के कारण देह पाण्डुवर्ण का हो जाना, शरीर दुर्बल, अरुचि होना आदि लक्षण हैं। प्लीहा सख्त (कठोर) और बढ़ी हुई मोटी-सी मालूम पड़ती है ऐसी अवस्था में क्रव्याद रस कुमासव या लोहासव के साथ देने से अच्छा लाभ होता है।

कफ प्रधान रोगों में 

कफ प्रधान बवासीर रोग में मस्से मोटे एवं श्वेतवर्ण के होते हैं। उनमें पीड़ा अधिक होती हो, चिपचिपे (लसदार) झागदार दस्त होते हों, एक बार शौच जाने पर पेट में भारीपन एवं गुड़गुड़ाहट और पुनः शौच जाने की शंका बनी रहती हो आदि लक्षणों में इस रस को शुण्ठी चूर्ण और सैन्धव नमक मिला मट्ठा के साथ सेवन कराने से बहुत लाभ होता है।

कफाधिक्य के कारण जठराग्नि मन्द होने से ग्रहणी संग्रहणी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। यह कफजन्य होने के कारण इसके लक्षण भी कफज ग्रहणी की तरह ही होते हैं। ऐसी अवस्था में दीपन और पाचन औषधि देने की आवश्यकता होती है। इस कार्य के लिए क्रव्याद रस गर्म जल के साथ देना अच्छा है।

श्वास रोग

मन्दाग्नि हो जाने की वजह से अजीर्ण हो जाता है, जिससे वायु की वृद्धि हो समूचे पेट में वायु भर जाता है और इस वायु का निस्सरण नीचे से न होकर ऊर्ध्वगामी हो जाता है। जिससे बार-बार डकारें आने लगती हैं। वायु की वृद्धि के कारण श्वास की गति में भी तेजी आ जाती है, जिससे श्वास ज्यादे चलने लगती और हृदय निर्बल हो जाता है। फुफ्फुस के आस-पास बलगम (कफ) भर जाने के कारण फुफ्फुस भी बिगड़ जाता है। ऐसी अवस्था में क्रव्याद रस के प्रयोग से बहुत शीघ्र लाभ होता है। - औ. गु. ध. शा.


कृमिकुठार रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वायविडंग, शुद्ध हींग, इद्रजौ वच कमीला (कम्पिल्लक), करंज बीज को सेंककर निकाला हुआ मग्ज, पलाश के बीज, अनार के मूल की छाल, सुपारी, डीकामाली, छिला हुआ लहसुन, सोंचर नमक, अजवायन का सत्व – ये सब समान भाग लें, कूट-कपड़छन चूर्ण बनाकर खरल में डालकर ग्वारपाठा रस की तीन भावना देकर घुटाई करें, गोली बनाने योग्य होने पर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। 

मात्रा और अनुपान

2 से 4 गोली तक सुबह-शाम खाकर ऊपर से नागरमोथा का क्वाथ पीयें। 

गुण और उपयोग

यह रस पेट के कीड़ों को नष्ट करने में बहुत उत्तम गुणकारी है मधुर पदार्थों का अधिक सेवन करने से बच्चों तथा बड़ों के भी पेट में कीड़े (केंचुवे) पड़ जाते हैं। ये कीड़े लम्बे, चपटे, गोल, आकड़ेदार पतले, सफेद सूत्राकार इत्यादि कई प्रकार के होते हैं। आयुर्वेद में कृमियों की 20 जातियाँ बताई गई हैं। ये कीड़े पेट में उत्पन्न हो जाने पर अन्वस्य रसों का चूषण करते रहते हैं और आंतों में चिपके रहते हैं, इनके कारण ग्लानि, भ्रम, मुख से लार गिरना, पेट तथा गुदा में कैची से काटने जैसी पीड़ा, कब्ज, आनाह, मल शुष्क होना, अनिद्रा, पाण्डु, शोध आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इस रस के 21 दिन या आवश्यकतानुसार अधिक समय तक प्रयोग करने से कृमि रोग समूल नष्ट होकर उसके कारण उत्पन्न विकार भी शमन हो जाते हैं। इसके प्रयोग काल में प्रति तीसरे या चौथे दिन रात को सोते समय 'पंचसकार चूर्ण' 6 माशा गरम जल से सेवन करना चाहिए ताकि कोष्ठ शुद्धि होकर मरे हुए कृमि बाहर निकल जायें।
नोट
बच्चों को धतूरे के पत्ते का रस 2-4 बूंद शहद से और बड़ों को 5-10 बूंद रस और 1 तोला शहद के साथ देना चाहिए।

गुण और उपयोग

यह दवा कृमिरोग (पेट में कीड़े पड़ जाने) में बहुत गुणकारी है। बच्चों को विशेष कर यह रोग होता है उस समय इस दवा का प्रयोग करना चाहिए। पेट में कीड़े पड़ जाने के कारण पेट दर्द, सिर दर्द, पाण्डु रोग आदि उपद्रव हो जाते हैं। उनको भी यह शान्त करता है।

पेट में कृमि हों और दस्त भी साफ होता हो, तो ऐसी अवस्था में कृमिकुठार रस के सिर्फ 7 रोज के सेवन से कीड़े मर कर पेट से बाहर निकल जाते हैं। 

यदि दस्त साफ न होता हो, तो विडंगादि चूर्ण या कबीले का चूर्ण या एरण्ड तैल (कैस्टर आयल) इसमें से किसी एक का प्रयोग करा पहले जुलाब दें। बाद में कृमिकुठार रस देने से शीघ्र फायदा होता है, क्योंकि जुलाब देने से कीड़े कमजोर पड़ जाते हैं और मर भी जाते हैं, जिससे बड़ी सुविधा से बाहर निकल आते हैं। 

यदि पेट में कृमि अधिक हो गए हों, तो तुरन्त निकालने की कोशिश करें। ऐसी हालत में रात के समय कृमिकुठार 1 गोली सेण्टोनीन में मिला कर देना और सुबह कैस्टर आयल ( शु. अण्डी के तेल) 10 बूंद पाव भर दूध में मिला कर पिला देना चाहिए। इस उपाय से कृमि -विकार नष्ट हो जायेंगे। बाद में कुछ रोज तक कुमार्यासव भोजन के बाद देते रहने से फिर कृमि रोग सर्वदा के लिए नष्ट होता है।


कृमिमुद्गर रस

शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गंधक 2 तोला, अजमोद 3 तोला, वायविडंग 4 तोला, शुद्ध कुचला 5 तोला ढाक (पलास) के बीज 6 तोला लेकर सब को यथाविधि चूर्ण कर एकत्र मिला मर्दन करके रख लें। रा. सु.

मात्रा और अनुपान

2 से 4 रत्ती शहद के साथ दें, ऊपर से नागरमोथा का क्वाथ पिलावें। इसे 3 दिन तक सेवन करने के बाद चौथे दिन जुलाब लेना चाहिए।

गुण और उपयोग

कृमिमुद्गर रस कृमिकुठार रस से तीक्ष्ण और उग्रवीर्य है यह कफ-संचय से होने वाले कृमियों को शीघ्र नष्ट करता है कृमि रोग के कारण उत्पन्न होनेवाले अरुचि, अफरा, वमन, पेट दर्द आदि लक्षण उत्पन्न होने पर कृमिमुद्गर रस का सेवन करने से बहुत फायदा होता है, क्योंकि कफ से जो कृमि उत्पन्न होते हैं, वे प्रायः आमाशय में ही उत्पन्न होते और वहीं रहते भी हैं। कृमिमुद्गर रस अपनी तीक्ष्णता के कारण कफ को नष्ट कर पित्त को उत्तेजित करता है। जिससे आमाशय के विकार नष्ट हो जाते हैं।

आमाशय में जब कृमि उत्पन्न होते हैं, तो आमाशय के चारों तरफ से चक्कर लगाया करते हैं। ये कृमि लाल, नीले, काले, सफेद आदि अनेक रूप के होते हैं। जब इनकी संख्या बढ़ जाती है, तो पेट में दर्द, अन्न में अरुचि, भूख नहीं लगना, वमन होना, हिचकी आना आदि लक्षण दोष वृद्धि होकर प्रकट होते हैं। 

ऐसे समय में शारीरिक धातुओं की वृद्धि भी नहीं होती, जिससे मनुष्य दुर्बल और कमजोर हो जाता है। फिर अनेक तरह के उपद्रव खाँसी, जुकाम आदि उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में कृमिमुद्गर रस के उपयोग करने से बहुत शीघ्र लाभ होता है।
कोष्ठ (पक्वाशय) में कृमि उत्पन्न होने से दोष वृद्धि होकर ज्वर, जी मिचलाना, देह में खुजली, कहीं देह में खुजलाने से लाल चट्टे पड़ जाना इत्यादि लक्षण उत्पन्न होते हैं। ऐसी अवस्था में कृमिमुद्गर रस के सेवन से अच्छा लाभ होता है।

यह दवा उत्तेजक होने के कारण कभी-कभी नाजुक प्रकृति अथवा उष्ण प्रकृतिवाले रोगी को नुकसान भी कर जाती है। इसका कारण प्रथम तो यह होता है कि जब तक किसी भी दवा को जीवनीय शक्ति की सहायता नहीं मिलती है, गुण नहीं कर सकती। जीवनीय शक्ति की सहायता के लिए कोष्ठ को मजबूत बनाना या उसका शोधन करना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि कोष्ठ के अवयवों की निर्बलता के कारण जीवनीय शक्ति का भी ह्रास हो जाता है। अतएव कृमिघ्न दवा देने के बाद जुलाब देना लिखा है, जिससे कृमिघ्न दवा जुलाब के साथ बाहर निकल जाय और कीड़े भी साथ-साथ नष्ट हो जायें।

वक्तव्य

मूल अन्य पाठ में इसकी मात्रा निष्क परिमाण लिखी है, किन्तु इसमें कुचला का सम्मिश्रण होने से इतनी मात्रा बहुत अधिक है एवं विष का प्रभाव भी हो सकता है। अतः 2 से 4 रत्ती की मात्रा उचित है।


कामदुधा रस (मौक्तिक युक्त)

मोती पिष्टी, प्रवाल पिष्टी, मुक्ताशुक्तिपिष्टी कौड़ी भस्म, शंख भस्म, सोना, गेरु और गिलोय का सत्त्व समान भाग लेकर सब को एकत्र खरल करें जब एक जीव (अच्छी पुटायी) हो जाय तब शीशी में सुरक्षित रख लें। र.यो. सा.

मात्रा और अनुपान

2 रत्ती जीरे का चूर्ण और मिश्री मिलाकर ज्वरादि में और आंवले के चूर्ण के साथ घृत मिलाकर अम्लपित्त में दें। दाडिमावलेह अथवा मौसम्बी रस के साथ देने से भी बहुत लाभ करता है।

गुण और उपयोग

यह रसायन सौम्य होने से चंचल चित्त, चिन्ता-फिक्र करने वाले, गर्भवती स्त्रियों और बच्चों के लिये अच्छा उपयोगी है सौम्य होने के कारण इस दवा में कभी गर्मी बढ़ने की सम्भावना नहीं रहती। 
यह पित्त विकार, अम्लपित्त, चक्कर आना, मस्तक शूल, दिमाग की कमजोरी, मूत्रविकार, मुँह आना, बवासीर में खून गिरना, दाह और जीर्णज्वर, मूर्च्छा, अम पागलपन, अपस्मार, उन्माद, ऊर्धन वायु, काली खाँसी, क्षय, दमा, उरःक्षत आदि में उपयोगी है। 

सभी प्रकार के पित्त विकारों में इसके सेवन से बहुत उत्तम लाभ होता देखा जाता है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के चिकित्सक इसका बहुत प्रयोग करते हैं।
यह रसायन शीतवीर्य प्रधान है। अतएव इसका असर रक्तवाहिनी और वातवाहिनी नाड़ी तथा वृक्क (मूत्राशय) पर विशेष होता है अर्थात् पित्त की वृद्धि से रक्त में गर्मी आकर रक्त की गति में वृद्धि हो जाती है, जिससे रक्त का संचार बहुत तेजी से होने लगता है। इसी तरह वात की वृद्धि होकर शरीर में अनेक तरह के उपद्रव उत्पन्न जाते हैं। 

मूत्राशय में भी पित्त की तेजी के कारण मूत्रकृच्छ्रादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में इन अवयवों में बहुत जलन होती है। इस जलन तथा उपद्रव को दूर करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है।" इसके अतिरिक्त मस्तिष्क विकार, आमाशय की निर्बलता तथा सामान्य रक्तस्त्राव जैसे- गर्मी की वजह से नाक फूलना, मुँह से रक्त आना आदि रक्तपित्तजन्य दोषों की शान्ति के लिए भी इसका प्रयोग करना चाहिए।

किसी भी रोग से मुक्त होने के बाद शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाने से कमजोरी आ जाती है। इस रसायन के सेवन से यह कमजोरी दूर हो जाती है और शरीर पुष्ट हो जाता है। 

अधिक दिन ज्वर रहने से प्लीहा और यकृत् इनमें से एक या कभी-कभी दोनों बढ़ जाते हैं जिससे शरीर में रक्त की कमी, ज्वर, मन्दारिन, देह में आलस्य बना रहना, शरीर पाण्डु वर्ण का हो जाना आदि उपद्रव होने पर कामदुधा रस का प्रयोग करने से बहुत फायदा होता है, क्योंकि इसमें शंख और कौड़ी की भस्म पड़ी हुई है और ये दोनों भस्में अपनी तीक्ष्णता के कारण प्लीहा और यकृत् की वृद्धि को रोक देती तथा मन्दाग्नि दूरे कर जठराग्नि को भी प्रदीप्त कर पाचन क्रिया को सुधारती हैं, जिससे रस रक्तादि धातु उचित परिमाण में बनने लगते हैं और शरीर भी नीरोग एवं पुष्ट हो जाता है।

आजकल मलेरिया रोकने के लिए कुनैन ही शर्तिया दवा मानी जाती है अतएव कुनैन का प्रयोग भी आँख मूँद कर किया जाता है। परन्तु इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि यदि कुनैन का सेवन विशेष किया जायेगा तो इससे लाभ होने के बजाय अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे—कान से कम सुनाई पड़ना, दृष्टि में अन्तर पड़ जाना मन्दाग्नि, कमजोरी, भ्रम, मूर्च्छा आदि। इस रोगों को दूर करने के लिए कामदुधा रस का प्रयोग करना अच्छा होता है।

रक्तपित्त में

पित्त प्रकुपित हो जाने से रक्त भी विकृत हो जाता है। फिर रक्तवाहिनियाँ कमजोर होकर जगह-जगह से फूटने लगती और उनमें से रक्त निकलना शुरू हो जाता है इसमें सम्पूर्ण शरीर में दाह, पित्त की तेजी के कारण चक्कर आना, चक्कर के बाद आँखों के सामने अँधेरा छा जाना, हृदय निर्बल हो जाना, पेशाब जलन के साथ होना, खून बहुत गर्म निकलना, ऐसी दशा में कामदुधा रस दूर्वा स्वरस अथवा शर्बत अनार के साथ देने से बहुत शीघ्र लाभ करता है। आँवला मुरब्बा के साथ भी अच्छा लाभ करता है।

पित्त प्रधान सिर दर्द में

रोगी बहुत तेज स्वभाव वाला हो जाता है। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाना, आँखें लाल हो जाना, शिर में दाह होना, ज्यादे जोर से हँसना, बोलना एवं किसी की बात अच्छी न लगना, विचार-शक्ति का ह्रास हो जाना ऐसी अवस्था में कामदुधा रस से बहुत लाभ होता है। क्योंकि यह पित्त की वृद्धि को शान्त कर साम्यावस्था में ला देता है, फिर इसके उपद्रव भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।

धूप में अधिक चलने, आग के पास अधिक बैठने, ज्यादा मानसिक श्रम करने आदि कारणों से नेत्र कमजोर हो जाते हैं साथ ही शिर में दर्द भी होने लगता है विचार शक्ति का ह्रास हो जाता और याददाश्त में भी कमी हो जाती है ऐसी अवस्था में कामदुधा रस मक्खन या धारोष्ण दूध के साथ सेवन करने से अच्छा असर दिखलाता है।

अम्लपित्त में

जब आमाशयस्व पित्त प्रकुपित हो जाता है, तो जलन के साथ खट्टी डकारें आने लगती हैं और पित्त विदग्ध हो जाने से (जल जाने से) कडुवा वमन होने लगता है। ऐसी अवस्था में कामदुधा रस को सूतशेखर रस के साथ आँवले का स्वरस और घी मिलाकर देने से बड़े हुए  पित्त का शमन हो, पित्त अपनी प्राकृतिक अवस्था में आ जाता है फिर सब कार्य अच्छी तरह से होने लग जाते हैं। इसमें गेरू पड़ा हुआ है, जो पित्तशामक और स्तम्भक है। अतएव यह बड़े हुए पित्त का स्राव कम कर उसे सौम्य बना देता है।

अतिसार में

पित्तातिसार और रक्तातिसार में लघु अन्य (छोटी औत) और बड़ी आंत की आभ्यन्तरिक त्वचा में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। इससे उदर में जलन, जल पीने की बार-बार इच्छा होना.. जलन के साथ दस्त होना आदि लक्षण उपस्थित होते हैं ऐसी अवस्था में कामदुधा रस के प्रयोग से उत्तम कार्य होता है।

उन्माद रोग में 

पित्त की विकृति के कारण पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, जिससे अन्नादिक का पाचन ठीक-ठीक न होने से पेट में विषाक्त गैस उत्पन्न हो जाती है और पित्तगुण प्रधान होने से इस (गैस) का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है, जिससे उन्माद जैसा विकार उत्पन्न हो जाता है। 
ऐसी अवस्था में मन चंचल हो जाता है असन्तोष, हृदय निर्बल हो जाना, जिससे बार-बार चक्कर आना, चक्कर आकर बेहोश हो जाना आदि लक्षण उपस्थित होने पर कामदुधा रस 2 रत्ती को 2 माशा ब्राह्मी चूर्ण या शंखपुष्पी चूर्ण में मिलाकर मिश्री के साथ देना चाहिए और शिर में श्रीगोपाल तैल, महाचन्दनादि तेल, हिमसागर तैल आदि की मालिश करानी चाहिए। - औ. गु. ध. शा.


कामदुधा रस (साधारण)

गिलोय सत्व 4 तोला, स्वर्णगरिक 1 तोला, अभ्रक भस्म 1 तोला लेकर तीनों द्रव्यों को एकक मिला दृढ मर्दन कर सुरक्षित रख लें। -- र. यो सा

मात्रा और अनुपान

3 से 6 रती तक दोषबलानुसार, प्रदर में गोदुग्ध के साथ या चावल के धोवन के साथ दें। पित्त प्रकोप में गो-मृत और शक्कर मिश्रित गोदुग्ध के साथ दें। प्रमेह में पीपल चूर्ण और मधु से दें। रक्तपित्त में दूर्वा स्वरस और मिश्री के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का दोषानुसार अनुपान के साथ प्रयोग करने से पित्त एवं उष्णताजन्य समस्त प्रकार के रोग नष्ट होते हैं और रक्तपित्त, रक्तप्रदर, रक्तातिसार, भ्रम (चक्कर आना), उन्माद, विशेषतः पित्तज उन्माद, अम्लपित्त, सोमरोग, प्रमेह विशेषतया पित्तज प्रमेह रोगों में उत्कृष्ट लाभप्रद है। 

इसके अतिरिक्त पित्त के विकारों में और नाक, गुदा, योनि एवं लिंग से होने वाले रक्तस्त्राव में तो इस औषध के प्रयोग से शीघ्र अभूतपूर्व लाभ होता है और जीर्णज्वर, दाह तथा पित्तज्वर में भी लाभकारी है।


कामधेनु रस 

शुद्ध गन्धक और आँवला कली चूर्ण इन दोनों को समान भाग लेकर आंवला रस और सेमल मूसली के रस की 7-7 भावना देकर छाया में सुखा कर रख लें।-- भै. र.

मात्रा और अनुपान

2-4 रत्ती, सुबह-शाम धारोष्ण दूध, मधु अथवा न्यूनाधिक मात्रा में थी और मधु मिलाकर दें, ऊपर से दूध पिला दें।

गुण और उपयोग

यह बल-वीर्यवर्द्धक, कामोद्दीपक तथा पौष्टिक रसायन है, इसके सेवन से प्रमेह, विशेषकर शुक्रमेह, ध्वजभंग आदि नष्ट होकर शरीर में कामशक्ति अधिक मात्रा में उत्पन्न होती है वीर्य की कमी से उत्पन्न नपुंसकता, इन्द्रिय की शिथिलता, सुस्ती आदि इससे बहुत जल्दी ठीक हो जाती है। यह रस रक्तादि धातुओं को शुद्ध करके बढ़ाता तथा नवयौवन प्रदान करता है।
पाचन क्रिया में जब विकृति उत्पन्न हो जाती है, अर्थात् पाचक पित्त की निर्बलता के कारण भोजन किए हुए पदार्थ का ठीक-ठीक पचन नहीं होने से रस रक्तादि धातु अच्छी तरह नहीं बन पाती हैं, जिससे रस रक्तादि धातुओं का क्रमशः क्षय होकर शरीर कमजोर होने लगता है फिर अनेक उपद्रव खड़े हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में कामधेनु रस का प्रयोग किया जाता है।

जीर्णज्वर में

आयुर्वेद में लिखा है कि 'त्रिसप्ताहव्यतीते तु जीर्ण ज्वरः प्रोच्यते बुधैः' अर्थात् 21 दिन के बाद ज्वर, जीर्णता में परिणत हो जाता है इसमें मन्दाग्नि होने से पाचन क्रिया ठीक-ठीक नहीं होती है। अतएव शरीर में रक्तकणों की कमी हो जाने से रक्त का क्षय हो जाता है। रक्तकणों की कमी के कारण शरीर कान्तिहीन हो जाता है तथा ज्वर, प्यास, जलन, चक्कर आना, मन में बेचैनी, नाड़ी की गति में वृद्धि इत्यादि लक्षण होते हैं। ऐसी अवस्था में कामधेनु रस का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
विषम ज्वर की तीव्र अवस्था में कामधेनु रस का प्रयोग नहीं किया जाता किन्तु जब विषम ज्वर पुराना हो जाता है, तब ज्वर का विष रक्तादि धातुओं को दूषित करता है, ऐसी अवस्था में कामधेनु रस का प्रयोग करने से रस रक्तादि धातुओं का शोधन होकर अच्छा फायदा होता है।

पैत्तिक प्रमेह में

बराबर ज्यादे मात्रा में पीतवर्ण का पेशाब होना, प्यास ज्यादा लगना, सम्पूर्ण शरीर में जलन, पसीना ज्यादा निकलना आदि लक्षण होने पर कामधेनु रस, प्रवाल चन्द्रपुटी तथा गिलोय सत्व के साथ मिलाकर देने से लाभ करता है।

अम्लपित्त रोग में 

आमाशय की विकृति के कारण अन्न का एचन ठीक से न होकर आमाशय में ही अन अधिक काल तक पड़ा रहना, जिससे पेट में भारीपन, जी मिचलाना, मुँह का स्वाद नष्ट हो जाना, खाया हुआ अन्न कुछ समय में जलयुक्त दुर्गन्धमय होकर वमन के द्वारा बाहर निकल जाना, खट्टी डकारें आना प्रभूति लक्षण होते हैं तथा अम्लपित्त की असाध्यावस्था में पानी तक नहीं पचता है पानी पीने के बाद तुरन्त वमन हो जाता है। ऐसी अवस्था में कामधेनु रस देने से आमाशय में रहने वाला पित्त जागृत होकर पाचन क्रिया को सुधार देता है, जिससे अन्नादिक पचने में बाधा नहीं होती है तथा इसके शामक प्रभाव के कारण विदग्ध पित्त की अम्लता के कारण होने वाले वमन, खट्टी डकारें, अरुचि, जी मिचलाना आदि लक्षण भी शमित हो जाते हैं।


कामलाहर रस

शुद्ध पारा 4 तोला, शुद्ध गन्धक 4 तोला, त्रिफला चूर्ण 16 तोला, यवक्षार 8 तोला, शुद्ध सज्जीखार 8 तोला, नौसादर सत्व 8 तोला लेवें प्रथम पारद- गन्धक की कज्जली बना उनमें अन्य दवा मिला 3 घण्टे तक मर्दन करके शीशी में भर कर रख लें। --सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1-1 माशा दिन में 3 बार मक्खन निकाली हुई छाछ के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन का उपयोग करने से समस्त प्रकार के पाण्डु रोग, कामला, कुम्भकामला और हलीमक आदि रोग नष्ट होते हैं विशेषतया कामला रोग में इस रस के प्रयोग से सत्वर लाभ होता है इसके अतिरिक्त शोध रोग, मूत्रकृच्छ्र एवं समस्त प्रकार के रक्त विकारों को नष्ट करता है। 
इस रसायन के सेवन काल में मक्खन निकाली हुई छाछ और भात के पथ्य पर रहना रोगी के लिए विशेष लाभकारी है। गन्ना, मौसम्बी, सन्तरे का रस और नारियल का पानी पिलाना चाहिए। यह औषध साधारण मृदु रेचक भी है।

इस औषध के सेवन काल में कब्ज की शिकायत रहे तो कुटकी चूर्ण या पञ्चसकार चूर्ण या मैगसल्फ देकर उदर की शुद्धि करा लेना चाहिए, मूत्रावरोध या मूत्र दाह होने की अवस्था में नारियल का पानी पिलाना विशेष लाभप्रद है।


कामाग्नि सन्दीपन रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध मैनशिल प्रत्येक 4-4 तोला लेकर, प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना, फिर इसमें अन्य दवाओं का चूर्ण मिला, इन्हें धतूरे के बीज, अदरक, जयन्ती और भांगरे के रस में सात-सात भावना देकर सुखा लें। फिर इस कज्जली को आतशी शीशी में भरकर 6 दिन तक बालुकायन्त्र द्वारा पाक करें स्वांग शीतल होने पर शीशी के गले में लगी हुई लाल रंग की रस सिन्दूर जैसी दवा लेकर रख लें। फिर इसके सेवन काल में इसमें छोटी इलायची-बीज चूर्ण, जावित्रीचूर्ण, शुद्ध कपूर, कस्तूरी, मिश्री, काली मिर्च और असगन्ध समान भाग लेकर चूर्ण बना, मिलाकर सेवन करें। भै. र. 

मात्रा और अनुपान

33 रत्ती मक्खन मलाई और मधु के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन के सेवन से ओज और बल की पुष्टि तथा काम की वृद्धि होती है और यह रसायन समस्त इन्द्रियों को आनन्द देने वाला है।
इस रसायन का असर वातवाहिनी और शुक्रवाहिनी नाड़ी पर विशेष होता है यह उत्तेजक भी है अतः शुक्रं को उत्तेजित करते हुए मन में भी उत्तेजना पैदा करता है, एवं मानसिक अभिघातजन्य नपुंसकता को मिटाने में बहुत उत्तम लाभकारी है। इस रसायन के सेवन काल में दूध और पौष्टिक पदार्थ तथा फलों का विशेष सेवन करना चाहिए।


कामिनीविद्रावण रस

अकरकरा, सोंठ, लौंग, केशर, पीपल, जायफल, जावित्री, चन्दन- प्रत्येक 1-1 तोला शुद्ध सिंगरफ और शुद्ध गन्धक प्रत्येक चौथाई तोला और शुद्ध अफीम 4 तोला लें। प्रथम  सिंगरफ, गन्धक और अफीम को एकत्र पॉट कर रखें। फिर शेष दवा को कूट, कपड़छन चूर्ण कर शीतल जल से घोंट कर 2-2 रत्ती की गोली बना, छाया में सुखा कर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली रात को सोने से एक घण्टा पूर्व दूध के साथ दें। 

गुण और उपयोग

यह वीर्य को गाढ़ा कर स्तम्भन करता है एवं शुक्रवहा नाड़ियों को बलवान बनाता हैशीघ्रपतन वालों के लिये बहुत लाभदायक है, क्योंकि यह उत्तम वीर्य स्तम्भक है यह ध्यान रखने की बात है कि इसमें अफीम का अंश विशेष है। 
इससे दस्त में कब्जियत हो तो सुबह गर्म दूध पीना चाहिए। अप्राकृतिक मैथुन अथवा हस्तमैथुन या स्वप्नदोष आदि के कारण उत्पन्न शीघ्रपतन की शिकायत तथा वीर्य के पतलेपन को मिटाने में यह रसायन बहुत श्रेष्ठ लाभदायक है।


कालकूट रस

शुद्ध बच्छनाग विष 11 तोला, शुद्ध पारद 3 तोला, शुद्ध गन्धक 5 तोला, शुद्ध मैनशिल 6 तोला, ताम्र भस्म 4 तोला, सुहागे की खील 6 तोला, शुद्ध हरताल ( या हरताल भस्म) 9 तोला, चित्रकमूल 9 तोला, त्रिकटु 12 तोला, त्रिफला 10 तोला भुनी हींग 1 तोला और बच तोला लें। प्रथम पारद-गन्धक की कज्जली बनायें। फिर अन्य औषधियों को कूट, कपड़छन चूर्ण मिला मैनशिल, हरताल भस्म, सुहागे की खील, ताम्र भस्म आदि क्रमशः मिलाकर 1-1 प्रहर अदरक, चीतामूल, जम्बीरी नींबू, लहसुन, करंजपत्र, आक की जड़, धतूरे की जड़, कलिहारी, संभालू, पान, अंकोल-मूल, सहजन की जड़, पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ) और पंचमूल इनके रस या क्वाथ में खरल कर 1- 1 रती की गोलियाँ बना, छाया में सुखाकर रख लें। -वै. चि

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम अदरक रस के साथ या मधु से दें पश्चात् पान चबायें या पान के रस और मधु के साथ भी इसे दे सकते हैं।

गुण और उपयोग

यह रसायन अत्युग्र सन्निपात, अन्धिक सत्रिपात, धनुर्वातादि किसी प्रकार का तीव्र वात- विकार हो, विशेष कर बेहोशी, प्रलाप, आँखों की तन्द्रा, श्वास, कफयुक्त खाँसी, कंप, हिचकी इत्यादि लक्षणयुक्त वात, कफ की अधिकता व सन्निपात ज्वर में लाभदायक है।

यह रसायन अत्युग्र है। अतएव इसका प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए। सर्वसाधारण वैद्य या नवीन वैद्य अर्थात् जो इस दवा के प्रयोग करने के विधान से अपरिचित हों ऐसे वैद्यों को खूब सोच-विचार कर प्रयोग करना चाहिए अन्तिमावस्था में जब मकरध्वजादि दवाएँ नाकाम हो जाएँ, नाड़ी लुप्त हो रही हो, शरीर ठण्डा हो रहा हो, सिर्फ हृदय की चाल बनी हुई हो, तथा जब कभी थोड़ी-बहुत श्वास की गति मालूम पड़ती हो, तो ऐसी विकट परिस्थिति में इसका प्रयोग करना चाहिए।

इस रसायन के सेवन से हृदय बलवान हो जाता है फिर नाड़ी की गति में कुछ वृद्धि होने लगती है। इसके सेवन से रक्त का दबाव बढ़ जाता है, जिससे नेत्रों में लाली छाई हुई रहती हो, त्रिदोष में पित्त प्रधान हो, रोगी को रक्त दबाव वृद्धि की शिकायत रहती हो, ऐसी अवस्था होने पर यह दवा नहीं देनी चाहिए, क्योंकि यह वैसे ही अत्युग दवा है। 
कभी-कभी इसकी तीव्रता के कारण रक्तवाहिनियाँ फट भी जाती है, जिससे रक्तस्त्राव होने लगता है। मोतीपिष्टी या प्रवाल चन्द्रपुटी, गुडूची सत्त्व आदि सौम्य औषधियों के साथ मिलाकर देने से इसकी उग्रता कम हो जाती है।

कफोल्वण सन्निपात में

नाड़ी की गति क्षीण हो सम्पूर्ण शरीर में जड़ता, मस्तिष्क में भारीपन, दिमाग शून्य मालूम होना, विचार शक्ति का एकदम ह्रास हो जाना, ज्ञान-शक्ति का नष्ट हो जाना, सिर में मन्द- मन्द दर्द बना रहना, नेत्र की पलकें भारी हो जाना, आँख खोलने तथा मूंदने में भी परिश्रम मालूम पड़ना, प्रकाश में रहने की इच्छा, शीतल पदार्थ से द्वेष, आँख से कीचड़ बहना, नाक से कफ का साथ होना, नासिका से कोई चीज सूधने पर उसकी गंध का ज्ञान न होना, जिल्हा कुछ मोटी तथा सफेद मलयुक्त हो जाना, इत्यादि लक्षण उत्पन्न होने पर कालकूट रस के प्रयोग से उत्तम लाभ होता है।

वात और कफजन्य विकार में श्वासोच्छ्वास तथा खाँसी में गम्भीरता आ जाती है। खाँसी के साथ सफेद रंग का लसदार तथा गठीला कफ निकलता है। श्वास लेने पर थोड़ा-थोड़ा कष्ट होता है। नाड़ी की गति मन्द और भारी हो जाती है ऐसी हालत में कालकूट रस के सेवन से प्रकुपित वात और कफ शान्त हो जाते हैं तथा श्वास की गति में भी सुधार हो जाता है। यह रसायन हृदय की शिथिलता दूर कर हृदय की गति को बढ़ा देता है।

इन्फ्लुएन्जा ज्वर

इसमें प्रायः वात और कफ की वृद्धि होती है अतः इसी के विकार (उपद्रव) उत्पन्न होते हैं। इस रोग के प्रारम्भ में सौम्य औषधियों द्वारा चिकित्सा करने से उपद्रव बढ़ने नहीं पाता और शीघ्र अच्छा भी हो जाता है। किन्तु यदि इसकी उपेक्षा की गई तो उपद्रव बढ़ते ही जाते हैं। इसमें बात के लक्षणों में दो भेद हो जाते हैं प्रथम में रोगी की ज्ञान शक्ति रहती है, पसीना खूब निकलता है, कण्ठ हिलने (काँपने लगता है, कभी-कभी जोर से चिल्लाने लग जाता है, इत्यादि लक्षण होने पर तो महावातविध्वंसन आदि रस देना ही ठीक है दूसरे में नाड़ी की गति मन्द हो जाय, रोगी सुस्त पड़ा रहे बोले तक भी नहीं थोड़ा ज्वर बना ही रहे, तो ऐसी अवस्था में कालकूट रस अदरक रस के साथ देना आवश्यक है। इसके प्रयोग से नाड़ी की गति में सुधार होकर रोगी में चेतना आ जाती है एवं बढ़े हुए कफ और वात का शमन भी हो जाता है। 

धनुर्वात रोग में 

भी इसका प्रयोग किया जाता है। यदि इसमें कफ संयुक्त वायु का प्रकोप हो तो यह रसायन बहुत जल्द लाभ पहुंचाता है कभी-कभी प्रसूता स्वी को बच्चा होने के बाद उचित व्यवस्था न होने से अथवा शीतल पदार्थ या ठण्डी हवा लग जाने से भी धनुर्वात हो जाता है।
प्रसूता को धनुर्वात रोग हो जाने से ही उसकी नसें खिची हुई-सी रहती हैं तथा नसों में विकृति उत्पन्न हो जाती है, जिससे प्रसव के बाद रक्त का स्राव (जो दूषित रक्त रहता है) अच्छी तरह नहीं निकल पाता, जिससे और भी कष्ट बढ़ जाता है। ऐसी अवस्था में कालकूट रस के सेवन से अच्छा लाभ होता है, क्योंकि यह अपनी तीक्ष्णता के कारण वातदोष को दूर करते हुए दूषित रक्त को भी बाहर निकाल देता है, जिससे प्रसूता में फिर नवजीवन आ जाता है।
नोट
यह रसायन अत्यन्त तीक्ष्ण है। अतः पित्त प्रधान रोगों एवं पित्त प्रकृतिवालों, गर्भवती स्त्रियों तथा सुकुमार स्त्री पुरुषों और नाजुक बच्चों को यह नहीं देना चाहिए। इसके अतिरिक्त बवासीर, मुँह आना, खून गिरना, गर्म मिजाज और अतिशय कमजोरी में भी नहीं देना चाहिए। 


कालारि रस

शुद्ध पारद 9 माशा, शुद्ध गंधक 15 माशा, शुद्ध बच्छनाग माशा, छोटी पीपल 30 माशा, लौंग 12 माशा, धतूरे के बीज 9 माशा, सुहागे की खील 9 माशा, जायफल 15 माशा, काली मिर्च 15 माशा और अकरकरा 9 माशा लें प्रथम पारद-गन्धक की कज्जली कर उसमें अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला करीर, अदरक-स्वरस और नींबू-इन प्रत्येक के रस में 3-3 दिन मर्दन करके 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना लें। -- -पो. चि.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली अदरक का रस, तुलसी का रस 7 से 21 लौंग का अधवशेष क्वाथ इनमें से किसी एक अनुपान से बात ज्वर, कफ ज्वर और कफवाताधिक सन्निपात में दें। सन्निपात ज्वर की प्रथमावस्था में तगरादि क्वाथ के साथ या 7 लौंग, 3 माशा ब्राह्मी की ताजी पत्ती, 3 माशा जटामांसी और तीन माशा शंखाहुली के क्वाथ के अनुपान से दें। विषम ज्वर में जायफल चूर्ण 11 माशा के साथ देकर ऊपर से दूध पिला दें अथवा नीम के पत्तों के स्वरस की भावना दी हुई गोदन्ती भस्म के साथ दे सकते हैं।

गुण और उपयोग

यह रसायन साधारण ज्वर, सन्निपात ज्वर और विषम ज्वर में भी दिया जाता है। विषम ज्वर में तो कुनैन की जगह इसका प्रयोग करना चाहिए। सन्निपात में उत्पन्न श्वास-कास- हिक्का प्रलाप आदि शमन करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है वात-कफ का शमन करते हुए ज्वर के उपद्रवों को भी यह दूर करता है वात और कफ प्रधान सन्निपात में इस रस के प्रयोग. से दोषों के बढ़े हुए प्रकोप का शमन होकर उपद्रव शान्त हो जाते हैं एवं पाचन होकर ज्वर ठीक हो जाता है।


कासकुठार रस

शुद्ध सिंगरफ, काली मिर्च, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा और सुहागे की खील प्रत्येक समभाग लेकर मर्दन कर रख लें। -- र. रा. सु.

मात्रा और अनुपान

1-2 रत्ती, सुबह-शाम अदरक रस और मधु के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन पानी से ज्यादा भींग जाने अथवा अन्य शीतोपचार से उत्पन्न सन्निपात ज्वर, शीतांग सन्निपात अथवा कफ-प्रधानजन्य ज्वरों में विशेष फायदा करता है। जिस ज्वर में अंग जकड़ जाता है, सम्पूर्ण शरीर में दर्द होता रहता है, उसमें इसका उपयोग नहीं करना चाहिए। 

किन्तु जिस ज्वर में कफ ज्यादा हो, खाँसी अधिक होती हो और खाँसी के साथ कफ ज्यादे निकलता हो, तो ऐसी अवस्था में कासकुठार के सेवन से अच्छा लाभ होता है। 

कफदोष से उत्पन्न शिरःशूल जिसमें वेदना अधिक होती हो, शिर भारी मालूम पड़ता हो, ऐसी अवस्था में कासकुठार रस देने से शीघ्र लाभ करता है, क्योंकि इसमें गन्धक पड़ा हुआ है जो जंतुघ्न है और त्रिकटु (सौंठ, पीपर, मिर्च) दीपन- पाचन है यह दवा उष्णवीर्य प्रधान है, अतः कफ- विकार और रोगवर्द्धक कीटाणुओं को नाश करनेवाली है। - औ. गु. ध. शा.


कासकर्त्तरी रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, पीपल, हरड़, बहेड़ा, अडूसामूल-छाल ये प्रत्येक एक से दूसरे की द्विगुण लें, अर्थात् शुद्ध पारद 1 तोला, शुद्ध गन्धक 2 तोला, पीपल 4 तोला, हरड़ 8 तोला, बहेड़ा 16 तोला, असामूल- छाल 32 तोला लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, पश्चात् अन्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिला बबूल के क्वाथ की इक्कीस भावना देकर दृढ़ मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 3-3 रती की गोली बना सुखा कर सुरक्षित रखें। १. रा. सु.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली आवश्यकतानुसार दिन में 3-4 बार शहद के साथ दोषानुसार अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रस समस्त प्रकार के कास रोगों को शीघ्र नष्ट करता है। इसके प्रयोग से पुराना दुर्गन्धयुक्त एवं संचित कफ पतला होकर थोड़ा ही खाँसने से सरलतापूर्वक निकल जाता है। 

यह रस विशेषतः वात-कफजन्य कास में उत्कृष्ट लाभ करता है। 

पित्तज कास रोग में भी मिश्री के साथ खाने से अच्छा लाभ होता है बार-बार होने वाली खाँसी में एवं गले की खराबी के कारण होनेवाली खाँसी में इस रस की एक-एक गोली मुंह में रखकर दिन रात में 6-7 गोली तक चूस लेने से फेफड़े, श्वास-प्रणाली और गले में जमा कफ साफ हो जाता है और खाँसी समूल नष्ट हो जाती है।


कास केशरी रस

शुद्ध हिंगुल, काली मिर्च, नागरमोथा, शुद्ध टंकण, शुद्ध सीगिया विषये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण करें। पश्चात् सब को एकत्रित मिला जम्बीरी नींबू के रस में दृढ़ मर्दन कर गोली बनाने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोली बना सुखा कर रखें। वृ. नि. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली दिन में 2-3 बार आवश्यकतानुसार अदरक रस और शहद के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का उपयोग करने से समस्त प्रकार के कास रोग शीघ्र नष्ट होते हैं तथा समस्त प्रकार के श्वास रोग में विशेषतः नवीन श्वास रोग में उचित अनुपान के साथ देने से अच्छा लाभ होता है। इसके अतिरिक्त समस्त प्रकार के कफजनित विकार कफ, ज्वर, बात ज्वर एवं वात-कफज ज्वर तथा अन्य वात-कफज विकारों में उपयोगी है।


कफकर्त्तरी रस

जावित्री 2 तोला, इलायची 2 तोला, पुराना बाँस 4 तोला, पुनर्नवामूल 4 तोला, कटेरी फल 2 तोला, तम्बाकू के डण्ठलों की अन्तर्भूम राख 2 तोला लें प्रथम सूखे अपामार्ग का पंचांग 1 सेर लेकर लोहे की एक बड़ी कड़ाही में डालें और ऊपर से उपरोक्त दवायें डालकर उन पर 1 सेर सूखा अपामार्ग पंचांग और डालकर अग्नि लगा दें। पश्चात् बाँस के डण्डे से इधर-उधर करके अच्छी प्रकार से जला दें, ताकि अच्छी तरह राख हो जावे, कोयला न रहने पावे यदि कोई औषधि ठीक से न जलने पावे तो और अपामार्ग पंचांग डालकर जला लें और राख करके सूक्ष्म कपड़छन पीसकर रख लें पश्चात् जितना इस तैयार औषध का वजन हो, उस वजन से आठवाँ भाग भुना सुहागा और सोलहवाँ भाग शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक की कज्जली को अच्छी प्रकार मिला, दृढ मर्दन करके सुरक्षित रखें। -- आरोग्य प्रकाश से किंचित् परिवर्तित

मात्रा और अनुपान

2-2 रती दिन में 2-3 बार नागरवेल के पान में रखकर दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन को पान में रख कर खाने के पश्चात् रोगी से धीरे-धीरे इसका रस चूसने को कहें और खाने के बाद इस औषधि से अभूतपूर्व लाभ देखने को मिलता है यह औषधि श्वास रोग में अत्यन्त उपयोगी है यहाँ तक कि दो या तीन मात्रा औषधि खाते ही दमा का वेग शमन हो जाता है। 

दमा का वेग शान्त हो जाने पर प्रतिदिन दो मात्रा औषधि रोगी को सेवन करावें। इसके सेवन से संचित दूषित कफ बिना कष्ट के सरलता के साथ थोड़ा खाँसने से ही निकल जाता है। यह कफ पका और दिन-रात में करीब एक पाव से आधा सेर तक निकल जाता है। कफ निकल जाने से रोगी दुर्बल अवश्य हो जाता है किन्तु इस औषधि के अपूर्व प्रभावशाली गुण के कारण श्वास (दमा) का वेग कई-कई वर्ष तक के लिये बन्द हो जाता है। यह औषधि कफ को काट-काट कर बाहर निकाल देती है, अतः इस औषधि का नाम कफकर्तरी रस यथार्थ ही रखा गया है।


कुमार कल्याण रस

रससिन्दूर, मोती भस्म, स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, लौह भस्म और सोनामक्खी भस्म बराबर-बराबर लेकर धीकुमारी के रस में घोंट कर मूंग के समान गोलियाँ बना लें।

वक्तव्य

मूंग स्थान भेद से छोटे-बड़े होते हैं अतः आधी-आधी रसी वजन परिमाण की गोलियाँ बनाना उत्तम है रससिन्दूर के स्थान पर मकरध्वज डालकर इस योग को बनाया जाये तो अधिक गुणकारी बनता है। ऐसा हमारा अनुभव है।

मात्रा और अनुपान

बच्चों के लिए आधी गोली माता के दूध अथवा मिश्री से या बच तथा शहद के साथ दें पूरी उम्रवालों के लिए 1 गोली, रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

स्वर्ण, मोती, रससिन्दूर आदि कीमती चीजों से तैयार किए इस रस का नाम के अनुसार गुण भी है हृदय, फुफ्फुस, मस्तिष्क, ज्ञानेन्द्रिय, यकृत् उदर, मूत्रपिण्ड आदि सभी अंगों के विकारों को नष्ट कर शरीर को यह पुष्ट बनाता है।

बालकों के सभी रोग कास, श्वास, क्षय, संग्रहणी, डब्बा, वमन आदि पर यह सुन्दर कार्य करता है स्वस्थ बच्चों को भी यदि एक सप्ताह तक इसका सेवन कराया जाय, तो उन्हें यह पुष्ट बना देता है और चेचक तथा मोतीझरे की बीमारी से बचाता है।
बच्चों की तरह यह बड़ों को भी दिया जा सकता है। उत्तम रसायन होने के साथ ही यह रस योगवाही भी है शारीरिक शक्ति की रक्षा के लिए दूसरी औषधियों के साथ इसका प्रयोग किया जाता है बच्चों को होने वाले बालशोष अर्थात् सूखा रोग में गोदन्ती भस्म के साथ मिलाकर इसका सेवन कराने से रोग नष्ट कर बच्चों को स्वस्थ एवं सबल बना देता है बाल पक्षाघात, आक्षेपक आदि वात विकारों में भी यह उत्तम लाभ करता है।


कुमुदेश्वर रस

स्वर्ण भस्म, रससिन्दूर, शुद्ध गन्धक, मोती भस्म या पिष्टी, शुद्ध पारद, शुद्ध टंकण, चाँदी भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्मये प्रत्येक 11 तोला लेकर एकत्र मिला, खरल में डाल कर कांजी के साथ मर्दन करके एक गोला-सा बना लें। इस गोले को मिट्टी के दो शराबों में बन्द करके सन्धिबन्धन कर कपड़मिट्टी करके सुखा लें। पश्चात् लवण यन्त्र में रख कर दिन भर चूल्हे पर रख कर पाक करें अथवा मृदु पुट में रख कर पकायें स्वांग शीतल होने पर सूक्ष्म मर्दन कर सुरक्षित रखें। . सा. सं.

वक्तव्य

इस योग से र. चं. और र यो. सा. की अपेक्षा र सा. सं. के पाठ में अन्तर है। र. चं. और र, यो सा. में स्वर्ण भस्म, रससिन्दूर 11 भाग, मोती भस्म 2 भाग, रससिन्दूर से चतुर्थांश टंकण और शुद्ध गन्धक सब के बराबर लेने को लिखा है, तथा रौप्य भस्म और स्वर्णमाक्षिक भस्म का पाठ नहीं है तथा र. सा. सं. पाठ में स्वर्ण भस्म, रससिन्दूर, शुद्ध गन्धक, मोती भस्म, रौप्य भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म—ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेने का उल्लेख है एवं शुद्ध टंकण रससिन्दूर से चतुर्थाश लेने का उल्लेख है किन्तु कोई-कोई चिकित्सक इस योग के र. सा. सं. के पाठ में भी मतभेद मान कर टंकण सहित सब द्रव्य समभाग लेते हैं और 'रस' इस शब्द से शुद्ध पारद लेते हैं एवं कोई-कोई रस इस शब्द से खर्पर भस्म लेने का भी विधान करते हैं। हमारी राय में र. सा. सं. वाला योग ठीक है हम 'रस' इस शब्द से पारद लेते हैं और सभी द्रव्य टंकण सहित समान भाग लेते हैं।

मात्रा और अनुपान

1-1 रती काली मिर्च चूर्ण और घी के साथ या मधु के साथ अथवा रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें। 

गुण और उपयोग

स्वर्ण, मोती, रससिन्दूर आदि उत्कृष्ट बहुमूल्य उपादानों से निर्मित इस रसायन का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के राजयक्ष्मा रोग शीघ्र नष्ट होते हैं विशेषतः राजयक्ष्मा की प्रथमावस्था में इसके प्रयोग से बहुत अच्छा लाभ होता है।

इसके अतिरिक्त पुराने जीर्ण ज्वर, पुरानी खाँसी और श्वास तथा इनसे होनेवाले उपद्रव, प्रबल ज्वर, पार्श्वशूल, हृदय की धड़कन, हृदय की दुर्बलता, निद्रानाश, उदरवायु की प्रबलता आदि लक्षणों में अच्छा लाभ होता है। यह रसायन सौम्य होने के कारण इसका हृदय पर बहुत अच्छा प्रभाव होता है दिमाग तथा वात नाड़ियों को बल प्रदान करता है। रस रक्तादि सात धातुओं की वृद्धि कर बल, वर्ण, कान्ति तथा ओज की वृद्धि करता है।


कुष्ठकुठार रस

रससिन्दूर, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म ताम्र भस्म, आंवला, हरें, बहेड़ा, बकायन छाल, चीता, गुग्गुलु और शुद्ध शिलाजीत प्रत्येक 4-4 तोले करंज के बीज का चूर्ण और अबक भस्म 16-16 तोते लेकर सबको यथाविधि मिलायें गुग्गुलु को पानी में गलाकर मिलावें, सब दवा को एकत्र कर खरल में खूब घोटें जब अच्छी तरह दवा पुट जाय तब इसमें घी मिलावें। बाद में घी के साथ थोड़ा शहद मिलाकर जल के साथ 4-4 रती की गोली बनाकर सुखाकर रख लें। - रसेन्द्र सा. सं.

मात्रा और अनुपान

1-2 गोली सुबह-शाम जल से दें। यदि इसके सेवन से अत्यधिक ताप हो तो पाताल गरुड़ी की जड़, गुड़हल का फूल और धनिये का चूर्ण 1 तोला परिमाण में लेकर मिश्री मिला सेवन करावे अथवा नागबला की जड़ का चूर्ण और शहद एवं शहद के साथ थोड़ा सा घी मिलाकर सेवन करावें।

गुण और उपयोग

कुष्ठरोग विशेषतः असाध्य ही होते हैं, किन्तु रोग निवारण के लिये उपाय करना मनुष्य का कर्तव्य है। कुष्ठ जैसी बीमारी के लिये जरूरी है कि अधिक समय तक दवा सेवन की जाय किन्तु प्रायः देखा जाता है कि कुष्ठरोगी थोड़े दिन तक दवा खाकर फायदा नहीं होने से, रोग से निराश हो, दवा का सेवन करना बन्द कर देता है, किन्तु यह उचित नहीं कुष्ठरोगी को कम-से-कम 41 दिन तक दवा नियमपूर्वक सेवन करनी चाहिये।

इस रसायन का प्रयोग विशेष कर गलितकुष्ठ में— अंगुलियाँ, कान, नाक आदि सड़ गये हाँ, देह से दुर्गन्ध निकलती हो, मक्खियाँ चारों तरफ मिनकती हो, ऐसी हालत में किया जाता है।

कुष्ठ रोग में

रक्त-मांस त्वचा आदि विकृत हो जाते हैं। इसमें त्वचा सड़ी हुई मालूम पड़ती है, गलित कुष्ठ में अंगुलियों के पर्व (पोर) गलकर गिर जाते हैं फिर भी दर्द कम नहीं होता। इसमें. मैं चींटी काटने की सी वेदना होती रहती है जहाँ अंगुलियाँ गलकर गिर जाती हैं, वहाँ से लसीका स्राव होने लगता है शरीर में आलस्य इतना बढ़ जाता है कि हाथ-पाँव उठाने और रखने में दिक्कत मालूम पड़ती है जिस करवट से रोगी पड़ा हुआ रहता है, उसे बदलने की इच्छा नहीं होती शरीर की त्वचा फटी हुई-सी हो जाती है। घाव में से दुर्गन्धित मवाद निकलता है। स्पर्शज्ञान एकदम नष्ट हो जाता है। ऐसी अवस्था में कुष्ठकुठार रस का सेवन, करने से शीघ्र लाभ होता है।
'इसमें – रससिन्दूर योगवाही और रसायन है गन्धक - त्वचागत दोष का नाश करने वाला ... तथा रक्तशोधक है। 

लौह भस्म शक्तिवर्धक तथा रक्तप्रसादक है। ताम्र भस्म - यकृत् को उत्तेजित करनेवाली और पित्तस्रावक तथा ग्रहणी के विकारों को नष्ट करने वाली है। गुग्गुलु- रसायन, योगवाही, वातशामक व कोष्ठशोधन करनेवाला है। त्रिफला रसायन और मृदु विरेचक है। महानिम्ब (बकायन छाल) दोष और दृष्यों को शोधन करने वाला द्रव्य है। शिलाजीत — धातु परिपोषणक्रम को सुधारने वाला है। 

करंजबीज – रक्तप्रसादक, संशोधक व त्वचागत कुष्ठ के दोष को शमन करने वाला है अभ्रक भस्मधातु परिपोषणक्रम को व्यवस्थित करता है और मानसिक आघात (क्षोभ) जन्य दोष को नष्ट करनेवाला और शारीरिक अवयवों में शक्ति बढ़ानेवाला, जीवनीय और बल्य है। इस तरह से यह औषधि गलित कुष्ठ में उत्तम लाभकारी है।


कुष्ठकालानल रस

शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, शुद्ध टंकण, ताम्रभस्म, लौहभस्म और पीपल प्रत्येक 1-1 भाग लें, प्रथम पारद-गन्धक की कज्जली बनायें, पश्चात् अन्यान्य भस्में एवं पीपल चूर्ण मिला नीम के पञ्चांग का क्वाथ और त्रिफला क्वाथ तथा अमलतास के पत्तों के रस में क्रमशः एक- एक भावना देकर मर्दन करें और गोली बनाने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोली बना सुखाकर रख लें। रसे. चि. म.

मात्रा और अनुपान

1 से 3 गोली तक सुबह-शाम जल के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन का उचित अनुपान के साथ प्रयोग करने से समस्त प्रकार के कुष्ठ रोग नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त समस्त प्रकार के रक्त विकार, त्वचा के रोग, वातरक्त आदि नष्ट होकर शरीर सुन्दर, कोमल और कान्तिमान हो जाता है। 

इस रसायन का प्रभाव विकृत दोष और दूष्यों पर मुख्य रूप से होता है। इसके प्रयोग के साथ ही यदि खदिरारिष्ट अथवा महामंजिष्ठाद्यरिष्ट या महामंजिष्ठादि क्वाथ ( प्रवाही) 2 तोला को समान भाग जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय सेवन किया जाये तो दोष और दृष्यों के शोधन और शमन का काम भी बढ़ा उत्तमता से हो जाता है। 


खंजनिकारि रस

मल्लसिन्दूर, रौप्यभस्म और शुद्ध कुचले का कपड़छन चूर्ण प्रत्येक संग भाग लें प्रथम मल्लसिन्दूर को खूब महीन पीसें पीछे उसमें दवा मिला, अर्जुन वृक्ष की छाल के क्वाथ की 7 भावनाएँ देकर मूंग के बराबर गोलियाँ बना, छाया में सुखा लें। --सि. यो. सं.

वक्तव्य

मूंग स्थान भेद से छोटे-बड़े होते हैं। अतः आधी-आधी रती की गोलियाँ बनाना ठीक है।

मात्रा और अनुपान

1-2 गोली सबेरे-शाम दूध के अनुपान से सेवन करें।

गुण और उपयोग

मल्लसिन्दूर, रौप्य और कुचला का यह उत्तम योग अत्यन्त उम्र एवं उष्णवीर्य है। इसके सेवन से पक्षाघात (लकवा), धनुष्टंकार, गठिया आदि पुराने से पुराने वातरोग आराम होते हैं। आतशक, सूजाक आदि के उपद्रव से पैदा हुए वातरोगों के लिए भी रामबाण तुल्य काम करता है। बात और कफ सम्बन्धी कास श्वास, न्यूमोनिया, उरस्तोय, डब्बा, शीतांग सन्निपात आदि में यह लाभदायक है।
पित्त विकारों में इसका प्रयोग किसी सौम्य औषध के साथ करना चाहिए। अन्य औषधियों से लाभ न होने पर ही इस उग्रवीर्य किन्तु प्रचण्ड लाभकारी ब्रह्मास्वरूपी महौषधि का प्रयोग करना चाहिए।


गंगाधर रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, कुड़े की छाल, अतीस, लोध, बेलगिरी और धाय के फूल सब समान भाग लें प्रथम पारा गन्धक की कज्जली करें। तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधियों का कूट कपड़छन चूर्ण मिलाकर 3 दिन तक पोस्त के डोड़े के क्वाथ में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। -- र. का.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम छाछ के साथ, रक्तातिसार में कुड़े की छाल के क्वाथ से, आमातिसार में नागरमोथा के रस या क्वाथ के साथ दें। 

गुण और उपयोग

यह रसायन अतिसार, आमातिसार तथा रक्तातिसार में बहुत लाभ करता है। इसमें अतीस पड़ी हुई है, अतएव आमातिसार में विशेष गुणदायक है पारद, गन्धक, अभ्रक भस्म आदि द्रव्यों के मिश्रित होने से मन्दाग्नि और संग्रहणी में यह अग्नि को प्रदीप्त कर आम का पाचन एवं बढ़े हुए दस्त के वेगों को कम करता है बेलगिरी और धाय के फूल एवं कुड़ाछाल का मिश्रण भी आमपाचन और स्तम्भन की दृष्टि से बहुत उपयोगी उपादान है।


गदमुरारि रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मैनशिल, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, तानभस्म - ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 तोला, शुद्ध बच्चनाग विष 3 माशे लेकर प्रथम पारा गन्धक की कम्जली बनायें, पश्चात् अन्य भस्म और बच्छनाग का सूक्ष्म चूर्ण मिला अदरक के रस में 12 घंटे दृढ मर्दन कर आधी-आधी रत्ती की गोली बना सुखाकर रखें।-- र. त. सा.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम सुखोष्ण जल के साथ या अदरक रस के साथ अथवा तुलसी- पत्र-स्वरस के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रस का प्रयोग करने से आम प्रधान जीर्ण ज्वर का नाश होता है यह रसायन अनेक दिनों तक रहने वाले ज्वरों में धातु परिपोषण क्रम को धीरे-धीरे सुधार कर रोग का शमन करता है। जिन ज्वरों के दोष धातुओं में लीन रहते हैं, उनमें गदमुरारि रस का सेवन अत्यन्त लाभकारी है। रसगत ज्वर, पित्तगत ज्वर एवं व्यवस्थित रीति से चिकित्सा न हुई हो ऐसा सन्निपात ज्वर, बहुत समय का जीर्ण विषम ज्वर, क्षय रोग की प्रथमावस्था का ताप, अतिसार सहित जीर्ण ज्वर आदि में यह रसायन उत्कृष्ट लाभ करता है।

रसगत ज्वर में सर्वाङ्ग में जड़ता, हाथ-पैर टूटना, उबाक आना, वमन, अरुचि, छाती में भारीपन, मुखमंडल निस्तेज, कृशता आदि लक्षण उपस्थित होने पर इस रसायन के सेवन से अच्छा उपकार होता है।

कफ के साथ रक्त आना एवं थूक में रक्तायम, रक्त मिश्रित कफ के गिरने पर भी श्लैष्मिक या श्वसनक ज्वर के लक्षण न हों तथा फुफ्फुस आदि भी विकृति शून्य हों, तृषा अंगवाह, दूषित विचार आना, वमन, भ्रम, मूर्च्छा, प्रलाप सन्धिशूल आदि लक्षणों में इस रस को ब्राह्मी क्वाथ वासा स्वरस या दुर्वा मूल स्वरस के साथ देना लाभकारी है।

अत्यन्त तृषा, बार-बार शीच एवं लघु शंका होना, सर्वाङ्ग दाह, हस्त-पाद-तल दाह, हस्त पाद नाही आकुंचन, हस्त-पाद-पटकम, व्याकुलता, पंखे से वायु करते रहने पर कुछ अच्छा लगना आदि लक्षणों में से इस रस का नागरमोथा क्वाथ के साथ प्रयोग करना लाभप्रद है।

अति प्रस्वेद, अतितृषा, बार-बार मूर्च्छा प्रलाप, वमन, मुख से दुर्गन्ध आना एवं प्रस्वेद से शरीर में दुर्गन्ध निकलना, अरुचि, शरीर के किसी भी भाग में स्पर्श सहन न होना आदि लक्षण होने पर इस रस को शहद और जल के साथ देना लाभकारी है।

हस्त पाद की नाड़ी का आकुंचन, सर्वांगशूल, श्वास, बेचैनी, वमन, अतिसार आदि लक्षणों में प्रवालपिष्टी और श्रृंग भस्म मिलाकर पियावाँसा स्वरस या क्वाथ के साथ शहद मिलाकर देना लाभकारी है।

भ्रम, श्वास, हिक्का, कास, शीत न लगना, या शरीर अकस्मात् शीतल हो जाना, हस्त पाद की शून्यता, वमन, अन्तर्वाह, हृदय, मूत्राशय और पार्श्वभाग में वेदना अत्यन्त बलपूर्वक श्वास लेना आदि लक्षणों में सुदर्शन चूर्ण के क्वाब के साथ इस रस के प्रयोग से सत्वर उत्कृष्ट लाभ होता है।

न्यूमोनिया (श्वसनक ज्वर), इन्फ्लुएन्जा (वात-कफ ज्वर) और मथुरा ज्वर के अति जीर्ण होने पर तीव्र औषधि का प्रयोग नहीं किया जाता। ऐसी दशा में शनैः-शनैः कार्यकारी सौम्य औषधि देना श्रेयस्कर है। इनमें गदमुरारि रस का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ है। इस रस का उपयोग कर्णक, भुग्ननेत्र चित्त विभ्रमं और अभिन्यास सन्निपात इनकी जीर्ण अवस्था में भी उत्तम होता है।

विषम ज्वर की योग्य चिकित्सा न होने या प्रारम्भ में ही चिरकारी होने पर दीर्घकाल तक स्थाई हो जाता है। इसमें निश्चित प्रकार का व्यक्त रूप नहीं होता, अर्थात् चातुर्थिक ज्वर के सदृश या सन्तत ज्वर के समान सर्वदा ज्वर रहता हो, ऐसा नहीं होकर दिन में किसी भी समय अनियमित रूप से आना, कभी कम कभी अधिक कभी शीत लगकर कभी बिना शीत लगे, कभी तृषा अधिक कभी कतई न लगना, आदि अनियमित लक्षण होते हैं ज्वर आने पर सर्वांग शूल एवं ज्वर जाने पर भली प्रकार चलना-फिरना आदि लक्षण होते हैं ऐसे ज्वर में विषम ज्वर के कीटाणु या सेन्द्रिय किए के रूप और कारण स्पष्ट प्रकाशित नहीं होते, केवल ज्वर दीर्घकाल तक रहता है परिणामस्वरूप कृशता, अपचन, निर्बलता, कान्तिहीनता, मलावरोध आदि लक्षण उपस्थित होते हैं। ऐसी दशा में इस रस के सेवन से अच्छा लाभ होता है।

क्षय की प्रथमावस्था में सामान्य ज्वर, शुष्क कास, सर्वागशूल, नाड़ी का तीव्र वेग, तृषा, यह आदि लक्षण होने पर इसके साथ प्रवाल पिटी और भृंग भस्म मिलाकर देने से लाभ होता है।


गण्डमालाकण्डन रस

शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक आधा तोला ताम्र भस्म 111 तोला, मण्डूर भस्म 3 तोला, सोंठ, मिर्च, पीपल 2-2 तोला, सेंधा नमक आधा तोला, कचनार की छाल का चूर्ण, गुग्गुलु 12-12 तोला लें। पहले पारा और गन्धक की कञ्जली बनायें, फिर उसमें अन्य औषधियों का कूट कपड़छन चूर्ण मिला (गुग्गुलु में गोघृत मिलाकर कूटकर नरम करें, फिर सब औषधियों और गुग्गुलु को एकत्र मिला अच्छी तरह कूट कर ) 4-4 रती की गोलियाँ बना कर रख लें।

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम कचनार की छाल के क्वाथ से या ताजे जल से दें।

गुण और उपयोग

गलगण्ड, गण्डमाला (कण्ठबेल-पेंचा) अपची और गाँठवाले फोड़े-फुन्सियों पर इस दवा का अच्छा प्रभाव होता है गण्डमाला रोग की यह उत्तम दवा है।

यह रस कंफप्रकृति वालों को बहुत शीघ्र लाभ पहुँचाता है गण्डमाला वालों को अक्सर बद्धकोष्ठ हो जाता है, उनके लिये भी यह रस बहुत उत्तम है यह मन्दाग्नि को दूर कर पाचक पित्त को जागृत करता है।

गण्डमाला या गलगण्ड की अन्थियों शरीर में सर्वदा विद्यमान रहती ही हैं। ये अधिम दोनों काँख (बंक्षण), गले के नीचे और कण्ठ में होती हैं। इनमें जब कफ दूषित होकर मिल जाता है और साथ में वायु भी मिला होता है, तब इन ग्रन्थियों की वृद्धि होने लगती है इनकी वृद्धि-काल में गाँठ में दर्द होता तथा बुखार भी हो जाता है मन्दाग्नि और बद्धकोष्ठता तो हो ही जाती है अतः कमजोरी भी बढ़ने लगती है हाथ-पैर में भी फूटनी होने लगती है। 

कभी- कभी ये गाँठें पक कर फूट भी जाती हैं, फिर भी दर्द कम नहीं होता। फूटने पर ये बहने लगती हैं। उचित उपचार करने पर भर भी जाती हैं, कभी नहीं भी भरती नाव बराबर होता रहता है और ये बहुत दिन में जाकर भरती हैं। अतः यह व्याधि बहुत कठिन होती है। 

इसमें चिकित्सा की उपेक्षा करने पर इसकी जड़ बहुत मजबूत हो जाती है फिर लाचार हो शस्व- क्रिया ही करानी पड़ती है। ऐसे भयंकर रोग से बचने के लिये यह रस दिया जाता है, क्योंकि इस औषधि में कज्जली योगवाही तथा रसायन है। ताभस्म-प्रन्थि और मेदा को पचाने वाली है। 

मण्डूर-रक्त कणों को बढ़ाने वाला व शक्ति प्रदान करने वाला है। कांचनार की छाल अपने प्रभाव से गण्डमाला के विष को नष्ट करने वाली है त्रिकुट पाचक तथा रसायन है सेंधानमक – पाचक है। गुग्गुलु रक्त का प्रसादन करने वाला व शोध को नष्ट करने वाला तथा व्रण का लेखन कर भरने वाला है। इस प्रकार यह रस उपरोक्त लक्षणों में बड़ा गुणकारी सिद्ध हुआ है। औ. गु. ध. शा.


गन्धक रसायन

गाय के दूध से 3 बार शुद्ध किया हुआ गन्धक 64 तोला लें। उसको पत्थर के खरल में.. डाल, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची और नागकेशर इन प्रत्येक का कपड़छन चूर्ण समान भाग में लेकर इस चूर्ण को रात में द्विगुणित जल में भिगो दें सबेरे हाथ में मलकर कपड़े से छाने हुए जल से ताजी गिलोय के स्वरस से, हरें और बहेड़े के क्वाथ से, आँवला, सोंठ, भांगरा और अदरख इनके स्वरस से 8-8 दिन मर्दन कर, अर्थात् प्रत्येक के जल क्वाय या स्वरस में 8-8 दिन भावना दें। प्रत्येक भावना में 3 से 6 घन्टा मर्दन करके सुखाने के बाद भावना दें। अन्त में सुखाकर पीसकर उसमें समान भाग मिश्री का चूर्ण मिलाकर शीशी में भर लें।

मात्रा और अनुपान

4-8 रत्ती सवेरे शाम जल, दूध, मंजिष्ठादि क्वाथ, महातिक्त घृत के कल्क द्रव्यों का क्वाथ अथवा खदिरारिष्ट के अनुपान से दें।

गुण और उपयोग

इसके सेवन से कुष्ठ रक्त विकारजन्य फोड़ा-फुन्सी, चकत्तों का पड़ना, आतशक (गर्मी) के सब उपद्रव नष्ट हो जाते हैं धातु-क्षय, प्रमेह, मन्दाग्नि और उदर शूलादि में भी यह लाभदायक है। यह रस रक्तादि सप्त धातु शोधन एवं बलवीर्यवर्द्धक, पौष्टिक एवं अग्निदीपक है तथा कफ और आमाशय के रोगों में भी लाभदायक है।
इस रसायन का प्रधान कार्य
किसी भी कारण से दूषित हुए रक्त तथा धर्म को सुधारना है।

रक्त की अशुद्धि से इससे आगे जो बनने वाली धातुएँ हैं, वे भी शुद्ध नहीं बन पातीं तथा वे धीरे-धीरे निर्बल होती चली जाती हैं इस रसायन के सेवन से शुद्ध रक्त बनने लगता है और शुद्ध रक्त बनने पर इससे बनने वाली धातुएँ भी शुद्ध तथा पुष्ट होने लगती हैं एवं अशुद्ध रक्त जनित विकार भी नष्ट हो जाते हैं।

पित्त प्रधान रोगों में इस रसायन का विशेष उपयोग होता है तथा दाह होना, जलन के साथ पेशाब होना, हाथ-पैर में जलन होना, मस्तिष्क के भीतर कण्ठ- जिल्हा आदि में जलन होना, शीतल जल से स्नान करने की इच्छा होना या शीतल पदार्थ खाने की इच्छा होना इत्यादि लक्षण पित्त की दृष्टि से उत्पन्न होते हैं ऐसी अवस्था में गन्धक रसायन के प्रयोग से ये सब शान्त हो जाते हैं।

शरीर में छोटी-छोटी फुन्सियाँ होना, खुजली ज्यादे होना, कब्ज हो जाना, खुजलाने पर थोड़ा-बहुत रक्त भी निकल जाना ऐसी अवस्था में गन्धक रसायन देने से बहुत फायदा होता है।

उपदंश, सूजाक आदि विषाक्त रोगों के पुराने हो जाने पर शरीर में इस रोग के विष व्याप्त हो जाते हैं। इस विष के प्रभाव से वातवाहिनी नाड़ियाँ विकृत हो, वात-सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे शरीर के भीतर अवयव कमजोर होकर अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। विशेषकर आंतें कमजोर हो जाती हैं, जिससे बद्धकोष्ठता हो जाती है। ऐसी अवस्था में पहले स्नेहन बस्ति का प्रयोग करें, फिर गन्धक रसायन सेवन करावें।

उपदंश रोग जब पुराना हो जाता है, तो जोड़ों में सूजन मसूड़ों में लाव होना, शरीर में कभी-कभी गाँठ पड़ जाना, कमजोरी विशेष मालूम होना, हाथ-पाँव काँपने लगना, बदन में दर्द होना, छोटी-छोटी फुन्सियाँ निकल आना आदि लक्षण प्रकट होते हैं। इनमें गन्धक रसायन के सेवन से अच्छा लाभ होता है।

इसी तरह सूजाक जब पुराना हो जाता है, तो सम्पूर्ण शरीर में जलन होने लगती है। जैसे— पेशाब करते समय जलन होना, जननेन्द्रिय को दबाने से दर्द होना, थोड़ा-थोड़ा मवाद भी निकलना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी अवस्था में गन्धक रसायन 4 रती, प्रवाल पिष्टी 1 रती में मिलाकर सुबह-शाम तथा दोपहर को मधु के साथ मिश्री मिलाकर देने से लाभ होता है। 

बद्धकोष्ठ में नीम के पंचांग का चूर्ण माशा, गन्धक रसायन 2 रत्ती मिलाकर त्रिफला के क्वाथ के साथ दें। खुजली, द्रुमण्डल, कुष्ठ तथा छोटी-छोटी फुन्सियों के लिए गन्धक रसायन शक्कर (चीनी) और घी में मिलाकर दें धातु विकार में दूध के साथ दें कच्चा पारा या शरीर में प्रवेश किए हुए किसी धातु के विष या उष्णता दोष को दूर करने के लिए गन्धक रसायन 3 रती आँवले के मुरब्बे के साथ दें।

अठारह प्रकार के कुष्ठ विकार, शीतपित, दर्द, व्रण तथा अनेक प्रकार के क्षुद्ररोग भी इसके सेवन से नष्ट हो जाते हैं। धातुओं को शुद्ध कर बढ़ाने में यह श्रेष्ठ रसायन है।


गर्भ चिन्तामणि रस बृहत्

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण भस्म, लौह भस्म, रौप्य भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हरिताल, बंग भस्म, अभ्रक भस्म - ये प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनायें, पश्चात् अन्य सभी भस्मों को एकत्र मिला ब्राह्मी स्वरस या क्वाथ वासा स्वरस, भांगरा स्वरस, पित्त पापड़ा का क्वाथ, दशमूल क्वाथ इनकी क्रम से पृथक्-पृथक् सात-सात भावना देकर दृढ़ मर्दन करें और गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोली बना सुखाकर सुरक्षित रखें। भै. र. (विद्योतिनी टीका)

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम मधु या दूध के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन का विधिवत् उचित अनुपान के साथ प्रयोग करने से गर्भावस्था में गर्भिणी को होने वाले समस्त विकार नष्ट होकर गर्भिणी और गर्भस्थ शिशु का अच्छी प्रकार से पोषण होता है। 

सन्निपात ज्वर को शीघ्र नष्ट करता है, विशेषतया गर्भिणी स्त्री के सन्निपात ज्वर की सर्वश्रेष्ठ, अपूर्व लाभदायक एवं बलदायक औषधि है। इसके अतिरिक्त गर्भिणी को होनेवाले विकार दाह, प्रदर, अरुचि, वमन, अतिसार, दुर्बलता, भ्रम आदि विकार नष्ट होते हैं। 

इस रसायन का प्रथम मास से ही निरन्तर सेवन करते रहने से गर्भस्थ शिशु को उत्तम बल मिलता है, इससे बच्चा बलवान और हृष्ट-पुष्ट होता है कभी-कभी गर्भावस्था में अचानक होने वाला रक्तस्त्राव भी इसको प्रवालपिष्टी के साथ प्रयोग करने से शीघ्र बन्द हो जाता है।


गर्भपाल रस

शुद्ध सिंगरफ, नागभस्म, बंगभस्म, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, सौंठ, पीपल, मिर्च, धनियाँ, स्वाहजीरा, चव्य (चाय), मुनक्का और देवदारु प्रत्येक 11 तोला, लौहभस्म आधा तोला लेकर सबको कोयल (सफेद अपराजिता) के रस में पोंटकर 11 रती की गोलियों बना सुखाकर रख लें। -- र. यो. सा.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम गुडूची-सत्त्व और मधु से या धारोष्ण दूध के साथ अथवा रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

नाग, बंग और हिंगुल के प्रधान उत्पादन से बना हुआ यह रस सगर्भा स्त्री के समस्त विकारों को नष्ट करता है। सूजाक आतशक अथवा दुग्ध-दोष के कारण गर्भपात होने की सम्भावना में मंजिष्ठादि क्वाथ के साथ इसका सेवन करना चाहिए। गर्भिणी के अतिसार, ज्वर, पाण्डु, मन्दाग्नि, मलावरोध, शिरःशूल, अरुचि आदि विकारों में आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग किया जाता है।

गर्भपाल रस गर्भिणी-रोग की प्रसिद्ध दवा है अतएव यह गर्भाशय की अशक्ति या बार- बार गर्भस्राव अथवा गर्भपात होना आदि विकारों में मुख्यतया उपयोग किया जाता है।

जिस स्त्री को गर्भ या सूजाक होने के कारण गर्भाशय कमजोर हो, गर्भ धारण करने में असमर्थ हो, गर्भस्राव या पतन की सम्भावना रहे, उसे गर्भपाल रस के उपयोग से अच्छा लाभ होता है इसमें रक्तशोधक औषधि के साथ गर्भपाल रस देना चाहिए।

मानसिक चिन्ता या हिस्टीरिया आदि दोषों के कारण भी गर्भपात या गर्भस्राव हो जाता है। ऐसी स्थिति में मुनक्का क्वाथ के साथ गर्भपाल रस दें।

उपवंश के कारण गर्भाशय दूषित हो, गर्भ धारण करने में सर्वथा असमर्थ हो जाने से बन्ध्यापन दोष आ गया हो, तो गर्भपाल रस के साथ अष्टमूर्ति रसायन या बंगेश्वर रस मिलाकर देने से उक्त दोष मिट जाते हैं स्त्री की बीजवाहिनी शक्ति कमजोर हो जाने से अथवा जननेन्द्रिय की विकृति से गर्भ धारण नहीं होता हो या गर्म स्थापन ही न होता हो, तो ऐसी स्थिति में बंग भस्म या त्रिवंग भस्म के साथ गर्भपाल रस के सेवन से गर्भस्थापन में सहायता मिलती है।

कभी-कभी गर्भवती स्त्री को गर्भ धारण से लेकर प्रसवावस्था पर्यन्त अनेक तरह के उपद्रव होते रहते हैं। जैसे—भोजन करते ही वमन हो जाना, पेट में अन्न नहीं रहना, चक्कर आना, बड़ाना, कमर में दर्द होना आदि लक्षण होने पर गर्भपाल रस के साथ कामदुधा रस, प्रवाल या स्वर्णमाक्षिक भस्म के साथ देने से बहुत लाभ होता है।

किसी-किसी स्त्री को गर्भ धारण होकर प्रसव भी अच्छी तरह हो जाने के पश्चात् प्रसूतिगृह में ही अनवा प्रसूतिगृह के बाहर होने पर दो-चार महीने बाद संतान की मृत्यु जाती है और यह मृत्यु एक तरह की आदत के रूप में परिणत हो जाती है, जिससे बार-बार सन्तान का मृत्युजन्य दुःख स्त्री को भुगतना पड़ता है यह दोष रज वीर्य की विकृति के कारण अथवा माता के दुग्ध दोष से यकृत् या उदर विकार होने पर होता है चाहे किसी भी दोष से यह विकृति क्यों न हो, गर्भपाल रस के सेवन से सब दोष दूर हो जाते हैं।

इसमें – हिंगुल योगवाही तथा रसायन है नाग और बंग भस्म गर्भाशय पुष्ट करने वाली है। विजात, जीरा तथा मुनक्का ये तीनों पित्तशामक, बल्य और कोष्ठ के क्षोभ को दूर करने वाले हैं। लौह भस्म बलदायक और गर्भाशय की विकृति को नष्ट कर पुष्ट करने वाली है। सफेद अपराजिता – वातवाहिनी नाड़ी को सुधारती है तथा गर्भ स्थापन कर गर्भाशय को पुष्ट करती है। यह मूत्रप्रवर्तक तथा शीतवीर्य है। - औ. गु. ध. शा.


गर्भविनोद रस

सोंठ, कालीमिर्च, पीपल मिलित 3 तोला, शुद्ध हिंगुल 4 तोला, जावित्री 3 तोला, लौंग 3 तोला, स्वर्णमाक्षिक भस्म 2 तोला लेकर प्रथम चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण कर लें। पश्चात् अन्य भस्में एवं हिंगुल मिला जल के साथ मर्दन करें गोली बनने योग्य होने पर 2-2 रत्ती की गोली बना सुखाकर रख लें। भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली दिन में दो बार सुबह-शाम जल या मधु के साथ अथवा मिश्री मक्खन के साथ अथवा गोदुग्ध के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

प्रथम मास से ही इस रसायन का सेवन करने से गर्भावस्था में होनेवाले समस्त विकार जैसे वमन, जी मिचलाना, कण्ठ में दाह होना, ज्वर, अतिसार, अफरा आदि रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। यह औषध उत्तम दीपन- पाचन, गर्भवर्द्धक, गर्भपोषक, गर्भस्थ शिशु एवं गर्भिणी को निरापद बनाये रखने में लाभप्रद है


ग्रहणीकपाट रस

शुद्ध पारा 2 तोला, शुद्ध गन्धक 10 तोला शुद्ध अफीम 4 तोला, कौड़ी भस्म 7 तोला, शुद्ध बच्छनाग विष 1 तोला, कालीमिर्च 8 तोला और शुद्ध धतूरे का बीज 20 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली करें, फिर सब औषधियों को एकत्र मिला जल से खरल कर एक-एक रत्ती की गोलियाँ बना सुखाकर रख लें। र. यो. सा. 

मात्रा और अनुपान

1-2 गोली सफेद जीरे का चूर्ण 1 माशा और मधु के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इसके सेवन से भयंकर अतिसार, संग्रहणी और पुराने अतिसार दूर हो जाते हैं, तथा आमविकार नष्ट हो अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। 

संग्रहणी की सब अवस्था में चाहे वह वातज, पित्तज या कफज जिस दोष से उत्पन्न हुई हो इसका प्रयोग किया जाता है विशेष कर पेट में दर्द हो, बार-बार दस्त लगें और जलन के साथ दस्त हो, दस्त में आँव का अंश आवे तथा मरोड़ के साथ दस्त हों, थोड़ा खून भी मिला हुआ हो तथा दस्त बहुत थोड़ा हो ऐसी अवस्था में ग्रहणी कपाट रस अच्छा काम देता है। 

इसके सेवन से आँव का पाचन हो, अग्नि प्रदीप्त हो जाती है, जिससे पाचन क्रिया ठीक होने लगती है और रक्ताणुओं की वृद्धि हो जलीयांश भाग सूखने लगता है। 

इस रसायन में धतूरे का बीज और अफीम- ये दोनों वेदनाशमक तथा ग्राही होने के कारण शीघ्र लाभ पहुँचाते हैं। इसको शंख भस्म के साथ मिलाकर सेवन करने से आंवजन्य शूल को शमन करने एवं आँव के पाचन करने में विशेष लाभ होता है। पक्वातिसार में इसके प्रयोग से स्तम्भन होता है।


ग्रहणीकपाट रस (दूसरा )

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अतीस, बड़ी हरें, अभ्रक भस्म, यवक्षार, सज्जीखार, सुहागे की खील, मोचरस, बच और शुद्ध भाँग- - समान भाग लेकर प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बना उसमें शेष दवाओं का चूर्ण मिला, जम्बीरी नींबू के रस के साथ खरल कर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। यो. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली शहद, शंख भस्म, घी और मिर्च के चूर्ण के साथ या छाछ के साथ दें। बच्चों को आधी गोली दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन सब प्रकार के अतिसार, ग्रहणी, ज्वर, शूल, अग्निमांद्य, अरुचि और आमवात रोग को नष्ट करता है।

यद्यपि संग्रहणी तथा ग्रहणी रोग के लिए अनेक दवाओं का वर्णन है। उनमें पुरानी ग्रहणी या संग्रहणी के लिए तो पर्पटी कल्प का उपयोग करना उत्तम बतलाया गया है, किन्तु नयी ग्रहणी में तीन प्रकार की दवाओं का उपयोग किया जाता है। यथा - 1- कज्जली (पारा-गन्धक) योग, 2 कज्जली हिंगुल (पारा-गन्धक - हिंगुल) योग और 3- केवल सिंगरफ योग इन तीनों में से आन्त्र दोष को दूर करने के लिए कज्जली और सिंगरफ योग तथा केवल आमाशय के विकार को नष्ट करने के लिए सिंगरफ प्रधान योगों का प्रयोग किया जाता है।

इस रसायन का उपयोग विशेषकर बच्चों के कफ-जन्य अतिसार में किया जाता है। जैसे—दस्त झाग (फेन) दार और सफेद हो, दस्त में अपचित, अन्न गिरे, दस्त की मात्रा अधिक हो, आँत और गुदा की अवलियाँ कमजोर हो जाएँ, जिससे अनजान में भी दस्त हो जाएँ, कभी-कभी वमन भी हो जाये, ऐसी दशा में ग्रहणी कपाट रस देने से शीघ्र लाभ होता है।

किसी विशेष कारण से मानसिक आघात पहुँचने पर पाचक पित्त विकृत हो जाता है, जिससे अन्नादिक ठीक तरह से नहीं पचता ऐसी अवस्था में दस्त पतले होने लगते हैं। इसको शास्त्र में शोकातिसार के नाम से कहा गया है। ऐसा मनुष्य कहीं भी चैन से नहीं बैठ सकता। बार-बार उसकी मानसिक चिन्ता बढ़ती ही जाती है तथा अतिसार रोग में भी वृद्धि होती रहती है। ऐसी अवस्था में ग्रहणी कपाट रस से बहुत फायदा होता है।

इस रसायन में कज्जली जन्तुघ्न (कीटाणु नाशक), रसायन तथा योगवाही है। अतीस बल को बढ़ाने वाला यकृत् के पित्त का स्राव करने वाला, पाचक और ज्वरघ्न है । अभ्रक शक्तिवर्द्धक, रसायन और मानसिक विकार को नष्ट करने वाला है तथा क्षय (राजयक्ष्मा) में भी हितकर है। तीनों क्षार पाचक और यकृत् को उत्तेजित करने वाले हैं। मोचरस संग्राही और स्तम्भक व भाँग संग्राही, दीपक तथा पाचक है। - औ. गु. ध. शा.


ग्रहणी गजकेशरी रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, शुद्ध हिंगुल, लौह भस्म, जायफल, बेलगिरी, मोचरस, शुद्ध बच्छनाग, अतीस, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, धाय के फूल, भाँग, हरें, कैथ का गूदा, नागरमोथा, अजवायन, चित्रक, अनार की छाल, सुहागे की खील, इन्द्रजी, शुद्ध धतूरे के बीज और तालमखाना-- प्रत्येक दवा समान भाग तथा अफीम इन सबका चौथाई भाग लें। प्रथम पारा गंधक की कज्जली बना लें, उसके बाद इन औसधियों का चूर्ण मिला कर धतूरे के पत्र स्वरस में खरल करके १-१ रत्ती की गोलियां बना कर सूखा लें। -- यो. र

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली जायफल के पानी और मधु के साथ अथवा छाछ के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इसके सेवन से रक्त शूल और आमयुक्त ग्रहणी, पुराना अतिसार और पीडायुक्त भयंकर विसूचिका (हैजा) नष्ट होती है।
संग्रहणी की प्रकोप अवस्था में इस रसायन का उपयोग किया जाता है विशेष कर वातज संग्रहणी में दर्द के साथ बार-बार अधिक दस्त होना, अन ठीक से न पचना, अन्न का पाक खट्टा होना, शरीर की त्वचा रुक्ष हो जाना, कण्ठ और मुख सूखना, दृष्टिमांध, कानों में शब्द (सांय-सांय आवाज) होना, पसली, जंघा और पेडू में दर्द होना, कभी-कभी दस्त की वृद्धि के साथ यमन भी होने लगना, जिससे लोगों को हैजे की सम्भावना हो जाय, हृदय में दर्द हो, शरीर दुर्बल हो जाय, जीभ का स्वाद जाता रहे गुदा में कतरन जैसी पीड़ा उत्पन्न हो, द्रव पदार्थ खाने की इच्छा हो, मन में ग्लानि, अन्न पचने के बाद पेट फूल जाय और भोजन करने पर मन की स्वस्थता का अनुभव हो, पेट में गोला-सा अनुभव हो, प्लीहा वृद्धि की आशंका हो, तो ग्रहणी गजकेशरी रस का उपयोग करने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। 

यह रसायन उत्तम पाचक, दीपक तथा स्तम्भक है, अतिसार, प्रवाहिका एवं ग्रहणी में इन्हीं तीनों गुणों की प्रधान आवश्यकता होती है अतः इन विकारों में इसके सेवन से बहुत अच्छा उपकार होता है।


गुल्मकालानल रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध टंकण, ताम्र भस्म, शुद्ध हरताल प्रत्येक 2-2 तोला, यवक्षार 10 तोला नागरमोथा, सौंठ, पीपल, काली मिर्च, गजपीपल, हरें, बच और कूठ का चूर्ण प्रत्येक 11 तोला लें प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बना पश्चात् अन्य औषधियाँ मिला कर पित्तपापड़ा, नागरमोथा, सौंठ, अपामार्ग और पाठे के क्वाथ की पृथक पृथक् 1-1 भावना देकर खरल में खूब पोटें फिर 4-4 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। --भै. र

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम हरे के क्वाथ के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन गुल्म रोग में प्रयोग किया जाता है। वात-प्रधान गुल्म रोग में तो इससे आश्चर्यजनक लाभ होता है।
गुल्म के कई भेद होते हैं या रुग्णावस्था में आँतों के भीतर मलों का ग्रन्थि रूप में हो जाना तथा आँत के भीतर वायु भर कर कभी ऊपर तो कभी नीचे की ओर गाँठ सदृश बन कर संचार करना यह भी गुल्म का ही एक भेद है पेट के अन्दर पतली-पतली मांस-नसों का एक दूसरे से मिलकर गांठ-रूप में बन जाना या केवल अफरा आदि के कारण गाँठ उत्पन्न होने को भी गुल्म कहते हैं। यही गुल्म विशेष प्रचलित है और गुल्म रोग में प्रायः लोग इसी गाँठ का अनुभव भी करते हैं। 

इसके अतिरिक्त एक "रक्तगुल्म" भी होता है, जो अक्सर स्त्रियों को होता है और इसका उत्पत्तिस्थान बीजाशय या गर्भाशय है। अतएव इसकी चिकित्सा के लिए शास्त्रकारों की आज्ञा है कि "मासे व्यतीते दशमे चिकित्स्यः" अर्थात् दशम मास बीतने पर इसकी चिकित्सा करें। इसके सब लक्षण प्रायः पैत्तिक गुल्म की तरह होते हैं।

यह रसायन चालिक (वात प्रधान) गुल्म में अच्छा काम करता है। वातज गुल्म की गति कभी नाभि की ओर तो कभी बस्ति की तरफ होती है और कभी-कभी पसली की तरफ भी होती है। गुल्म कभी बड़ा, कभी छोटा मालूम होना, दर्द भी कभी कम कभी ज्यादा, मलावरोध, अपानवायु का भी अवरोध होना, गला और मुख का सूखना, शरीर का वर्ण नीला अथवा लाल हो जाना, शीतज्वर, हृदय, पसली, कंधा और मस्तिष्क में पीड़ा होना, खाली पेट में गुल्म (गाँठ का प्रकोप होना, और भोजन करने पर शान्त हो जाना इत्यादि लक्षण होते हैं। ऐसी अवस्था में गुल्म कालानल रस का प्रयोग गोघृत के साथ करने से फायदा होता है।

पित्तगुल्म की प्रारम्भिक अवस्था में अर्थात् जब तक ज्वर, प्यास, मुख और अंगों में लाल आदि की उत्पत्ति न हुई हो, तब तक दूषित पित्त को मल द्वारा निकालने के लिये विरेचन रूप में इस रसायन का प्रयोग किया जाता है।

इसमें कज्जली योगवाही और रसायन है ताम्र भस्म तीक्ष्ण, उष्णवीर्य और क्षार गुण के कारण कफन है। क्षार कफन और वातानुलोमक है। नागरमोथा आमपाचक है। पिप्पली रसायन और पाचक है। सोंठ व मरिच दीपक पाचक है हरीतकी सूक्ष्म विरेचक है पाठा मूत्रल और कफघ्न है। - औ. गु. ध. शा.

कफज गुल्म में गोमूत्र के साथ देने से यह रसायन गुल्म को गलाने या पाचन कर निकालने में अच्छा कार्य करता है पित्तज गुल्म में इस रसायन को शंख भस्म के साथ मिलाकर नींबू की सिकंजी के साथ देने से गुल्म का छेदन और भेदन करता है साथ ही पित्त को भी प्रकुपित नहीं होने देता है।


गुल्मकुठार रस

नाग भस्म, वङ्ग भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलौह भस्म प्रत्येक समान भाग और ताम्र भस्म सबके बराबर लें, इन्हें जम्बीरी नींबू के रस में घोंटकर 1-1 रती की गोलियाँ बना छाया में सुखा कर रख लें। --यो. र

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम अदरक-स्वरस, सज्जीखार, यवहार चूर्ण के साथ अथवा शहद के साथ दें।

गुण और उपयोग

यह रसायन गुल्म, आमजन्य विकार, हृदय के दर्द, पसली के दर्द और उदर शूल आदि रोगों को नष्ट करता है। यद्यपि इसमें पारद नहीं है, किन्तु रासायनिक भस्मों के यौगिक प्रयोग होने से इसका रसप्रकरण में पाठ है।

ज्यादा शोक चिंता आदि करने या मन में आघात पहुंचने से पाचक पित्त कमजोर हो जाता है और पचन क्रिया में गड़बड़ी होने लगती है फिर मन्दाग्नि हो जाती है। मन्दाग्नि हो जाने से याद अकुपित हो गुल्म रोग उत्पन्न कर देता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाना, किसी से बात करने की इच्छा न होना, मानसिक चिन्ता में वृद्धि, शरीर कान्तिहीन हो जाना, अपनी जिन्दगी से निराश हो जाना, दुर्बलता, मुख की कान्ति बदल जाना आदि लक्षणों से युक्त रोगी को इसका प्रयोग करना चाहिए।

पित्त प्रधान गुल्म में

ज्वर, प्यास की अधिकता, जल पीने पर तुरन्त फिर जल पीने की इच्छा बनी रहे. मुख और सम्पूर्ण देह में ललाई, पसीना ज्यादा आना, भोजन पचने की अवस्था में दर्द होना, गुल्म को छूने से विशेष दर्द होना, कभी-कभी गुल्म के दर्द से बेहोश हो जाना इत्यादि उपद्रव होने पर गुल्मकुठार रस को नागकेशर, इलायची, सोंठ और पीपल के क्वाथ के साथ दें। इससे पित्त की शान्ति हो उसके उपद्रव भी शान्त हो जाते हैं और गुल्म भी गल जाता है।

रक्तज गुल्म में 


भी इस रसायन का प्रयोग किया जाता है। रक्तज गुल्म नवीन प्रसूता स्त्री के अपथ्य करने अथवा अपक्व गर्भपात होने या ऋतुकाल में अपथ्य भोजन करने से वायु प्रकुपित होकर उस स्त्री के रक्त (जो ऋतु के समय निकलने वाला था) को गुल्मरूप (गाँठ के रूप) में बना देता है। इसके सब लक्षण पैत्तिक गुल्म की तरह ही है। विशेषकर यह गुल्म एक जगह स्थिर रहता है मुख से पानी निकलना, मुंह पीला पड़ जाना, स्तन का अप्रभाग काला हो जाना इत्यादि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे गर्भ का संदेह होने लगता है। क्योंकि गर्भावस्था में भी उपरोक्त लक्षण उत्पन्न होते हैं, किन्तु गर्भ में निम्नलिखित लक्षण विशेष होने से गर्मज्ञान हो जाता है। 

यथागर्भ चार-पाँच महीने बाद इधर-उधर चलने लगता है और गुल्म एक जगह स्थिर रहता है तथा गुल्म बस्ति के समीप एक जगह चिपका हुआ रहता है, गर्भ के अङ्ग प्रत्यक्षों का चालन (स्फुरण) होता है, गुल्म पिण्डाकार रहता है। इन भेदों से गुल्म और गर्भ के अन्तर की परीक्षा करने में बहुत कुछ सहायता मिलती है। रक्तगुल्म का निर्णय हो जाने पर गुल्मकुठार रस का प्रयोग करना बहुत लाभप्रद होता है।

रक्त गुल्म की चिकित्सा दस माह बीतने पर करने को बताया है। कोई इसका आशय गर्भ से समझते हैं, किन्तु यह समझना उचित नहीं है क्योंकि कभी-कभी ग्यारह महीने के बाद भी प्रसव होते देखा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सिर्फ गर्भ के समय व्यतीत करने के आशय से ही नहीं लिखा गया है। इसका आशय यह है कि गुल्म जब पक्वावस्था में आ जाये तब दवा दें। इसमें गुल्मकुठार रस किसी सौम्य औषध उशीरासब सारिवाद्यासव' अथवा अन्य सौम्य अनुपान के साथ प्रयोग करने से फायदा होता है। 

पैत्तिक अम्लपित्त में

जब पेट में गुड़-गुड़ आवाज हो, खट्टी डकार आती हो, जलन हो, मलावरोध हो, बार- बार अम्लपित्त के उपद्रव हों, ऐसी हालत में गुल्मकुठार रस का सेवन अदरक रस शहद तथा सज्जीखार एवं यवक्षार के साथ करना चाहिए।
इस रसायन में नाग भस्म बलदायक और रक्त प्रसादक है। बंग भस्म गर्भाशय को बल देता तथा गर्भाशय में दूषित रक्तादि को अनुलोमन करके बाहर निकालता है। अभ्रक भस्म- सब धातुओं का परिपोषण करता है और रसायन व योगवाही है। कान्त लौह भस्म धातुओं को नियमित करता तथा रक्त प्रसादक और शक्तिवर्द्धक है। ताम्र भस्म तीक्ष्ण, व्यवायी (शरीर में शीघ्र फैलनेवाला) और विकाशी है। जम्बीरी नींबू का रस - दीपक पाचक तथा सूक्ष्म है। - औ. गु. ध. शा.


चतुर्भुज रस

रस सिन्दूर 2 तोला, स्वर्ण भस्म, शुद्ध मैनशिल, कस्तूरी, शुद्ध हरिताल- प्रत्येक द्रव्य 1-1 तोला लेकर सबको एकत्र मिला ग्वारपाठे के रस में एक दिन तक दृढ़ मर्दन करके गोला बनावें पश्चात् उस गोले को एरण्ड के पत्तों में लपेट कर धान के ढेर में तीन दिन तक दबा रहने दें तीन दिन के पश्चात् निकाल कर एरण्ड के पत्तों को पृथक् निकाल, गोला को मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोली बना छाया में सुखाकर सुरक्षित रखें। -- र. सा. सं.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली दिन में दो बार सुबह-शाम शहद के साथ चटाकर ऊपर से त्रिफला क्वाथ या मांसादिक्वाथ पिलावें या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का उचित अनुपान के साथ प्रयोग करने से वात संस्थान की विकृति से उत्पन्न सभी रोगों में उत्कृष्ट लाभ होता है। अग्नि बलानुसार इस रसायन के प्रयोग से बलीपलित विकार नष्ट होकर शरीर सुदृढ़ और सुन्दर बनता है।

इसके अतिरिक्त अपस्मार, ज्वर, खाँसी, शोष, मन्दाग्नि, क्षयरोग, हस्तकम्प, शिरःकम्प एवं सर्वांग कम्प, इन रोगों को विशेषतः नष्ट करता है और वात-पित्त तथा कफोत्थित रोगों को नष्ट करता है जो रोग समस्त प्रकार की औषधियों तथा वमन विरेचन आदि पंचकर्म योग और मन्त्र तथा अन्य विविध उपचार आदि से नष्ट नहीं हुए हैं, ऐसे असाध्य रोगों को भी यह रस निश्चय ही नष्ट करता है।

इस रसायन में उत्तेजक, आक्षेप निवारक, रसायन और सेन्द्रिय विषनाशक गुण है। अतः इस रस का वातवाहिनी नाड़ियों और वात केन्द्र पर तत्काल प्रभाव होता है। इस कारण से यह रस उन्माद, अपस्मार, मूर्च्छा, हिस्टीरिया (अपतन्त्रक) और इतर वात प्रकोपजनित व्याधियों को नष्ट करता है। इससे मानसिक प्रसन्नता मिलती है। उन्माद, हिस्टीरिया आदि में इस रस का जटामांसी क्वाथ या ब्राह्मी अर्क या शंखुपष्पी स्वरस या शर्बत के साथ सेवन कराने से अपूर्व चमत्कारी लाभ होता है।

गर्भाशय में दोष उत्पन्न होने की दशा में इस रस के सेवन के साथ शर्बत गुलवनप्सा दिन में दो बार पिलाने से उक्त दोष नष्ट हो जाते हैं। हिस्टीरिया, अपस्मार आदि में इस औषधि के सेवन के प्रथम दिन से ही अच्छा लाभ दृष्टिगत होने लगता है तथा निद्रा भी अच्छी आने लगती है और दौरे का वेग कम हो जाता है।

हृदय दौर्बल्य, शक्तिपात, श्वास कृच्छ्रता, मूर्च्छा और सन्निपात में शीतांग की दशा में अदरक रस और शहद के साथ देने से तत्काल लाभ होता है, रोगी की मूर्च्छा (बेहोशी) नष्ट होकर शीघ्र उष्णता आ जाती है और हृदय व्यवस्थित रूप से कार्य करने लगता है। इसी प्रकार यह रस प्रसूता के आक्षेप और बच्चों के धनुर्वात को भी नष्ट करने में उत्कृष्ट लाभकारी है।

कण्ठ नलिका, आमाशय, अन्त्र, मूत्रनलिका, पित्तनलिका और महाप्राचीरा पेशी आदि स्वाधीन मांस पेशियों का आक्षेप होने पर इस रसायन के सेवन से सत्वर चमत्कारी लाभ होता है। महाप्राचीस प्रभावित होने से हिक्का रोग में अच्छा लाभ होता है। इन रोगों में जटामांसी के क्वाथ के साथ देना विशेष लाभकारी है।

हिस्टीरिया, जीर्णपक्षाघात, अर्दित, गृध्रसी और कटिवात आदि वातजन्य विकारों में निर्गुण्डी-पत्र-स्वरस और शहद के साथ देने से और ऊपर से रास्नादि अर्क पिलाने से अच्छा लाभ होता है। वृद्धावस्था की निर्बलता या व्याधि जन्य गात्रकम्प, शिरःकम्प आदि पर त्रिफला चूर्ण और शहद के साथ देने से शीघ्र लाभ होता है।

विद्याध्ययन, मानसिक श्रम, चिन्ता, अधिक जागरण आदि कारणों से शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जाता है और अग्निमांद्य, कास, मस्तिष्क में भारीपन, जीर्ण ज्वर, कोष्ठबद्धता, हस्तपाद मर्दन, अनुत्साह, बेचैनी, नाड़ी क्षीणता, स्वप्नदोष होना, वीर्य की निर्बलता आदि लक्षण होते हैं। ऐसी दशा में त्रिफला, पीपल और शहद के साथ इस रस के सेवन से अग्नि प्रदीप्त होकर मलावरोध नष्ट हो जाता है और मानसिक प्रसन्नता की प्राप्ति होकर मस्तिष्क बलवान हो जाता है तथा रोगी मनुष्य बलवान, पुष्ट और नीरोग हो जाता है। कोष्ठबद्धता न होने की दशा में ब्राह्मीघृत या ब्राह्मी अर्क के साथ सेवन कराना विशेष लाभप्रद है।

राजयक्ष्मा की द्वितीय अवस्था में यह रस अच्छा उपकारक है, प्रथमावस्था में भी जब शुष्क कास हो, उस दशा में इस रस का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि कस्तूरी युक्त औषधि से किसी-किसी रोगी के कण्ठ में शुष्कता की वृद्धि होकर श्वास नलिका में उत्तेजना पैदा हो जाती है एवं क्षय की द्वितीयावस्था में शुष्क कास न रहने पर कफ बढ़ने लगता है। उस दशा में इस रस का सेवन वचा चूर्ण 1 रत्ती, और पान के रस के साथ सेवन कराने से क्षय के कीटाणु नष्ट होते और कफ सरलता से बाहर निकल जाता है एवं ज्वर का निवारण होकर पाचन क्रिया प्रबल हो जाती है और शनैः-शनैः रोगी को शान्ति मिलने लगती है। इस रस में स्वर्ण भस्म का मिश्रण होने से यह हृदय को अपूर्व बल प्रदान करता है तथा रक्त- प्रसादन कार्य में भी अच्छी सहायता करता है। 

कीटाणुनाशक और सेन्द्रिय विषनाशक है, त्वचागत पित्तविकारों का शमन करता है स्वर्ण में वृष्य गुण अधिक होने के कारण नपुंसकता को भी नष्ट करता है।

रससिन्दूर रसायन, उत्तेजक, कफनाशक, हृद्य और कीटाणुनाशक है। स्वर्ण भस्म- शीतवीर्य, रसायन, हृद्य, बुद्धिवर्धक, वृष्य, बृंहण, कीटाणुनाशक एवं विषनाशक है। मैनशिल हरताल उत्तेजक, कफ वातनाशक, आक्षेपघ्न, कीटाणुनाशक एवं विषनाशक है। कस्तूरी आक्षेपहर, उत्तेजक, निद्राप्रद है। ग्वारपाठा उदरशोधक है।
नोट
इस रस में रससिन्दूर, मैनशिल, हरताल आदि उग्र औषधियाँ होने के कारण पित्त प्रधान रोगों तथा उष्ण प्रकृति के रोगियों को इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक मोती पिष्टी या प्रवालपिष्टी आदि सौम्य औषधियों के साथ मिलाकर करना चाहिए।
हृदय की गति बढ़ जाने और मस्तिष्क में रक्त वृद्धि होने की दशा में इस रस का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए


चतुर्मुख रस

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म और अभ्रक भस्म 4-4 तोला तथा स्वर्ण भस्म 1 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना उसमें अन्य भस्में मिला, घृतकुमारी-रस में घोंटकर गोला बना, धूप में सुखा, एरण्ड पत्र में लपेट, सूत से बाँधकर धान की कोठी में तीन दिन तक रहने दें। चौथे दिन उसमें से निकाल कर महीन पीस कर 1-1 रती की गोली बनाकर सुखाकर रख लें। मै. र.

मात्रा और अनुपान

1-2 गोली सुबह-शाम त्रिफला चूर्ण 11 माशे से 3 माशे और शहद 6 माशे से 1 तोला में मिलाकर सेवन करें।

गुण और उपयोग

स्वर्ण, अभ्रक, कज्जली आदि के योग से बननेवाली यह दवा वातज रोगों के लिये बहुत फायदेमन्द है। 

मूर्च्छा हिस्टीरिया, मृगी और उन्माद रोग पर इस दवा का अच्छा असर होता है। 

हृदय की बीमारियों को दूर करके हृदय को मजबूत करना इस रसायन का खास गुण है। 

क्षय, खाँसी, अम्लपित्त, पाण्डु और प्रसूत ज्वर या प्रसूत के बाद होनेवाली कमजोरी में इस दवा का प्रयोग करके लाभ उठाना चाहिए। यह पौष्टिक और रसायन भी है। इसीलिये किसी बीमारी के बाद की कमजोरी या साधारणतया होनेवाली कमजोरी में इस दवा से अच्छा लाभ होता है।

क्षय रोग की सब अवस्था में

चतुर्मुख रस का उपयोग किया जाता है। क्षय रोग में जब ज्वर की गर्मी बढ़ी हुई रहती हैं, तब क्षय रोग नाशक दवा देने से कुछ विचार भी करना पड़ता है कि कहीं गर्मी और भी न बढ़ जाय, किन्तु चतुर्मुख रस के लिए यह प्रश्न ही नहीं उठता है। ज्वर की गर्मी बढ़ी हुई हो या मन्द हो गयी हो, प्रत्येक अवस्था में इसका उपयोग कर सकते हैं।

क्योंकि इसमें स्वर्ण क्षयोत्पादक कीटाणुओं को नाश करनेवाला तथा अभ्रक धातुओं की निर्बलता दूर कर बलवान बनानेवाला है। यही दो गुण इस रसायन में प्रधान हैं। लौह आदि शक्तिवर्द्धक पदार्थों का भी सम्मिश्रण इसमें है।
चतुर्मुख रस का सबसे विशेष प्रभाव ग्रहणी, आन्त्र बड़ी आँत और आमाशय आदि स्थानों पर होता है। 

अतएव क्षयोत्पादक कीटाणुओं द्वारा उत्पन्न विषाक्त गैस से जब आँतें दूषित हो निर्बल होने लगतीं और अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं, तब चतुर्मुख रस के प्रयोग से लाभ होता है। इस रसायन का प्रधान कार्य शारीरिक निर्बलता दूर कर रस रक्तादि धातुओं को पुष्ट करते हुए शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाना है।

अधिक शोक-चिन्ता आदि कारणों से मानसिक क्षोभ हो जाता है। इससे पाचक पित्त कमजोर होकर मन्दाग्नि तथा आमाशय की क्रिया शिथिल हो जाती है ऐसी हालत में जो कुछ भी खाया पिया जाता है सब आमाशय में यथावत् रह जाता है। 

भूख भी नष्ट हो जाती है, पेट भारी बना रहता है, अन्न में अरुचि, जी मिचलाना, पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द होना, शरीर कमजोर हो जाना, रस-रक्तादि धातु क्रमशः क्षीण होना आदि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी हालत में चतुर्मुख रस 1 गोली, बड़ी हर्रे का चूर्ण 3 माशे के साथ मिला कर शहद (मधु) से दें क्योंकि इसका असर पचनेन्द्रियों पर पड़ता है अतः यह सर्वप्रथम पाचकपित्त को उत्तेजित कर. मन्दाग्नि दूर करते हुए उसे प्रदीप्त करता है, जिससे अन्नादिकों की पचन क्रिया ठीक होने से रस- रक्तादि धातु भी अच्छी तरह बन कर शरीर क्रमशः हृष्ट-पुष्ट हो जाता है।

जठराग्नि मन्द हो जाने से अन्नादिक का पचन अच्छी तरह नहीं होता। इसका प्रभाव पक्वाशय पर भी पड़ता है पक्वाशय शिथिल हो अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, जिससे अन्नादिक के जल भाग और किट्ट भाग का विभाजन भी ठीक-ठीक नहीं हो पाता। 

ऐसी अवस्था में पेट भारी मालूम पड़ना, जी मिचलाना, पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द, कुछ ज्वर भी हो जाना, भोजन करने की इच्छा न होना, अन्न में अरुचि तथा यकृत् अशक्त होने से पित्तोत्पत्ति भी कम होती है। कभी-कभी अतिसार भी हो जाता है। रोगी कान्तिहीन हो जाता है और उसकी बोलने की शक्ति भी घट जाती है, ऐसे पित्तजन्य लक्षणों में चतुर्मुख रस के उपयोग से बहुत फायदा होता है।

कभी-कभी आँतों की कमजोरी से अन्न सम्यक् रूप से पचित न होकर कुछ अपचित रूप में शेष रह जाता है। यह अपचित अन्न क्रमशः संचित होने लगता और इसकी वजह से अनेक तरह के विकार उत्पन्न हो जाते हैं जैसे पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द होना, पेट भारी बना रहना, बद्धकोष्ठता, अपान (अधो) वायु का रुक जाना, रोगी का उदास और बेचैन रहना- ऐसी अवस्था में भी इस रसायन का उपयोग करना चाहिए।

पाचक पित्त की निर्बलता के कारण अन्नादिकों का पाचन ठीक न होने पर रसादि धातु भी अच्छी तरह से नहीं बन पाती और धीरे-धीरे रस रक्तादि धातुएँ कमजोर होने लगती हैं। ऐसी हालत में रोगी कमजोर, कान्तिहीन तथा उदास रहने लगता है। इन दोषों को दूर कर धातु पुष्टि के लिए चतुर्मुख रस का उपयोग करना अच्छा है।

क्षय रोग की प्रारम्भिक अवस्था में

पित्त प्रकोप के कारण आँख, हाथ, पैर, छाती तथा पसली आदि में जलन होना, शरीर में दर्द तथा सर्वांग में दाह आदि लक्षण होने पर चतुर्मुख रस बहुत कम मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। साथ में प्रवाल चन्द्रपुटी का भी सम्मिश्रण कर देने से बहुत उत्तम और शीघ्र लाभ होता है।

प्रमेह रोग में

मन्दाग्नि होने के कारण ज्यादे आराम से बैठने, परिश्रम नहीं करने, बराबर बैठे रहने आदि कारणों से प्रमेह रोग होता है। इसके प्रारम्भ में मूत्र (पेशाब) अधिक होता, प्यास ज्यादा लगती, पानी पी लेने पर तुरंत फिर पानी पीने की इच्छा होती, कमजोरी बढ़ने लगती है, हाथ- पैरों में जलन, पसीना बहुत आना आदि लक्षणों में चतुर्मुख रस का उपयोग करने से शीघ्र ही लाभ होता है।

इस रसायन में
कज्जली योगवाही और रसायन है लौह और अभ्रक शक्तिवर्द्धक तथा धातुओं को पुष्ट करनेवाला है, सुवर्ण राजयक्ष्मा के कीटाणुओं को नाश करने वाला, शक्तिवर्द्धक एवं रक्त को प्रसन्न करने वाला है। भावना द्रव्य घृतकुमारी रस अग्नि दीपक, पाचक, बलवर्द्धक, रसायन और पुष्टिकर है। - औ. गु. ध. शा.

इस रसायन के सेवन से कठिन वात रोगों एवं ज्ञानवाही तन्तुओं की निर्बलता, मस्तिष्क- विकार, अपस्मार, उन्माद, अपतन्त्रक (हिस्टीरिया) आदि विकारों में बहुत उत्तम लाभ करता है।



चन्द्रकला रस

शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म 1-1 तोला, शुद्ध गन्धक 2 तोला, मोतीपिष्टी 2 तोला, कुटकी, गिलोय सत्व पित्तपापड़ा, खस, छोटी पीपल, श्वेत चन्दन, अनन्तमूल, वंशलोचन - प्रत्येक का कपड़छन चूर्ण 11 तोला लेवें प्रथम पारा गन्धक की काली करें, पीछे उसमें भस्मे तथा अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिला कर नागरमोथा, मीठा अनार, दूध, केवड़ा, कमल, सहदेई, शतावरी, पित्तपापड़ा इनका क्वाथ या स्वरस बना प्रत्येक की 1-1 भावना और मुनक्का क्वाब की 7 भावनाएँ दें। प्रत्येक भावना में 1-1 दिन मर्दन करें और छाया में सुखा कर पुनः दूसरी भावना दें अन्त में एक तोला कपूर मिला चने के बराबर गोलियाँ बना छाया में सुखा कर रख लें। --सि.यो.सं.

वक्तव्य

मूल ग्रन्थ पाठ में वंशलोचन के साथ गोली बनाने का उल्लेख है, किन्तु उसमें परिणाम कम-बेशी हो जाता है, अतः कुटकी आदि के समान ही 1 तोला वंशलोचन भी मिलाकर पश्चात् भावनाएँ देकर गोली बनाने में वंशलोचन के गुणों में भी विशेष वृद्धि हो जाती है, जिससे औषधि में सौम्य गुणों की अभिवृद्धि होती है।

मात्रा और अनुपान

से 2 गोली सुबह-शाम ठंडा अशोकारिष्ट या पेठे के स्वरस से दिन में दो बार दें।

गुण और उपयोग

वाडिमावलेह, अनार का रस, उशीरासंव, 
यह रसायन - समस्त पित्तज और वात-पित्तज रोगों का नाशक तथा आन्तरिक एवं बाह्यदाह को शान्त करनेवाला है शरद् ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु में यह विशेष उपयोगी है। 

यह रस ज्वर, अन्तर्वाह, प्यास की अधिकता, जलन, तापमान की अधिकता, स्वेदाधिक्य, रक्तचाप वृद्धि (HIGH BP), हृदय की दुर्बलता, घोर सन्ताप, भ्रम, मूर्च्छा, स्त्रियों का श्वेत प्रदर व रक्त प्रदर, रक्त-पित्त का यमन और मत्रकच पाण्डु, कामला रोग का नाश करता है। 

चन्द्रकला रस का विशेष प्रभाव रक्तवाहिनी नाड़ियों  तथा रक्तसंचालिनी क्रिया पर होता है। रक्त में जब दूषित पित्त मिल जाता है तब रक्त का दबाव बढ़ जाने से भीतर जलन होना, शरीर के ऊपरी भाग में भी गर्मी मालूम पड़ना, चक्कर आना, मूर्च्छा होना, रक्त विकृति तथा रक्तवाहिनी नाड़ियाँ कमजोर हो अनेक प्रकार के उपद्रव पैदा कर देती हैं ऐसी अवस्था में रक्तवाहिनी नाही, दूषित पित्त तथा रक्त को सुधारने के लिए चन्द्रकला रस का प्रवाल चन्द्रपुटी के साथ मधु में मिला कर या मौसम्बी रस के साथ उपयोग करना बहुत गुणकारी है। 

पैत्तिक (पित्तजन्य) मूत्रकृच्छ्र या मूत्राघात में

जलन के साथ थोड़ा पेशाब होना, पेट में दर्द, मूत्रनली में दाह तथा अन्तर्वाह होना- ऐसी स्थिति में चन्द्रकला रस का उपयोग यवक्षार और मिश्री चूर्ण के साथ करने से विशेष लाभ होता है। मन्दाग्नि के कारण अमाश्य में कच्चा (अपरिपक्व अन्न) रह जाने से कुछ दिनों के बाद उसमें विषाक्त गैस उठती है और इसका ऊर्ध्वगमन होता है। अतएव मस्तिष्क में भी इसके विकार का असर पहुंचता है, जिससे कभी-कभी चक्कर, बेहोशी आदि उपद्रव हो जाते हैं। यह विशाक्त गैस (वाष्प) रक्त को दूषित कर ज्वराविक उपद्रव भी उत्पन्न कर देती है। इन उपद्रवों को दूर करने के लिए चन्द्रकला रस का त्रिफला क्वाथ के साथ उपयोग किया जाता है।

रक्तचाप (रक्त दबाव ) में | (HIGH BP)

जब पित की तीक्ष्णता के कारण रक्त में उफान उत्पन्न होता है, तब रक्त ऊपर की ओर चलता है, जिसमें निम्नलिखित लक्षण होते हैं। यथा दोनों आंखें लाल हो जाना, मुँह लाल वर्ण और कुछ गंभीर-सा हो जाना, मस्तिष्क की शिराये विशेष कर कपाल पर रक्त की मोटी- मोटी शिराये उभर आना, दाह और चक्कर उत्पन्न होना, अण्ट सण्ट बोलना, ज्वर हो जाना, रक्तवाहिनी शिराओं का मोटा हो जाना आदि इस तूफानी रक्त के दौरे के लिए चन्द्रकला रस को मोती पिट्टी के साथ देने से बहुत सरलता के साथ नीचे उतार देता है तथा पित्त को शान्त करते हुए दूषित रक्त को भी सुधार देता है।

पोल्वण (पित्ताधिक्य) सन्निपात ज्वर में

ज्वर की गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि रोगी बर्दास्त नहीं कर सकता। कभी-कभी इससे रोगी बेहोश भी हो जाता है आँखें सुख (लाल) हो जाती है, कपाल की नसें तन जातीं और खून उभर आने से दर्द होने लगता है, जिससे रोगी बार-बार गर्दन चलाता रहता है। 
बार-बार गर्दन चलाने से कुछ आराम अनुभव होता है सिर का दर्द इतना तेज होता है मानों कोई हथौड़ा से मार रहा हो या भाता से खोद रहा हो। रोगी व्याकुलता से बोलने में भी असमर्थ हो जाता है। ऐसी भयंकर अवस्था में सन्निपात की जो उचित दवा हो वह तो करें ही किन्तु उसके साथ चन्द्रकला रस भी सारिवादिहिम या पर्यटादि क्वाथ को हिम विधि से बना कर उसके साथ देते रहने से इन बड़े हुए दोषों को शीघ्र शान्त कर देता है।


रक्तस्त्राव

शरीर में गर्मी विशेष बढ़ जाने से देह में जलन, सिर में दर्द तथा आँखें लाल होकर नाक-मुंह आदि से रक्त स्राव होने लगता है गर्मी के कारण रक्त बिल्कुल पतला हो जाता है। कभी-कभी यह नाव रुकना कठिन हो जाता है। ऐसे लक्षण होने पर चन्द्रकला रस 1 गोली, पीपल की लाख रत्ती प्रवास चन्द्रपुटीरती मिश्री 11 माशे में मिला दूध के साथ दे ऊपर से उशीरासव या वासारिष्ट बराबर जल मिला कर पिलायें।

राजयक्ष्मा की दूसरी अवस्था 

में खाँसी विशेष हो, ज्वर की मात्रा भी अधिक हो, रक्त- वमन हो, छाती में दर्द, कमजोरी बराबर बढ़ती ही जाय ऐसी अवस्था में रक्तस्त्राव को रोकना तथा केवल रोगी की शक्ति की रक्षा करना प्रथम कर्तव्य होता है। इसके लिए चन्द्रकला रस 1 गोली, प्रवाल चन्द्रपुटी रसी गिलोय सत्व 4 रती में मिलाकर दाडिमावलेह अथवा शर्बत अनार के साथ देने से पूर्ण फायदा होता है।

रक्तपित्त में

पित्त की तीक्ष्णता के कारण रक्तवाहिनी नाड़ियों की श्लैष्मिक कला विकृत होकर फूट जाती है, फिर उसके द्वारा रक्त बहने लगता है। यह रक्त मुंह और नाक के मार्ग से निकलता है। यह रोग कभी स्वतंत्र रूप से और कभी उपद्रव रूप से भी हो जाता है। यदि इस रोग के साथ उदर में बेदना, दर्द होकर वमन द्वारा रक्त गिरना, साथ ही देह में जलन, प्यास, पेट में जलन आदि पित्त-प्रकोपजन्य लक्षण हो तो चन्द्रकला रस का वासा, दूर्वा, कुष्माण्ड, आंवला इनमें से किसी एक के स्वरस तथा मिश्री में मिला कर उपयोग अवश्य करें, इससे बहुत फायदा होता है।

रक्तप्रदर में

जैसे पुरुष वर्ग में आजकल प्रतिदिन प्रमेह तथा शुक्र-विकार की वृद्धि होती जा रही है, उसी प्रकार श्री वर्ग में भी रक्त प्रदर, श्वेत प्रदर, अत्यार्तव रजः कृच्छ्रता आदि व्याधियों की बाढ़-सी आ गयी है। स्त्रियों के गर्भाशय, बीजकोष या अपत्यपथ (योनि) में किसी प्रकार की विकृति के कारण दर्द के साथ मासिक-धर्म होने या विशेष मात्रा में रजः स्राव होने से रक्त प्रदर आदि रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। इसमें भी पित्त की तीक्ष्णता के कारण रक्त विकृत हुआ रहता है। अतः हाथ-पाँव में जलन, शरीर कमजोर होते जाना उठने-बैठने में आंखों के सामने चिनगारियाँ छूटना, चक्कर या अन्धेरी आना, भूख कम लगना आदि उपद्रव होते हैं ऐसी स्थिति में चन्द्रकला रस और पीपल की लाख का चूर्ण के साथ, अशोक की छाल के क्याम अथवा अशोकारिष्ट के साथ (बराबर जल मिलाकर) देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। 

पैत्तिक (पित्तजन्य) प्रमेह में

पित्त से उत्पन्न होने वाला अथवा पित्त प्रधान प्रमेह कई तरह के होते हैं, उनमें कालमेह- जिसमें काला पेशाब होता है। नीलमेह जिसमें नील वर्ण का पेशाब होता है। हारिद्रमेह जिसमें हल्दी के रंग के समान पीला पेशाब होता है। इन रोगों में पित्त की तीक्ष्णता से सर्वाङ्गदाह, प्यास की अधिकता, बार-बार जल पीने पर भी तृषा की निवृत्ति नहीं होती, पेशाब की मात्रा में कमी, किन्तु पेशाब अधिक होना, कण्ठ सूखना आदि उपद्रव होते हैं। ऐसी दशा में चन्द्रकला रस आँवला स्वरस के साथ देने से अच्छा लाभ होता है। इससे पित की तीक्ष्णता कम होकर रक्तस्थित और त्वचास्थित दाह कम हो जाता है और धीर-धीरे इससे होने वाले उपद्रव भी शान्त होने लगते हैं।

इस रसायन में
कञ्जली विकाशी-व्यवायी (फैलने वाली) और रसायन है ताम्रपित्तसारक और पित्त स्थान को शक्ति प्रदान करने वाला तथा यकृत् में से अधिक पित्तसाव को रोकने वाला है, अभ्रक रसायन एवं सूक्ष्म स्त्रोतों में प्रवेश करने वाला, पित्तशामक और बातवाहिनी नाड़ियों के क्षोभ को नाश करने वाला तथा वातशामक है। 

नागरमोथा आम को पचाने वाला तथा मूत्र लाने वाला है। केवड़ा मूल और दाह शान्ता करने वाला है शतावरी शक्तिवर्द्धक और मूत्र लाने वाली है। कुटकी- पित्तसाव कराने वाली और यकृत् को शक्ति देने वाली तथा ज्वरनाशक है। गुडूची (गिलोय) सत्व-पित्त और दाहशामक तथा मूह लाने वाला है। पिप्पली रसायन है। चन्दनमूल और यह नाशक है। मुनक्का पित्तशामक, हृदय को बल देने वाला शक्ति बढ़ाने वाला तथा यह-नाशक है। वंशलोचन - शीतवीर्य एवं शक्तिवर्द्धक द्रव्य है। इन सब द्रव्यों के सम्मिश्रण एवं भावनाओं के संयोग से यह रस अतीव सौम्यगुणसम्पन्न बन जाता है। पित्त प्रधान विकारों में इसका प्रचुर प्रयोग प्रचलित है।
अ. गु. प. शा. से किंचित् परिवर्तित


चन्द्रकान्त रस

रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लौह भस्म, ताम्र भस्म शुद्ध गन्धक - सब समान भाग लेकर एक दिन स्नुही (सेहुण्ड) के दूध में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -- र. सा. सं.

मात्रा और अनुपान

1 से 2 गोली सुबह-शाम गोदन्ती हरताल भस्म और मधु के साथ सेवन करें अथवा बादाम के हलुवा में मिलाकर खाकर ऊपर से गरम दूध पियें। जलेबी की चाशनी में मिलाकर चाटने और ऊपर से गरम जलेबी और दूध पीने से बड़ा अच्छा लाभ होता है।

गुण और उपयोग

रससिन्दूर, अभ्रक, तीक्ष्ण लौह, ताम्र आदि भस्मों के योग से बने इस रस के सेवन से वात-पित्त-कफादि किसी भी दोष से उत्पन्न शिरोरोग दूर हो जाता है। 

अर्धावभेदक (आधाशीशी) सूर्यावर्त (सूर्य के साथ घटने-बढ़नेवाला सिर दर्द) में इसके सेवन से निश्चय लाभ होता है। 

शरीर में रक्त की कमी के कारण होने वाली मस्तिष्क में शून्यता अथवा सिर दर्द में भी प्रवाल चन्द्रपुटी के साथ इसको मधु में मिलाकर या दूध के साथ देने से अच्छा लाभ होता है। 

जीर्ण प्रतिश्याय में भी कपाल में कफ संचित होकर सिर दर्द उत्पन्न कर देता है, उसमें इसे गोदन्ती भस्म के साथ मिला शर्बत गुलवनप्सा के साथ देने से उत्तम लाभ होता है। अनन्तवात नामक शिरोरोग में भी यह उत्कृष्ट लाभदायक औषध है।


चन्द्रकान्त रस (भै. र.)

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म चन्द्रिका रहित, रौप्य भस्म, शुद्ध हरिताल, कांस्य भस्म, लौह भस्म वारितर, स्वर्णमाक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म- - प्रत्येक द्रव्य 1-1 भाग, बंग भस्म 9 भाग लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, पश्चात् अन्य भस्मों को एकत्र मिला कर मर्दन करें और आम की छाल का क्वाथ, आँवला- स्वरस या क्वाथ, कुल्थी का क्वाथ, लज्जालु स्वरस, बड़ की जटा का क्वाथ, सेमल की जड़ का स्वरस या क्वाथ इनकी प्रत्येक की क्रम से 3-3 दिन भावना देकर दृढ़ मर्दन करें पश्चात् सुखाकर मर्दन कर जितना सब द्रव्यों का वजन हो उतना जायफल, लौंग, नागरमोथा, दालचीनी, छोटी इलायची, जावित्री ये प्रत्येक द्रव्य समान भाग लेकर सूक्ष्म कपड़छन किया हुआ इनका चूर्ण मिला आँवले के रस से मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोली बना, सुखा कर सुरक्षित रख लें। -- भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली आवश्यकतानुसार दिन में दो बार आँवला-स्वरस और शहद के साथ अथवा मधु या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इस रसायन का प्रयोग करने से समस्त प्रकार के प्रमेह रोग नष्ट होते हैं। यह अत्यन्त वृष्य तथा रसायन है। 

क्षीण पुरुषों की क्षीणता को नष्ट करके उनकी अंग वृद्धि करता है और ध्वजभंगादि रोगों को शीघ्र नष्ट करता है।

मूत्राघात, अश्मरी, अत्यन्त दारुण मधुमेह रोग, उग्र मूत्रातिसार आदि रोगों को नष्ट करता है।

पाँचों प्रकार का कास रोग, उग्र राजयक्ष्मा रोग, बह्निमान्ध, भगन्दर आदि रोगों को इस प्रकार नष्ट करता है।

जिस प्रकार इन्द्र का वज्र वृक्षों को नष्ट करता है। समस्त प्रकार के अम्लपित्त, आठों प्रकार के शूल रोगों में भी इसके सेवन से उत्तम लाभ होता है। 

वर्तमान काल में धातुक्षीणता रोग के प्रसार का प्रमुख कारण अश्लील काम मुद्राओं के चित्र देखना, सिनेमा, खेल आदि तथा अश्लील गाने सुनना है। अश्लील साहित्य पढ़ने तथा काम विषय चिन्तन करने से मानसिक भाव क्षुब्ध होकर मन और मस्तिष्क को अशांत एवं दुर्बल बना देते हैं। परिणामस्वरूप शुक्रस्थान में उष्णता एवं शुक्रवाहिनी नसों में उत्तेजना उत्पन्न होकर स्वप्नदोष या धातुक्षीणता उत्पन्न हो जाती है। इसे मिटाने के लिए इस रस का सेवन तथा विचारों की शुद्धि सर्वश्रेष्ठ उपाय है।


चन्द्रशेखर रस

शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक 2 तोला, मिर्च 2 तोला, सुहागे की खील 2 तोला, मिश्री 7 तोला – इस सबको एकत्र कर रोहू मछली के पित्त के साथ 3 दिन खरल में घोंटकर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर रख लें। -- भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम अदरक रस और मधु अथवा ठण्डे जल के साथ दें। रक्त-पित्त में आँवले के मुरब्बे से और बच्चों को माता के दूध से दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन के सेवन से जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त, श्वास-खाँसी आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। बच्चों की खाँसी, ज्वर, पसली चलना आदि बीमारियों में इसका उपयोग बहुत लाभदायक है। 

इस रसायन का विशेष उपयोग पित्तश्लेष्मा ज्वर में शरीर में दाह, तन्द्रा, अरुचि, कभी- कभी अंग में दाह हो और कभी किसी अंग में ठण्ड लगे ऐसे लक्षण उत्पन्न होने पर होता है। इस ज्वर में कफ रुक जाता है और पित्त पतला होकर कफ से मिल जाता है। ये दोनों आमाशय से स्रोतों को रोक देते हैं, जिससे आमाशय का पित्त मन्द होकर ज्वर उत्पन्न कर देता है। ऐसे ज्वर में चन्द्रशेखर रस देने से तुरन्त लाभ होता है, क्योंकि इसमें सुहागे का खील कफघ्न होने की वजह से दूषित कफ को निकाल कर आमाशयस्थ पित्त को जागृत कर देता है। फिर यह जागृत जठराग्नि अपना कार्य करने में समर्थ हो जाती और ज्वरादि भी कम होने लग जाते हैं।

इस रसायन में कज्जली कीटाणु नाशक, रसायन और विकाशी है। मिर्च- तीव्र पाचक और उत्तेजक है। सुहागा- आक्षेप नाशक, पाचक, कफ पतला करनेवाला और प्रसन्नताकारक है।


चन्द्रशेखर रस ( गोरोचन युक्त )

अभ्रक भस्म, लौह भस्म ताम्र भस्म, मण्डूर भस्म कान्त लौह भस्म, शुद्ध टंकण, गोरोचन, सुगन्धवाला चूर्ण प्रत्येक 1-1 भाग लेकर एकत्र मिला, श्वेत अपराजिता के स्वरस या क्वाथ में एक दिन मर्दन करें। गोली बनने योग्य होने पर 1-1 रत्ती की गोली बना, सुखा कर रख लें। -- र. यो. सा.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली दिन में तीन बार सुबह दोपहर और शाम की अपराजिता के रस या सुदाब के रस अथवा सम्भालू के रस के साथ दें या अदरख के रस और शहद के साथ अथवा माता के दूध के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का उचित अनुपान के साथ प्रयोग करने से बच्चों के समस्त प्रकार के रोग यथा— दूध का वमन होना, हरे पीले फटे दस्त होना, पेट में अफरा हो जाना, सूखा रोग, जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त, श्वास, खाँसी, स्तन्यदोष, सन्निपात, अजीर्ण, अतिसार, शूल, जुकाम (नाक बहना), बच्चों का धनुर्वात, डब्बा रोग (पसली चलना) आदि रोगों को शीघ्र नष्ट करता है तथा इसके सेवन से बच्चे हृष्ट-पुष्ट एवं निरोग रहते हैं।


चन्द्रशेखर रस (गोरोचन सहित )

अभ्रक भस्म, लौह भस्म ताम्र भस्म, मण्डूर भस्म कान्त लौह भस्म, शुद्ध, टंकण, सुगन्धवाला चूर्ण – प्रत्येक एक-एक भाग लेकर एकत्र मिला श्वेत अपराजिता के रस में पूरे एक दिन दृढ़ मर्दन कर 11 रत्ती की गोली बना, सुखा कर सुरक्षित रख लें। - (र. यो. सा. वाला पूर्वोक्त योग गोरोचन छोड़ कर )

मात्रा और अनुपान

आधी-आधी गोली दिन में दो-तीन बार आवश्यकतानुसार अदरक रस और शहद के साथ या आँवले के मुरब्बा के साथ या रोगानुसार उचित अनुपान से दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन का प्रयोग करने से बच्चों के समस्त प्रकार के जीर्ण ज्वर, रक्तपित्त, श्वास, कास इन रोगों को शीघ्र नष्ट करता है। 
रक्तपित्त रोग में आँवला मुरब्बा के साथ देने से अच्छा लाभ करता है। 
इसके अतिरिक्त बालशोष, बच्चों के यकृत् विकार, अजीर्ण, अग्निमांद्य, रक्ताल्पता आदि विकारों को शीघ्रं नष्ट करता है।


चन्द्रामृत रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, अभ्रक भस्म 11 तोला, सुहागे की खील 2 तोला, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, आँवला, हरें, बहेड़ा, चव्य, धनियाँ, जीरा, सेंधा नमक- प्रत्येक 1-1 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना उसमें अन्य भस्में मिला कर घोंटें। फिर शेष द्रव्यों को कूट-कपड़छन चूर्ण बना, मिलाकर अडूसे के पत्तों के स्वरस की भावना देकर घोंट कर 3-3 रत्ती की गोलियाँ बना लें। — सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1 गोली शहद में मिला कर चटावें और ऊपर से बकरी-दूध, गोजिहादि क्वाथ, द्राक्षारिष्ट या शर्बत जूफा पिलावें। यदि खाँसी में कफ के साथ रक्त आता हो तो 1 गोली इस रस को, 5 रती नागकेशर का चूर्ण और 5 रत्ती खून खराबे के चूर्ण के साथ मिलाकर 1 तोला लाल कमल के स्वरस के साथ देवें । खाँसी के साथ श्वास भी हो तो लाल कमल स्वरस के साथ देवें अथवा 1 गोली चन्द्रकान्त रस के साथ 5-7 रत्ती सोमलता का चूर्ण मिला कर शहद से देवें। शुष्क कास में मिश्री चूर्ण या मुलेठी चूर्ण के साथ मिला कर देने से शीघ्र लाभ करता है। शुद्ध टंकण अथवा वासा, कंटकारी, अपामार्ग, इनमें से किसी के क्षार के साथ भी लाभकारी है।

गुण और उपयोग

यह पाँचों प्रकार की खाँसी के लिये लाभदायक है। जिस खाँसी में खून आता हो तथा खाँसते-खाँसते दाह, प्यास एवं मूर्च्छा आ जाती हो, उस हालत में इस दवा का अच्छा असर होता है। 

यदि जीर्ण ज्वर के साथ खाँसी हो और मन्दाग्नि, कास आदि की भी शिकायत हो तो इस रसायन का प्रवाल चन्द्रपुटी और तालीसादि चूर्ण में मिला शर्बत गुलबनप्सा के साथ अवश्य प्रयोग करें, इससे कफ नरम होकर आसानी से निकलने लगता है, रक्त आना भी बन्द हो जाता है, दाह और प्यास की शान्ति हो कर रोगी को आराम हो जाता है। अनुपान भेद से सभी प्रकार के कास तथा श्वास रोग में यह उत्तम लाभकारी सुप्रसिद्ध औषध है।


चन्द्रांशु रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, लौह भस्म, बंग भस्म - प्रत्येक दवा समान भाग लेकर, प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना, पश्चात् अन्य भस्में मिलाकर घृतकुमारी के रस में घोंट कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा कर रख लें। -- भै.र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम जीरा क्वाथ, गोदुग्ध, जटामांसी क्वाथ अथवा रोगानुसार अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

इस रसायन के सेवन से गर्भाशय-दोष, योनि-शूल, योनि में पीड़ा एवं दाह होना तथा योनि की स्थान भ्रष्टता (अपने स्थान से टल जाना, विकृत हो जाना आदि), योनि में खाज चलना तथा रजोदोष, कामवासनाओं की शान्ति न होने के कारण उत्पन्न हिस्टीरिया आदि विकार शीघ्र दूर हो जाते हैं। इससे गर्भाशय बलवान हो जाता और उसमें गर्भधारण की शक्ति पैदा होती है।


चन्द्रोदय रस (रसगन्धकवङ्गाभ्रकल्प )

शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, बंग भस्म, अभ्रक भस्म — प्रत्येक समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें, फिर उसमें बंग भस्म और अभ्रक भस्म मिलाकर जम्बीरी नींबू के रस में घोंट, गोला बना, सम्पुट में बन्द कर, साधारण गजपुट में फूँक दें। इस प्रकार जम्बीरी नींबू के रस में घोंट कर 7 पुट दें। फिर घीकुमारी और चित्रक स्वरस की पृथक्-पृथक् 7-7 भावना देकर 2-2 रत्ती की गोली बना, सुखाकर रख लें। -- र. रा. सु.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम, जीरे के चूर्ण और गुड़ के साथ, जीर्णज्वर में घृतकुमारी रस के साथ, कास- श्वास में त्रिफला क्वाथ के साथ, उन्माद में गुर्च (गिलोय) क्वाथ के साथ और धनुर्वात में दशमूल क्वाथ के साथ देने से विशेष लाभ होता है।

गुण और उपयोग

यह चन्श्वेदय रस स्वर्णमिश्रित चन्द्रोदय रस से पृथक् है अतएव इसके गुण में भी अन्तर है। यह चन्द्रोदय रस गंधक, बंग और अभ्रक का यौगिक रासायनिक कल्प है। इसका उपयोग शुक्र क्षय-विकार में उत्पन्न होने वाले अग्निमांद्य, बद्धकोष्ठ, जीर्णज्वर, उन्माद, अपस्मार आदि में होता है।

विषम ज्वर में

कभी-कभी विषम ज्वर अधिक दिन तक हैरान करता है, जिससे दोष और दृष्य दोनों निर्बल हो जाते हैं। परिणाम यह होता है कि शरीर में रोग निरोधक शक्ति नहीं रहती, जिससे अनेक तरह के अन्य रोग भी उपद्रव रूप में उत्पन्न होने लगते हैं। इसमें शुक्रक्षय भी होता है, अतः मन्दाग्नि हो जाती तथा पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। इन कारणों से शरीर कमजोर और दुबला-पतला हो जाता है, रस-रक्तादि धातुओं की कमी के कारण शरीर का रंग पीला हो जाने पर इस चन्श्वेदय रस के देने से विशेष लाभ होता है। इसके सेवन से ज्वर, मन्दाग्नि और धातु-क्षय आदि दोष नष्ट होते हैं।

कभी-कभी विशेष शुक्रक्षय होने से श्वासवाहिनी और फुफ्फुस अशक्त हो खाँसी तथा श्वास की वृद्धि हो जाती है। ऐसे कास श्वास को दूर करने और रोगी को स्वस्थ बनाने के लिए इस चन्श्वेदय रस का उपयोग करना चाहिए।

विशेष काल तक काम शास्त्र का अध्ययन करने या स्त्री विषयक दूषित भावनाओं का बराबर विचार-मनन- चिन्तन आदि करने के सिवाय कुछ काम नहीं करना, ऐसे विचार करने वाले कामोन्मत्त हो जाते हैं और उनके सामने चाहे कोई भी स्त्री सुन्दर वेष में आ जाय, तो उसके प्रति उनके विचार दूषित होने लगते हैं और कभी-कभी दूषित विचार प्रकट भी हो जाता है। इस तरह की दूषित भावना अधिक दिन तक रहने से कामेच्छा प्रबल हो जाती है, किन्तु इनकी पूर्ति न होने से मन और शरीर दोनों दूषित हो जाते हैं। बार-बार इच्छा करने पर इसकी पूर्ति नहीं होने से मानसिक आघात हो उन्माद हो जाता है यूनानियों ने इसका नाम 'प्रेमोन्माद' रखा है।

इसमें रोगी को मनोविभ्रम हो जाता और बराबर स्त्री-विषयक ही बातें करता रहता है। वह कभी खूब हँसता और कभी रोने-चिल्लाने लगता है बार-बार चुम्बन करने की चेष्टा करता है। यदि कभी शुक्र स्त्राव हो जाता तो रोगी बहुत व्याकुल (बेचैन हो जाता है इस रोग का मूल कारण किसी सुन्दर स्त्री को देखना या रास्ते चलती औरतों को देखकर अधिक चिन्तन करना है ऐसी हालत में यह चन्श्वेदय रस अच्छा काम करता है।

हिस्टीरिया में

जब दौरे बार-बार होते हों, स्त्री कमजोर और दुबली होती जाती हो, ऐसी दशा में चन्श्वेदय रस देने से हिस्टीरिया के आक्षेप ( झटके दौरे) बन्द हो जाते हैं तथा शारीरिक शक्ति भी बढ़ने लगती है।

धनुर्वात में

जो धनुर्वात शारीरिक अभिघात अर्थात् शरीर में किसी प्रकार की चोट लगने अथवा अत्यन्त रक्तस्राव होने के कारण उत्पन्न होता है। ऐसे धनुर्वात में विशेषतया इसका उपयोग शोणित-स्थापन या शोणित स्तम्भन के लिए किया जाता है। यह चन्द्रोदय रस मानसिक दोषनाशक, आक्षेप को नष्ट करनेवाला और वायु की गति को नियमित करने वाला तथा शुक्रक्षय-विकार को नष्ट करने वाला है।

इस रसायन में
कज्जली रसायन व कीटाणुनाशक तत्व है। बंग शुक्र-दोषनाशक, रसायन, बलवर्द्धक तथा मदोदोषशामक है । अभ्रक रसायन, वातवाहिनी नाड़ी शामक और धातुओं को पुष्ट 'करनेवाला तथा उन्माद रोग नाशक है। जम्बीरी नींबू का रस पाचक तथा दीपक है। ग्वारपाठा जीवनीय, रसायन, मृदु विरेचक वा शोणित को प्रसादन करनेवाला है। चित्रक रक्त का दबाव नियमित करनेवाला और वातवाहिनी नाड़ी शामक तथा तीक्ष्ण व पाचक है। औ. गु. ध. शा.


चिन्तामणि चतुर्मुख रस

रससिन्दूर 4 तोला, लौह भस्म, अभ्रक भस्म प्रत्येक 2-2 तोला, स्वर्ण भस्म 1 तोला लेकर प्रथम रससिन्दूर को खरल में डालकर मर्दन करें, पश्चात् अन्य भस्में मिलाकर ग्वारपाठे के रस में दृढ़ मर्दन कर गोला बनायें और उस गोले को एरण्ड के पत्तों में लपेटकर तीन दिन तक धान के ढेर में दबा कर रखें। तीन दिन के पश्चात् निकाल कर एरण्ड के पत्तों को गोले के ऊपर से हटाकर गोले को खरल में दृढ़ मर्दन कर 1-1 रत्ती की गोली बना, सुखा कर सुरक्षित रखें। -- भै. र

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम त्रिफला चूर्ण और मधु के साथ अथवा रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें।

गुण और उपयोग

रस सिन्दूर और स्वर्ण मिश्रित इस योगवाही रसायन का सेवन करने से बलीपलित और समस्त प्रकार के वातज रोग नष्ट होते हैं। अपस्मार, अति कठिन घोर उन्माद तथा अन्य वायु से होनेवाले रोग - पक्षाघात, अर्दित, अपतन्त्रक, दण्डापतानक, धनुर्वात, आक्षेपक आदि कठिन वात रोगों को नष्ट करता है।

विशेषतया इसके प्रयोग से हिस्टीरिया (अपतन्त्रक), मृगी और उन्माद रोग शीघ्र नष्ट होते हैं, तथा हृदय रोगों को नष्ट कर उसको बलवान बनाता है। 

क्षय, कास, प्रमेह, अम्लपित्त, पाण्डु, प्रसूत ज्वर या प्रसूत के बाद होने वाली निर्बलता में इसके सेवन से अच्छा उपकार होता है। यह औषधि पौष्टिक एवं रसायन है, अतः बीमारी के बाद की कमजोरी या किसी अन्य कारणवश होने वाली निर्बलता में इसके प्रयोग से विशेष लाभ होता है। 

अधिक शुक्रक्षय के कारण प्राप्त हुई निर्बलता में बंग भस्म और प्रवाल भस्म के साथ इस रसायन के प्रयोग से विशेष उपकार होता है। 

वात रोगों में महारास्नादि क्वाथ रास्नासप्तक क्वाथ, लशुन, पक्व दुग्ध या रसोन घृत आदि वातनाशक अनुपान के साथ तथा उन्माद, अपस्मार, हिस्टीरिया आदि मन और मस्तिष्क के विकारों में मांस्यादि क्वाथ के अनुपान के साथ या महाचैतस घृत अथवा पञ्चगव्य घृत या ब्राह्मी घृत एक तोला को एक पाव दूध में मिला कर उसके साथ देने से उत्तम लाभ करता है।


चौंसठप्रहरी पीपल

छोटी पीपल का सूक्ष्म कंपड़छन चूर्ण 10 तोला पीपल बड़ी का फाण्ट 10 तोला लेकर चूर्ण में मिला, खरल में डाल कर 64 प्रहर तक मर्दन करें पश्चात् छाया में सुखा कर पीस करके सुरक्षित रख लें।

मात्रा और अनुपान

2 से 4 रत्ती तक, दिन में दो बार शहद या रोगानुसार उचित अनुपान के साथ दें। 

गुण और उपयोग

इसमें पीपल के समस्त गुण रहने के साथ ही साथ पीपल के रस में 64 प्रहर तक घुटाई होने के कारण गुणों में विशेष वृद्धि हो जाती है। 

यह औषध वात एवं कफजनित विकार, कास, श्वास, अग्निमांद्य, अरुचि, अम्लपित्त, हिचकी, पाण्डु अर्श, शूल आदि विकारों में बहुत उत्तम लाभ करता है। 

इसके अतिरिक्त प्रसूत ज्वर, शीतज्वर, कफ ज्वर, जीर्ण ज्वर आदि में केवल इसका अथवा अन्यान्य औषधियों के अनुपान रूप में अधिकतर उपयोग होता है। यह औषध प्रसूता स्त्री के स्तन्य (दुग्ध) की वृद्धि करती है। हृदय की शिथिलता में मधु के साथ देने से तत्काल बल मिलता है तन्द्रा बेहोशी में नस्य रूप में इसके प्रयोग से शीघ्र लाभ होता है। 

जीर्ण ज्वर तथा यक्ष्मा के कासयुक्त जीर्णज्वर की अवस्था में बसन्तमालती के साथ इसका प्रयोग सर्वप्रसिद्ध एवं शीघ्र फलदायक है।


चिन्तामणि रस

शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, लौह भस्म, बंग भस्म, शुद्ध शिलाजीत सूखा और अम्बर प्रत्येक 1-1 तोला, स्वर्ण भस्म चौथाई तोला, मोती पिष्टी और रौप्य भस्म प्रत्येक आधा-आधा तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली कर उसमें अम्बर, शिलाजीत तथा अन्य भस्में मिलाकर चित्रक की जड़ के क्वाथ में तथा भांगरे के स्वरस में 1-1 दिन मर्दन करें। पीछे अर्जुन वृक्ष की छाल के क्वाथ में सात दिन मर्दन करके 1-1 गुंजा ( रत्ती ) की गोलियाँ बना, छाया में सुखा कर शीशी में रख लें। -सि. यो. सं.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली सुबह-शाम शहद में चटा कर ऊपर से बला (बरिपार) की जड़ का क्वाथ पिलावें।
वक्तव्य
खमीरे गावजवाँ, आँवला मुरब्बा, सेब का मुरब्बा, दूध, च्यवनप्राश आदि अनुपानों के साथ में सेवन कराने से भी यह रसायन बहुत अच्छा लाभ करता है। 

गुण और उपयोग

सब प्रकार के हृदय रोग, हृदय शूल और हृदय की बढ़ी हुई गति में अत्यन्त लाभदायक है। 

वातवाहिनियों की निर्बलता, हिस्टीरिया आदि में इसका प्रयोग करना उत्तम है। 

हृदय रोग के साथ, यकृत् शोथ और उदर रोग हो तो इसके साथ आरोग्यवर्द्धिनी बटी मिला कर देना चाहिए। इससे अच्छा लाभ होता है। 

रक्तचाप वृद्धि  (HIGH BP) और हृदय की दुर्बलता के कारण बढ़ी हुई हृदय की धड़कन को मिटा कर दिल को मजबूत बनाने और रक्तचाप को शमन करने में प्रवालचन्द्रपुटी या मोती पिष्टी के साथ इसके सेवन से बहुत श्रेष्ठ लाभ होता है।


जयमंगल रस

हिंगुलोत्थ, पारा, शुद्ध गन्धक, सुहागे की खील, ताम्र भस्म, बंग भस्म, सोनामक्खी भस्म, सेंधा नमक, काली मिर्च- प्रत्येक एक-एक तोला, स्वर्ण भस्म 2 तोला, कान्तलौह भस्म तथा चाँदी भस्म 11 तोला लें। प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बना फिर उसमें अन्य भस्में तथा कूट कपड़छन किया हुआ काष्ठौषधियों का चूर्ण मिला सब को एकत्र घोंटकर धतूरे के पत्ते का रस, हरसिंगार के पत्तों का रस, दशमूल का क्वाथ और चिरायते के क्वाथ की 3- 3 भावना देकर 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना, सुखा, सुरक्षित रख लें। --भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली जीरे के चूर्ण और शहद या गुडूची- स्वरस और शहद के साथ दें। 

गुण और उपयोग

स्वर्ण, लौह, बंग, ताम्र, हिंगुलोत्थ, पारद, स्वर्णमाक्षिक जैसे प्रधान उपादानों के कारण उत्तम गुणकारी होने से यह रस बहुत उपयोगी है। पुराने बुखार के लिए तो यह बहुत प्रसिद्ध दवा है। यह दोषों का शमन कर दिमाग में शान्ति पहुँचाता है। 

हृदय, मस्तिष्क, फुफ्फुस, मूत्रपिण्ड आदि सभी शारीरिक अंगों पर इसका अच्छा प्रभाव होता है सभी प्रकार के पुराने बुखार, बिगड़े हुए ज्वर, धातुगत ज्वर और ज्वरों के उपद्रव इसके सेवन से शान्त हो जाते हैं। अनुपान भेद से सभी विकारों में इस रसायन का उपयोग किया जाता है, यह बल-वीर्य की वृद्धि कर शरीर की रस रक्तादि धातुओं को पुष्ट करता है। किसी भी रोग के कारण हुई कमजोरी में इसके उपयोग से बहुत लाभ होता है।

जीर्ण ज्वर में

शरीर में अधिक दिन तक ज्वर रह जाने के कारण रस रक्तादि धातु तथा दोष दृष्य आदि निर्बल हो जाते हैं। फिर इनमें रोगों के उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं को रोकने की शक्ति (Energy) नहीं रहती तथा हृदय कमजोर हो जाता है अतः विष प्रधान दवा देने में संशय होता रहता है। ऐसी अवस्था में जयमंगल रस बहुत शीघ्र लाभ करता है।

कभी-कभी अचानक इतने जोर से आदमी डर जाता है कि उसके कारण बुखार आ जाता है। इससे हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। वातवाहिनी नाड़ियाँ अस्थिर हो जाती हैं, जिसमें शरीर कांपने लगता और मन चंचल हो जाता है कभी-कभी तो उन्माद सा हो जाता है ऐसी भयंकर परिस्थिति में जयमंगल रस के उपयोग से अच्छा लाभ होते देखा गया है। इसमें स्वर्णमाक्षिक और रजत भस्म तथा स्वर्ण भस्म के संयोग के कारण यह मस्तिष्क के लिये उत्तम शान्तिप्रद और बलकारक है बङ्ग और स्वर्णमाक्षिक का संयोग धातुओं की परिपुष्टि के लिये उत्कृष्ट लाभकारी है।

ताम्र भस्म, सैन्धव नमक और काली मिर्च का सम्मिश्रण दोषों का पाचन कर अग्नि को प्रदीप्त करने में उत्तम कार्य करता है धतूरा पत्र रस, हरसिंगार, दशमूल क्वाथ, चिरायता क्वाथ की भावनाओं के कारण यह रस रक्तादि धातुओं में सूक्ष्म रूप से अवस्थित रोगोत्पादक दोषों का उल्लेखन कर उनको निर्मूल एवं शोधन तथा शमन करने में उत्कृष्ट प्रभावशाली महौषधि है।


जलोदरारि रस
शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मैनशिल, हल्दी, शुद्ध जमालगोटा, हरें, बहेड़ा, आँवला, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, चीते की छाल इनका चूर्ण प्रत्येक का 2-2 तोला लेवें, प्रथम पारद-गन्धक की कज्जली बना मैनशिल मिला कर रख लें, फिर अन्य औषधियों के कूट-कपड़छन किए हुए महीन चूर्ण मिला, दन्तीमूल, सेंहुड़ और भांगरे के रस की सात सात भावनाएँ दे कर 11 रत्ती की गोलियाँ बना कर रख लें। -- भै. र.

मात्रा और अनुपान

1-1 गोली ऊंटनी के दूध, पुनर्नवा रस अथवा दशमूल क्वाथ के साथ दें। उदर तथा यकृत् रोग में घृतकुमारी रस के साथ दें।

गुण और उपयोग

कज्जली, मैनशिल और जमालगोटे के प्रधान सम्मिश्रण के कारण यह रस परम संशोधक और तीव्र रेचक है। जलोदर में संचित जल को यह बाहर निकालता है और सुखाता भी है, साथ ही जिस कारण से जल संचय होता है, उस कारण को भी नष्ट कर देता है। यकृत् विकार और उदर रोगों में इसका अच्छा प्रभाव होता है।









Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)